उत्तराखंड के त्योहार

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Uttarakhand: उत्तराखंड का इतिहास काफी पुराना रहा हैं। उत्तराखंड के बारे में हम महाभारत, रामायण में सुन सकते हैं। इसके साथ ही उत्तराखंड के बारे में पुराणों में भी काफी जानकारी मिलती हैं। उत्तराखंड का इतिहास जितना पुराना हैं, यहाँ की संस्कृति भी उतनी ही पुरानी है। यहाँ कई त्योहार मनाए जाते है, जो यहाँ की संस्कृति को जिंदा रखने का काम करती है। इन्ही में से कुछ त्योहार के बारे में नीचे बताया गया हैं।

अंदुरी उत्सव:

उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के रैथल में हर साल अंदुरी उत्सव या बटर फेस्टिवल आयोजित किया जाता है। आम तौर पर अगस्त और सितंबर के बीच आयोजित किया जाता है।

गर्मियों में पहाड़ी लोग अपनी गाय बकरियों के साथ पहाड़ों पर ऊपर शिफ्ट हो जाते हैं। यह फेस्टिवल भगवान कृष्ण को धन्यवाद देने के लिए है कि उन्होंने उनकी गायों की रक्षा की। इस त्योहार के दौरान लोग एक दूसरे को मक्खन, दूध और छाछ का लेप लगाते हैं।

इस जगह के बारे में मान्यता है कि शिव-पार्वती का विवाह यहीं हुआ था, तब से आज भी यहां अखंड धूनी प्रज्जवलित है।यहां शिव मंदिर है जो पानी पर है। नीचे ज़मीन नहीं पानी का कुंड है जिसमें हमेशा पानी रहता है।

इस जगह में तिग्मांशु धूलिया की फिल्म की शूटिंग हुई थी। उत्तराखंड के रम्माण मेले को तो यूनेस्को ने हेरीटेज फेस्टिवल घोषित कर दिया है इसलिए लोग इसके बारे में जानने लगे हैं।

भिटौली:

भिटौली उत्तराखंड राज्य की विवाहित महिलाओं को समर्पित एक त्योहार है। भिटौली का शाब्दिक अर्थ है – भेंट (मुलाकात) करना। प्रत्येक विवाहित लड़की के मायके वाले चैत्र के महीने में उसके ससुराल जाकर विवाहिता से मुलाकात करते हैं।  इस अवसर पर वह अपनी लड़की के लिये घर में बने व्यंजन जैसे खजूर, खीर, मिठाई, फल तथा वस्त्रादि लेकर जाते हैं। शादी के बाद की पहली भिटौली कन्या को वैशाख के महीने में दी जाती है और उसके पश्चात हर वर्ष चैत्र मास में दी जाती है।

यह एक अत्यन्त ही भावनात्मक परम्परा है। लड़की चाहे कितने ही सम्पन्न परिवार में ब्याही गई हो उसे अपने मायके से आने वाली भिटौली का हर वर्ष बेसब्री से इन्तजार रहता है। इस वार्षिक सौगात में उपहार स्वरूप दी जाने वाली वस्तुओं के साथ ही उसके साथ जुड़ी कई अदृश्य शुभकामनाएं, आशीर्वाद और ढेर सारा प्यार-दुलार विवाहिता तक पहुंच जाता है।

आज बशर्ते शहरों में रह रहे लोग अपनी बहनों को मनीआर्डर या कोई उपहार भेजकर ही “भिटौली” की परम्परा का निर्वाह कर लेते हों, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी “भिटौली” सिर्फ एक रिवाज ही नहीं बल्कि प्रत्येक विवाहिता के लिये अपने मायके से जुड़ी यादों को समेटकर रखने का एक वार्षिक आयोजन है।


छीपला जाट:

पिथौरागढ़ जिले के छीपला कोटे में तीन साल में एक बार अगस्त में छीपला जाट उत्सव मनाया जाता है। इस त्यौहार के दौरान, आसपास के गाँवों से बड़ी संख्या में लोग इकट्ठा होते हैं और पंचचूली पहाड़ों में नजुरीकोट जाते हैं, जहाँ छिपला  केदार मंदिर स्थित है।

