महान रुसी लेखक मैक्सिम गोर्की का जन्म 28 मार्च, 1868 को वोल्गा के तट पर बसे नीजी नवगिरोव के एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। बाद में उनकी मृत्यु के पश्चात् इसी नगर का नाम ‘गोर्की रखा गया। उनका पैतृक नाम ‘ मैक्सिमोविच‘ एवं कुलनाम पेशकोव‘ था। जब गोर्की चार वर्ष के थे, उन्हें हैजा हो गया और वे मरते – मरते बचे।
पिता की मृत्यु हुए अधिक दिन नहीं बीते थे कि उनके नाना ने एक दिन उनके शरीर की ऐसी ‘बखिया उधेड़ी ‘ कि वे अधमरे से हो गए और बहुत दिनों तक बिस्तर पर पड़े रहे।
आठ वर्ष की आयु में वे चेचक के शिकार हुए और बेहोशी की हालत में मकान की पहली मंजिल से नीचे गिर पड़े।
जिन दिनों वे जूतों की दुकान पर नौकरी करते थे, उनके दोनों हाथ खौलते हुए शोरबे के गिरने से बुरी तरह जल गए। जंगल में एक बार जब वे पेड़ पर चढ़कर गिलहरी के घोंसले को खखोल रहे थे तो एक शिकारी ने गलती से उन पर गोली चला दी।
एक साथ सत्ताइस छरें उनके बदन में घुस गए। उनकी एक मालकिन ने देवदार की छड़ी से उन्हें इतनी बुरी तरह मारा कि उनकी पीठ सूज कर तकिए की भाँति हो गई। वोल्गा के तट पर बसे कारनोविदोवो गाँव में जमींदार के लठैतों ने उन्हें जान से मारने के लिए कई बार प्रहार किए और फिर उस मकान में आग लगा दी जिसमें वे रहते थे। एक बार माल ढोने वाले जहाज पर काम करते समय वे उसके निचले तले में जा गिरे और गम्भीर रूप से घायल हो गए।
अपने रूसी भ्रमण के दौरान एक बार वे बर्फानी तूफ़ान में बुरी तरह फंस गए और मरते – मरते बचे। घातक बीमारियाँ, क्रूर व्यक्ति, दुर्भाग्य और दुर्घटनाएँ उनके जीवन के अभिन्न अंग बन गए थे।
गोर्की के जीवन के कटु अनुभवों को सुनकर लियो टॉल्स्टॉय ने उनसे कहा “तुम अजब आदमी हो । मुझे गलत न समझ बैठना लेकिन हो बड़े अजब आदमी। आश्चर्य है कि तुम अब भी इतने भले हो जबकि तुम्हें बुरा बनने का पूरा अवसर था । सचमुच तुम्हारा हृदय बड़ा विशाल है।”
जहाँ एक ओर गोर्की ने यन्त्रणाएँ सही थीं, वहीं दूसरी ओर उन्हें प्यार और प्रोत्साहन भी खूब मिला था। जहाँ उन्होंने मनुष्यों के पाशविक और घिनौने रूप को देखा, वहीं उन्हें उनकी उदार और उदात्त भावनाओं के भी दर्शन हुए थे। जो भी गोर्की के सम्पर्क में आता, उनकी प्रखर प्रतिभा तथा हदय की सच्चाई और ईमानदारी से प्रभावित हुए बिना न रहता। उन्हें अपने जीवन में कितने ही ऐसे व्यक्ति मिले जिन्होंने उन्हें सच्चे हदय से प्यार किया और जीवन में आगे बढ़ने और महत्त्वपूर्ण कार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया।
लगभग दस वर्ष की आयु तक अपना बचपन गोर्की ने नाना के घर पर ही व्यतीत किया। आठ वर्ष के बाद के कुछ समय तक वे सौतेले पिता के साथ भी रहे। नाना के घर का वातावरण अन्य निम्न मध्यवर्गीय बुर्जुआ परिवारों की तरह धन – लोलुपता, मानसिक संकीर्णता और वैमनस्य के विषैले धुएं से भरा हुआ था।
दोनों मामा आपस में इतना लड़ते कि लहूलुहान हो जाते। वे अपनी पत्नियों को भी निमर्मता से पीटते थे। छोटे मामा ने तो पीटते पीटते अपनी पत्नी की जान ही ले ली। गोर्की की माँ कुछ दिन रहकर उन्हें नानी के पास छोड़कर कही और चली गयी। संभव है – वहां के वैमनस्य भरे वातारवरण में गोर्की का जीवन संपत हो जाता अगर उन्हें अपनी नानी का अगाध स्नेह नहीं मिला होता।
