[dropcap color=”#000000″]”ऊँ [/dropcap]नमः दैवेये, महा दैवेये शिवायै सततः नमः।
नमः प्रकृतयै भद्रायै नियताःप्रणताः स्मताम।।”
“माँ आप कौन है? और इस वन मे आप इस प्रयोजन हेतु है? आप द्रवित क्यों हैं? और आप का ये रूप मलिन क्यों है?”
“मैं प्रकृति हूँ। विधाता ने मुझे स्वयं अपने कर-कमलों से रच कर टैथिस सागर में मंदारंचल पर स्थित कर दिया था और मुझे उत्तराखंड नाम दिया।
मेरे तन में हरियाली साड़ी थी। मस्तक में मुकुट जो सुबह-शाम स्वर्ण की भाँति चमकता व दिवस-रात्रि में चाँदी की तरह। कण्ठ में श्वेत हार झरनों के रूप में अलग ही शोभायमान होता। मेरी हरियाली साड़ी में अनेको नदियाँ, जैसे गंगा व यमुना की पवित्र जल धारायें अविरल प्रवाहित हो मेरा भाग्योदय करती।
विधाता ने मुझे क्या कुछ नही दिया था अनुपम सौन्दर्य, निर्मलता, पवित्रता व सौभाग्य। समस्त फल-फूल,औषधियाँ, साग-सब्जी, पवित्र, निर्मल व मृदुल क्या कुछ नही था यहाँ पर।
देव, नाग, किन्नर,ऋषि- मुनियों व अनेको पुण्यात्माओं की मैं कर्मस्थली भी थी। अनेकों प्राकृतिक ससाधनों से मैं परिपूर्ण थी। अनेकों प्राणी जैसे पशु पक्षी, मनुष्य मेरे पर पूर्णरूपेण आश्रित थे। सभी प्राणी मेरे आश्रय स्थलमें प्रसन्नता पूर्वक और आनंद के साथ रहते थे। यहाँ के निवासी सरल स्वभाव के थे। वे मेरे से स्नेह करते थे एवं मेरी साधना करते थे।
परन्तु समय जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया। मनुष्य का स्वभाव, वैसे-वैसे परिवर्तित होता गया। समय के साथ बाहरी लोगों का आवागमन यहाँ शुरू होने लगा। शुरू-शुरू में वे मेरे सौन्दर्य से आकर्षित हो मेरे पास आने लगे, परन्तु बाद में वे लोग मेरे सौन्दर्य के साथ खिलवाड़ करने लगे। वृक्षों को तेजी से काटा जाने लगा। पहाड़ों का दोहन होने लगा था। अंधाधुंध निर्माण कार्य से मेरी पवित्रता भी प्रभावित होने लगी। जल श्रोत शनेः-शनेः घटने लगे। वृक्षों के अंधाधुंध दोहन होने के कारण इन्द्र देव भी रूष्ट होने लगे। अपराध मनुष्य का और दंड भुगत रही थी मैं।
दुःख तो इस बात का था कि मेरा दोहन करने वाले बाहरी थे, परन्तु मेरी रक्षा करने के स्थान में मेरा दोहन करने वालों की सहायता करनेवालों में मेरे ही अपनी सन्ततियाँ थी, मात्र तुच्छ लाभ की पूर्ति हेतू। विधाता ने तो मुझे मनुष्य सहित समस्त प्राणीमात्र की सहायता हेतु सृष्टि में भेजा था, परन्तु मनुष्य ने विनाश के पथ का चयन कर समस्त प्राणीमात्र के आगे गहरा संकट खड़ा कर दिया।
आज आप जो मेरा विकृत रूप देख रहे हैं ना वो मनुष्य की ही देन है,खास तौर पर मेरे अपनों की। आज मेरा सौन्दर्य अब पुस्तकों में, चित्रों में व चलचित्रों में इतिहास का एक हिस्सा मात्र बन के रह गया।
कितना अजीब लगता हैं जब आज,लोग अपने घर को उजाड़ कर दूसरों के घरों में आश्रय लिये हुए हैं ।अपनी भाषा को खो चूके हैं, अपनी संस्कृति को भूल चूके हैं व भूल चूके हैं वो पथ जो आता है मेरे पास। वो आते हैं मेरे पास परायों के साथ, पराया बन कर और मैं डरती हूँ ये सोचकर कि कही फिर ना हो मेरा चीर हरण। क्योंकि मैं प्रकृति हूँ।”
“वत्स तुम्हारी ही स्तुति से प्रसन्न हो मैं तुम्हारे सम्मुख आई, और तुम जैसे सरल हृदय पुत्र के समक्ष अपनी वेदना व्यक्त कर मुझे आनंद की अनुभूति हुई है।”
“अब मुझे जाना होगा वत्स। मनुष्य को अब मेरी आवश्यकता नही है।”
और प्रकृति चली गयी।