छिपला जात यात्रा के दौरान गोरी छाल में बरम, कनार आदि गाँवों के लोग प्रत्येक तीसरे वर्ष श्रावण भाद्र के मास में छिपलाकोट एवं नाजूरीकोट की यात्रा करते है। इसे छिपला जात नाम से जाना जाता है। यात्रा में वो हिस्सा लेते हैं जिनका व्रतपन (जनेउ / मुण्डन संस्कार) किया होता है। मान्यता है कि बिना व्रतपन वाले लोग एवं महिलाओं का इस क्षेत्र में जाना वर्जित है। जिन बालकों का व्रतपन होना होता है उन्हें नौलधप्या बोला जाता है। सभी नौलधप्या सफेद पोषाक, सफेद पगड़ी, हाथों में षंख एवं लाल-सफेद रंग का नेजा (ध्वज), गले में घंटी लेकर नंगे पांव चलते हैं।

4 दिवसीय यह धार्मिक यात्रा बरम कस्बे से आरम्भ होकर 16 किलोमीटर पैदल मार्ग यात्रा के प्रथम पड़ाव, माँ कोकिला के दरबार, कनार गांव, दूसरे पढ़ाव भैमन उड़ीयार गुफा की ओर प्रस्थान करते है। जहां भगवान जगन्नाथ जी का मन्दिर है।

तीसरे दिन प्रातः स्नान के बाद छिपला कोट के लिये चढ़ाई आरम्भ होती है। भट्याखान, तेजम-खैया, नन्दा शिख से गुजरते हुऐ छिपला कोट पहुंचते हैं। छिपला कुण्ड पहुंचकर सभी पूजा-अर्चना कर व्रतपन (मुण्डन) का कार्य करते हैं एवं कुण्ड में पवित्र डुबकी लगाकर, कुण्ड की परिक्रमा करते हैं। अत्यधिक ठण्ड व मौसम के प्रतिकुल होने की अत्यधिक संभावनाओं के कारण यहां ज्यादा न रूक तीसरे पड़ाव, भैमन की ओर प्रस्थान करते हैं रात्रि विश्राम के बाद चौथे दिन के प्रातः मुण्डन संस्कार के कुछ अन्य कार्यो को पूर्ण कर यात्रा का प्रायोजन सकुशल पूर्ण कर अब सभी लोग अपने-अपने घरों की ओर प्रस्थान करते हैं।

छिपला कोट से प्रसाद के रूप में कुण्ड का पवित्र जल एवं पवित्र पुष्प ब्रहमकमल साथ लाने की पंरम्परा है, फूलों को मार्ग में मिलने वाले मन्दिरों में चढ़ाया जाता है।


इगास:

इगास गढ़वाल में मनाया जाने वाले विशेष त्योहारों में से एके है। यह दिवाली के 11 दिन बाद मनाई जाती है।

इगस को लेकर अलग-अलग मान्यताएं हैं जिनमें एक लोककथा कहती है कि भगवान राम के वनवास से अयोध्या आए उनके स्वागत में अयोध्या को दीयों से सजाया गया वही दूसरी तरफ उनके लौटने की खबर 11 दिन देरी से कुमाऊं और गढ़वाल के पहाड़ी क्षेत्रों में पहुंची। इसलिए, बाकी देश के 11 दिन बाद लोगों ने यहोवा की जीत का जश्न मनाया।

इगास या इगास दिवाली दिवाली के 11 दिन बाद मनाई जाती है। लोककथा कहती है कि भगवान राम के वनवास से अयोध्या लौटने की खबर 11 दिन देरी से कुमाऊं और गढ़वाल के पहाड़ी क्षेत्रों में पहुंची। इसलिए, बाकी देश के 11 दिन बाद लोगों ने यहोवा की जीत का जश्न मनाया।

दूसरी मान्यता के अनुसार दिवाली के समय गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना ने दापाघाट, तिब्बत का युद्ध जीतकर विजय प्राप्त की थी और दिवाली के ठीक ग्यारहवें दिन गढ़वाल सेना अपने घर पहुंची थी।  युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में उस समय दिवाली मनाई थी।

