आज के भयावह संकट पर्यावरण प्रदूषण से मुक्ति पाने का एकमात्र उपाय है पौधा रोपण। पौधा रोपण हमारी प्राचीन संस्कृति है । अपने सुख औए स्वार्थ की पूर्ति के लिये मानव इस संस्कृति से दूर होता चला गया ।प्रकृति का सीमित विदोहन ही हमें सुखमय भविष्य की प्रत्याभूति दे सकता है। प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं का उपयोग हमें प्रकृति से अनावश्यक छेड़-छाड़ किये बिना सीमित मात्रा में ही करना होगा।आज आवश्यकता है हमारी प्राचीन सामाजिक संस्कृति को पुनः प्रतिस्थापित करने की जिसका वर्णन
[dropcap]तु[/dropcap]लसीदास जी ने रामचरित मानस में किया है –
फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन
रहहिं इक संग गज पंचानन
खग मृग सहज बयरु बिसराई
सबहिं परस्पर प्रीति बढ़ाई।
पर्यावरण संरक्षण से प्रकृति संरक्षण ही नहीं वरन मानव जाति के स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं का निदान भी होता है।
आज के सन्दर्भ में यदि हम देखें तो एहसास होता है कि जैसे जैसे मानव जाति वैश्विक स्तर पर ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में उन्नति करती गई उसके अनुपात में आध्यात्म से बहुत दूर होती चली गई।सृष्टि से भक्ति भाव का भी ह्रास होता गया और यह भक्ति भाव ही है जो व्यक्ति को ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र से बाहर निकाल कर समस्त मानव जाति के हितार्थ सोचने को प्रेरित करता है और इसकी के कारण मानव में पर्यावरण चेतना जागृत होती है।
तुलसीदास जी रामचरित मानस में वृक्षारोपण को एक स्वाभाविक कार्य बना दिया। वन प्रवास की अवधि में सीता और लक्ष्मण द्वारा वृक्षा रोपण का प्रमाण मिलता है —
तुलसी तरुवर विविध सुहाए, कहुं कहुं सिय कहुं लखन लगाए।
तुलसीदास जी ने स्पष्ट संकेत दिया है कि वृक्षारोपण हर युग का धर्म है। और यही हमे प्रदूषण से मुक्ति दिला सकता है।
प्रकृति का भी अपना एक अलग विज्ञान है। और जब मनुष्य प्रकृति के इस विज्ञान में हस्तक्षेप करके उसे असंतुलित करता है तब निश्चित ही विनाश की प्रक्रिया शुरू होती है। आज प्रकृति के प्रति अपने इस व्यवहार को गम्भीर रूप से सोचने का समय आ गया है। हमे प्रकृति का सम्मान करना ही होगा।
हम प्रकृति से केवल अपने ज़रूरत भर की चीजें लेकर, पर्यावरण के अनुकूल जीवन जी कर प्रकृति को बचा सकते हैं। वरना प्रकृति की अनदेखी करने पर हमें निकट भविष्य में गम्भीर परिणाम भुगतने को तैयार रहना होगा। इससे पहले की हवा जहरीली हो जाय, सांस रुक जाय हमे यह यह समझना होगा कि सांस की सार्थकता वातावरण की मुक्तता में है ।याद रहना चाहिए कि हम चाहे विकास की कितनी भी ऊंचाइयों को छूलें पर प्रकृति से हमारा नाता सदा अटूट रहेगा।