गिरीश चंद्र तिवारी ‘गिर्दा‘ का जन्म 9 सितंबर 1945 को ग्राम ज्योली (हवालबाग) जनपद अल्मोड़ा में हुआ था। उनके पिता जी का नाम हंसा दत्त तिवारी और माता जी का नाम जीवंती तिवारी था। गिर्दा ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा में ही संपन्न की। बचपन से ही उनका मन सांस्कृतिक गतिविधियों की ओर रहा ।
युवा अवस्था में गिर्दा रोजगार की तलाश में घर से निकल गए और पीलीभीत,लखनऊ तथा अलीगढ़ आदि शहरों में रहे। गिर्दा ने लखनऊ में बिजली विभाग तथा लोक निर्माण विभाग आदि में नौकरी करी। 1967 में उन्होंने गीत और नाटक विभाग लखनऊ में स्थाई नौकरी शुरू करी। यहीं से गिर्दा का लखनऊ आकाशवाणी में आना-जाना शुरू हुआ। आकाशवाणी के कार्यक्रमों के बहाने ही उनका परिचय शेरदा अनपढ़, घनश्याम सैलानी आदि जैसे रचनाधर्मियों से हुई।
गिर्दा ने कुमाऊनी और हिंदी में लगातार कविताएं लिखी। उन्होंने कई नाटकों का निर्देशन भी किया, जैसे अंधायुग, अंधेर नगरी चौपट राजा,नगाड़े खामोश, धनुष यज्ञ आदि। नगाड़े खामोश और धनुष यज्ञ स्वयं गिर्दा द्वारा रचित नाटक है।
गिर्दा ने कई आंदोलनों में प्रतिभाग किया। उत्तराखंड मे जंगलों के लगातार हो रहे कटान के खिलाफ उन्होंने ‘चिपको आंदोलन‘ में प्रतिभाग किया। गिर्दा ने ‘उत्तराखंड राज्य आंदोलन‘ और ‘नदी बचाओ आंदोलन‘ में भी हिस्सा लिया और अपने गीतों और कविताओं से जन-जागरूकता फैलाई।उत्तराखंड आंदोलन के दौर में गिर्दा कंधे में लाउडस्पीकर थाम ‘चलता फिरता रेडियो‘ बन गए। अपने गीतों और कविताओं से लोगों को जागरूक करने लगे।
उत्तराखंड में जन-गीतों के नायक माने जाने वाले गिरिश चंद्र तिवारी गिर्दा का 22 अगस्त 2010 को देहांत हो गया। वह लंबे समय से बीमार चल रहे थे। गिर्दा भले ही आज हमारे बीच नहीं रहे, वह अपने गीत और कविताओं के माध्यम से हमेशा हमारे बीच अमर रहेंगे।
गिर्दा के गीत और कविताओं के कुछ पंक्तियां-
उत्तराखंड आंदोलन की पंक्तिया-
“जैंता एक दिन त आलो ये दुनी में
चाहे हम ने ल्या सकूं, चाहे तुम नि ल्या सको
जैंता क्वै न क्वै त ल्यालो, ये दुनी में
जैंता एक दिन त आलो ये दुनी में……“
गैरसैंण रैली मे कहा गीत-
“कस होलो उत्तराखण्ड, कां होली राजधानी,
राग–बागी यों आजि करला आपुणि मनमानी,
यो बतौक खुली–खुलास गैरसैंण करुंलो।
हम लड़्ते रयां भुली, हम लड़्ते रुंल॥”
गिर्दा की कविता “कैसा हो स्कूल हमारा?”
“जहाँ न बस्ता कंधा तोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा।
जहाँ न पटरी माथा फोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा।
जहाँ न अक्षर कान उखाड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा।
जहाँ न भाषा जख़्म उघाड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा।“
हिमालय बचाओ आंदोलन-
“आज हिमाल तुमन के धत्यूंछौ, जागौ-जागौ हो म्यरा लाल,
नी करण दियौ हमरी निलामी, नी करण दियौ हमरो हलाल।
विचारनै की छां यां रौजै फ़ानी छौ, घुर घ्वां हुनै रुंछौ यां रात्तै-ब्याल,दै की जै हानि भै यो हमरो समाज, भलिकै नी फानला भानै फुटि जाल।”