इगास बग्वाल के दिन भैला खेलने का भी रिवाज है। यह चीड़ ज्वलनशील लकड़ी से बने अजात है। जहां चीड़ के जंगल न हों वहां लोग देवदार, भीमल या हींसर की लकड़ी आदि से भी भैलो बनाते हैं। इन लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ रस्सी अथवा जंगली बेलों से बांधा जाता है।  फिर इसे जला कर घुमाते हैं। इसे ही भैला खेलना कहा जाता है।


 

घी संक्रांति:

घी संक्रांति उत्तराखंड का प्रमुख लोकपर्व है। घी संक्रांति, घी त्यार ,ओलगिया या घ्यू त्यार प्रत्येक वर्ष भाद्रपद माह में  मनाया जाता है। ज्यादातर किसानों द्वारा गांवों में मनाया जाता है, यह अच्छी फसल और समृद्धि के लिए प्रकृति और देवताओं के प्रति आभार प्रकट करने के लिए कटाई के मौसम का प्रतीक है। व्यंजन घी (स्पष्ट मक्खन) से बनाए जाते हैं।

उत्तराखंड की लोक मान्यता के अनुसार इस दिन घी खाना जरूरी होता है। कहा जात है कि जो इस दिन घी नही खाता उसे अगले जन्म में घोंघा( गनेल) बनना पड़ता है। घी त्यार के दिन खाने के साथ घी का सेवन जरूर किया जाता है, और घी से बने पकवान बनाये जाते हैं। इस दिन सबके सिर में घी रखते हैं। बुजुर्ग लोग जी राये जागी राये के आशीर्वाद के साथ छोटे बच्चों के सिर में घी रखते हैं। और उत्तराखंड के कुछ हिस्सों में घी, घुटनो और कोहनी में लगाया जाता है।

कहा जाता है, जो इस दिन घी का सेवन करते हैं,उनके जीवन मे राहु केतु का अशुभ प्रभाव नही पड़ता है। घी को शरीर मे लगाने से, बरसाती बीमारियों से त्वचा की रक्षा होती है। सिर में घी रखने से सिर की खुश्की नही होती। मनुष्य को चिंताओ और व्यथाओं से मुक्ति मिलती है। और बुद्धि तीव्र होती है। इसके अलावा शरीर की कई व्याधियां दूर होती हैं।  कफ ,पित्त दोष दूर होते है और शरीर बलिष्ठ होता है।


घुघुतिया:

घुघुतिया या घुघुति उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में मनाया जाने वाला उत्तरायण से जुड़ा त्योहार है। गढ़वाल में इसे खिचड़ी संक्रांति कहते हैं। मकर संक्रांति की पूर्व संध्या पर कुमाऊं क्षेत्र में घुघुतिया का त्योहार मनाया जाता है। इस त्योहार के दौरान, जिसे “काले कौवा” (काला कौवा) के रूप में भी जाना जाता है, गेहूं के आटे, गुड़, दूध या घी के साथ ‘घुघुते’ नामक एक मीठा व्यंजन तैयार किया जाता है।

घुघुतिया त्योहार के पीछे एक कहानी हैं जिसके अनुसार, कुमाऊं के राजा की कोई संतान नहीं थी। उन्होंने बाघनाथ मंदिर में पूजा की और उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई। राजा का मंत्री अपना राज्य पाने के लिए ईर्ष्यावश राजा का देश करता था। राजा के पुत्र का नाम घुघुति था। रानी ने पुत्र के गले में हीरे का हार पहनाया। अगर घुघुति ने अपनी माँ की बात नहीं मानी, तो वह उससे कहती कि अगर उसने उसकी बात नहीं मानी, तो वह अपना भोजन कौवे को दे देगी। छोटा राजकुमार कौओं को खाना खिलाता था। एक दिन दुष्ट मंत्री ने राजकुमार का अपहरण कर लिया और वह जंगल की ओर जाने लगा। कौवों ने यह देखा। वे मंत्री के आदमियों को चोंचों से पीटने लगे। घुघुति ने अपना हार कौए को दे दिया। वह हार लेकर कौवे के महल में गया तो राजा को एहसास हुआ कि राजकुमार मुसीबत में है। राजकुमार की रिहाई के बाद, राजा ने मंत्री को मौत की सजा सुनाई। घुघुति ने कौवों को मीठा भोजन कराया। तभी से घुघुति पर्व पर कौओं को भोजन कराने की परंपरा प्रसिद्ध है।


