धोनी और धैर्य।

mahendra singh dhoni

शुरुआती दिनों में जब धोनी टीम में आये ही थे उस समय गांव में बिजली की बहुत दिक्कतें थी और टीवी भी यदा-कदा घरों में ही देखने को मिलता था। घरवालों के प्रतिबंध भी बहुत थे इसलिये इधर उधर कहीं दोस्तों के घर पर ही मैच का लुत्फ़ उठाने को मिलता था।
वैसे तो सर्वप्रथम मैंने धोनी को एक रणजी मैच में कीपिंग करते हुए देखा था, विकेट के पीछे एक लंबे बाल वाला नौजवान कुछ ही सेकेण्डों में विकेट गिरा दे रहा था। मुझे वो मैच तो याद नहीं किसके बीच चल रहा था और ना ही उस बंदे का नाम याद था कि वो धोनी था। कुछ समय बाद धोनी ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में खेलना शुरू कर दिया, लेकिन शुरुआती कुछ मैचों में उनको किसी ने नोटिस नहीं किया और ना ही मैंने किसी से सुना कि माही मार रहा है।

जब भी भारत पाकिस्तान के बीच मैच होता है तो वो और सब मैचों से हटकर होता है भारत और पाकिस्तान के मैच के लिए गांव में टीवी चलता ही था चाहे ट्रैक्टर की बैट्री से क्यों ना चलाना पड़े मुझे वो मैच अच्छे से याद है सब की निगाहें सचिन और सहवाग पर टिकीं थी, और सचिन 2 रन बनाकर रनआउट हो गए थे और हम लोग कयास लगा रहे थे कि अब द्रविड़ आयेगा और टुकटुक खेलेगा और पूरा गेम बिगाड़ देगा। तभी हमने देखा महेन्द्र सिंह धोनी को जिन्हें फर्स्ट डाउन भेजा गया था। धोनी से किसी को उम्मीद तो थी नहीं लेकिन उसने सबकी उम्मीदों को किनारे करते हुए 148 रन की जो पारी खेली तो वहां से सबके दिल में जगह बना ली थी।

वहीं से शरू हुई धोनी के धैर्य की परीक्षा। उसके बाद एक मैच जयपुर में होना था श्रीलंका के साथ उस मैच को लाइव देखने पापाजी गांव के कुछ लोगों के साथ गए थे। पापाजी और गांव के लोग भी टीवी पर दिख जाएं शायद इसी आशा से उस मैच को देखने के लिये भी विशेष प्रबंध किए गए थे।
उस मैच में तो धोनी ने हद ही कर दी। इतना भी भला कोई किसी को पीट सकता है उस पूरे मैच में छक्के और चौकों की बरसात जैसी कर दी थी धोनी ने और 183 रन की नाबाद पारी खेलकर भारत को जीत दिलवायी थी।
मैच के बाद महीने भर तक पापाजी और उनके साथ गए लोगों में उसी मैच की चर्चाएं होती रहीं। और फिर होने लगा हर मैच में धोनी का इंतजार। गांव के कुछ वुज़ुर्ग लोग जो धोनी को उनके नाम से कम लुटरियान वारो कह के ज्यादा संबोधित करते थे।
वैसे तो हर इंसान से सीखा जा सकता है लेकिन क्रिकटरों में मैंने सिर्फ गांगुली और धोनी से ही सीखा। गांगुली से अकड़ सीखी और धोनी से धैर्य।

धोनी ने अपने पहले अंतरराष्ट्रीय शतक के बाद भी बहुत शालीनता से बल्ले को घुमाया था जबकि ज्यादातर क्रिकेटर इस मौके पर जोश में फटे जाते हैं।
धोनी को मैंने अति आवेशित और अति निराश कभी नहीं देखा वो हर परिस्थिति में एक योगी की तरह रहते आये हैं।
वर्ल्ड कप 2011का फाइनल मैच मैंने नोएडा स्थित प्लानेटकास्ट में देखा था, उस समय मैं वहीं कार्यरत था और मेरी ड्यूटी नाईट शिफ्ट में लगी थी। पूरी दिल्ली में जगह जगह टेंपररी सिनेमा बना दिये गए थे।

विजयी छक्के के बाद जब वो गेंद को दर्शक दीर्घा में जाते हुए देखते हैं और धीरे से अपने बल्ले को घुमाते हुए आगे बढ़ते हैं तब भी वो over excited नहीं थे बल्कि बहुत ही शांत और शालीन तरीके से एक विकेट निकालकर श्रीलंकाई खिलाड़ियों को शांतवना देते हुए अपनी मंजिल की और बढ़ रहे थे।

धोनी में आत्मविश्वास कूट कूट कर भरा था, इसलिए वो किसी भी गेम को अंतिम ओवर तक ले जाते थे और वहाँ ले जाकर फिनिश करने में उनका कोई तोड़ नहीं था, इसीलिए आज भी वो दुनिया के सर्वश्रेष्ठ फिनिशर हैं।

धोनी हर जीत को टीम को समर्पित करते थे, शायद इसीलिए जब भी ट्रॉफी के साथ फ़ोटो की बात आती है तो आपने धोनी को पीछे खड़ा ही पाया होगा वो ट्रॉफी को लेकर लाइमलाइट में नहीं रहते थे।
धोनी जैसे खिलाड़ी और भी आ जायेंगे लेकिन ऐसे व्यक्तित्व सदियों में पैदा होते हैं।

चेन्नई सुपरकिंग्स सबसे ज्यादा आईपीएल सिर्फ अच्छे खिलाड़ियों की बजह से नहीं जीती है बल्कि धोनी जैसे कप्तान की वजह से जीतती आयी है।

एक कप्तान में क्या गुण होने चाहिए, उन्हें धोनी से ही सीखा जा सकता है। धोनी को भारतीय टेरिटोरियल आर्मी में लेफ्टिनेंट कर्नल का सम्मान भी दिया गया है और उन्होंने ये सम्मान ना केवल सहर्ष स्वीकार किया बल्कि इसका प्रशिक्षण जवानों के बीच में रहकर पूरा किया है।

चट्टान जैसे इरादे और पहाड़ जैसे आत्मविश्वास वाले महेन्द्र सिंह धोनी को कोई विदाई मैच खेलने की आवश्यकता नहीं है, ऐसे शांतचित्त और धैर्यवान लोग कभी विदा नहीं होते।

आपको भावी जीवन की बहुत बहुत शुभकामनाएं?