हरेला:

यह उत्तराखंड का एक लोकप्रिय त्योहार है,जिसे यहाँ के और त्योहारों की तरह बहुत धूम-धाम से मनाया जाता है।

यह कृषि उत्सव हर साल तीन बार मनाया जाता है। पहला चैत्र नवरात्रि (मार्च-अप्रैल) के दौरान मनाया जाता है, दूसरा शरद नवरात्रि (सितंबर) के दौरान और तीसरा श्रवण हरेला, बरसात के मौसम (जुलाई) में मनाया जाता है। लेकिन श्रावण माह में मनाए जाने वाले हरेला पर्व का विशेष महत्व माना जाता है क्योंकि, यह महीना भगवान शिव को समर्पित होता है।

प्रकृति को समर्पित उत्तराखंड का यह लोक पर्व हरेला हर वर्ष श्रावण मास के पहले दिन मनाया जाता है।  हरेला त्यौहार के ठीक 10 दिन पहले आसाढ़ मास में हरेला बोया जाता है और 10वें दिन इसे काटा जाता है।  4 से 6 इंच तक के इन लंबे पौधों को ही हरेला या हरियाली कहा जाता है। इसके बाद विधिवत पूजा-पाठ करके यह हरियाली हरेला देवता को चढ़ाई जाती है। और उसके बाद घर के लोगों के सर में भी चढ़ाया जाता है।

इस दिन घर में कई पकवान बनाए जाते हैं। जो इस त्योहार की रौनक को और भी बढ़ा देते हैं।


हिलजात्रा:

हिलजात्रा मुख्य रूप से कुमाऊँ के पिथौरागढ़ में मनाया जाता हैं। हिलजात्रा शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है हिल+ जात्रा  हिल का अर्थ है कीचड़ तथा जात्रा का अर्थ है खेल अर्थात कीचड़ में खेला जाने वाला खेल है। यह पिथौरागढ़ जिले में किसानों द्वारा मनाया जाने वाला एक त्योहार, हिलजात्रा धान की रोपाई से जुड़ा है, जो बारिश के मौसम में आयोजित किया जाता है। इस त्योहार के दौरान, विभिन्न प्रकार की कृषि गतिविधियों का प्रतिनिधित्व करने के लिए एक विस्तृत बहाना बनाया जाता है और लोक कथाओं को नकाबपोश नर्तकियों द्वारा अधिनियमित किया जाता है, जो राक्षसों पर देवताओं की जीत का प्रतिनिधित्व करते हैं।

हिलजात्रा के इतिहास को नेपाल से जोड़ा जाता है, हिलजात्रा को नेपाल में इन्द्रजात्रा कहा जाता है।

कहा जाता है, नेपाल के राजा ने चार महर भाइयों कुवंर सिंह महर, चंचल सिंह महर, जाख सिंह महर, चेहजसिंह महर को उनकी बहादुरी से प्रसन्न होकर ये जात्रा उपहार स्वरूप भेंट की थी साथ ही हल, मुखौटे भी उपहार में दिये। नेपाल की यात्रा से ये भाई पिथौरागढ़ वापस आये, इन्होंने सर्वप्रथम उत्सव पिथौरागढ़ कुमौड़ गाँव में मनाया था, उस समय से इस पर्व का अयोजन प्रतिवर्ष किया जा रहा है, उस समय इस यात्रा को हलजात्रा कहा जाता था, वर्तमान में इसे हिलजात्रा कहा जाता है।

हिलजात्रा में नृत्य नाटिका का  स्वांग किया जाता है, जिसमें मुख्य पात्र लाखिया भूत होता है, लेकिन हिरन,बैल की जोड़ियाँ व ढोल-दामाउ बजाते कलाकार  व महिला द्वारा धान की रुपाई का स्वांग आदि किया जाता है यह पर्व उत्तराखंड की संस्कृति को अलग पहचान दिलाता है पूर्वजों द्वारा दी गई इस विरासत को आज कृषि  पर्व के रूप में मनाया जाता है जो आकर्षक व मन को मोहने वाला होता है ।


जगदा महोत्सव:

यह जीवंत त्योहार हर साल अगस्त में उत्तराखंड के जौनसार-बावर क्षेत्र में महासू देवता के सम्मान में आयोजित किया जाता है। न्याय के भगवान के रूप में पूजे जाने वाले महासू देवता को भगवान शिव का अवतार कहा जाता है, और उत्तराखंड में अत्यधिक पूजनीय हैं। जबकि यह त्यौहार भगवान के सभी मंदिरों में मनाया जाता है, सबसे लोकप्रिय त्योहार चकराता से 95 किमी दूर हनोल में महासू देवता मंदिर में आयोजित किया जाता है।  


जनेऊपुण्यों:

उत्तराखंड के सबसे महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक और कुमाऊं के लोग रक्षा बंधन और जनपुण्य एक ही दिन मनाते हैं। इस दिन, लोग किसी जगह एकत्रित होकर या किसी पनि के स्रोत के पास जाकर नहाकर, अपने जनेऊ (हिंदू पुरुषों द्वारा शरीर पर पहना जाने वाला पवित्र धागा) बदलते हैं।


काँड़ली:

पिथौरागढ़ जिले का यह अनूठा त्योहार कंडाली फूल के खिलने के साथ मेल खाता है, जो हर 12 साल में एक बार खिलता है (यह आखिरी बार 2011 में खिलता था)। लोक कथा के अनुसार, इस त्योहार के दौरान अगस्त और अक्टूबर के बीच मनाया जाता है, महिलाएं प्रतीकात्मक रूप से पौधे को नष्ट कर देती हैं।


कार्तिक स्वामी महायज्ञ:

कार्तिक स्वामी मंदिर उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में रुद्रप्रयाग-पोखरी मार्ग पर कनक चौरी गांव के पास 3050 मीटर ऊंचाई पर एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है।

कार्तिक स्वामी मंदिर भगवान शिव के बड़े पुत्र, कार्तिकेय को समर्पित है, जिन्होंने अपने पिता के प्रति समर्पण के प्रमाण के रूप में अपनी हड्डियों की पेशकश की थी। माना जाता है कि घटना यहीं हुई है। भगवान कार्तिक स्वामी को भारत के दक्षिणी भाग में कार्तिक मुरुगन स्वामी के रूप में भी जाना जाता है।

इसी कार्तिक स्वामी मंदिर में यह महायज्ञ 11 दिनों तक आयोजित किया जाता है जहां भगवान कार्तिकेय / कार्तिक स्वामी को प्रसन्न करने के लिए प्रार्थना की जाती है। इस दौरान भक्तों को भोजन कराया जाता है।


फुलदेई:

उत्तराखंड में चैत्र मास की संक्रांति अर्थात पहले दिन से ही बसंत आगमन की खुशी में फूलों का त्योहार “फूलदेई” मनाया जाता है, जो कि बसन्त ऋतु के स्वागत का प्रतीक है। साथ ही इसी महीने में उत्तराखंड के जंगलो में कई प्रकार के फूल खिलते है।fuldeyi

इस फूल पर्व में नन्हे-मुन्ने बच्चे प्रातः सूर्योदय के साथ-साथ घर-घर की देहली पर रंग बिरंगे फूल बच्चे जैसे फ्योंली, बुरांस और दूसरे स्थानीय रंग बिरंगे फूलों को चुनकर लाते हैं जिन्हें वो सबके घरों की देहली में चढ़ाते हुए घर की खुशहाली , सुख-शांति की कामना के गीत गाते हैं। इसके लिए बच्चो को परिवार के लोग गुड़, चावल व पैसे देते हैं |

ज्योतिषियों के मुताबिक यह पर्व पर्वतीय परंपरा में बेटियों की पूजा, समृद्धि का प्रतीक होने के साथ ही “रोग निवारक औषधि संरक्षण” के दिवस के रूप में भी मनाया जाता है।

फुलदेई पर्व के दिन कई पकवान भी बनाए जाते हैं जिनमें से एक मुख्य प्रकार का व्यंजन बनाया जाता है जिसे “सयेई” कहा जाता है। उत्तराखंड के और त्योहार के जैसे ही यह बहुत धूम-धाम से मनाया जाता है।