नानी के स्नेह ने उनके अन्दर जीवन के प्रति अटूट आस्था जगाई और उन्हें उदार और अच्छा व्यक्ति बनने की प्रेरणा दी। नानी के विषय में गोर्की ने लिखा है : ‘”वह जीवन – भर के लिए मेरी मित्र, मेरे हृदय के बहुत ही निकट, सुबोध और सबसे अधिक प्रिय व्यक्ति हो गई। जीवन के प्रति उसके निःस्वार्थ मोह ने मेरे जीवन को नवीन प्रेरणा से ओत – प्रोत कर दिया और मुझे वह शक्ति प्रदान की जिससे मैं अपने कठिन भविष्य का सामना कर सका।”
नानी के सम्पर्क से ही गोर्की को साहित्यिक रुचि का विकास हुआ। किस्से कहानियों और कविताओं का उनके पास अक्षय भंडार था। परियों, परिन्दों, डाकुओं, पिशाचों और शैतानों की कहानियों के साथ वे माता मरियम, भक्त अलेक्सेई, सूरमा ईवान और ईसाई संतों की अनेक कविताएँ गोर्की को सुनाती थीं। उनकी कहानियों और कविताएँ शिक्षाप्रद होती और उनका मुख्य लक्ष्य मानव जीवन को उत्कृष्ट बनाने की प्रेरणा देना होता। उसकी सभी कहानियाँ यथार्थ जीवन से जुड़ी हुई होतीं थी।
गोर्की जब आठ वर्ष के हुए तब उनकी माँ ने दूसरा विवाह कर लिया। गोकी को वे अपने साथ ले गई और एक स्कूल में उनका नाम लिखवा दिया, पर कुछ ही दिनों के बाद जब वे गर्भवती हुई तो गोर्की को फिर से नानी के घर भेज दिया गया। नाना ने अपनी जायदाद का लड़कों में बँटवारा कर दिया था और उनकी आर्थिक दशा बिगड़ने लगी थी। वे और भी अधिक धनलोलुप हो गए थे और नानी को भी उन्होंने अलग कर दिया था।
नानी की आर्थिक सहायता करने के लिए गोर्की ने अपनी ही उम्र के लड़कों के साथ कबाड़ तथा ओका नदी के किनारे से लकड़ी के तख्ते इकट्ठे करके बेचने का काम शुरू कर दिया था । वे स्कूल पढ़ने भी जाते पर वहाँ एक समस्या उठ खड़ी हुई थी क्योंकि उन्हें दूसरे बच्चे आवारा और कबाड़ी कहकर चिढ़ाते थे। जैसे तैसे उन्होंने तीसरा दर्जा पास किया। गोर्की के प्रारम्भिक जीवन आवारागर्दी एवं जीविकोपार्जन के अनेक प्रयासों में बीता।
अपने इस जीवन का सजीव चित्रण उन्होंने अपने आत्मकथात्मक उपन्यास ‘मेरा बचपन’ में किया है । गोर्की की पहली नौकरी निज्नी के बड़े बाजार में ‘फैन्सी जूता’ की दुकान पर लगी। दुकान पर काम करने के साथ – साथ उन्हें मालिक के घर का सब काम भी संभालना पड़ता था। उनका ममेरा भाई जो यहाँ पहले से ही नौकर था, उन्हें तंग करने के लिए जूतों में पिनें और सुइयाँ छिपा देता था। जब गोर्की जूतों पर पालिश करते तो वे उनके हाथों में बुरी तरह गड़ जातीं। ऊबकर ने फिर नानी के पास लौट आए।
जीवकोपार्जन के लिए वे नानी के साथ ओका नदी के पास के घने जंगल से खुमियों और अखरोटों को इकट्ठे करके बेचने लगे। जंगल के सुखद वातावरण का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है : ‘जंगल मुझमें मानसिक शान्ति और खुशहाली को भावना जाग्रत करता और यह भावना मुझे अपने हृदय के दुःख और मन खट्टा करनेवाली अन्य सभी बातों को भूलने में मदद देती।’
उन्होंने वोल्गा के तट पर ‘दोबी’ जहाज पर बर्तन साफ करने की नौकरी कर ली। जहाज पर बावर्ची स्मूरी उनसे किताबें पढ़वाकर सुनता था। सूरी का एक लोहे का सन्दूक किताबों से भरा पड़ा था। इसके अतिरिक्त जहाज के कप्तान की पत्नी भी उसे किताबें देती रहती थी।
इसके बाद गोर्की फिर नानी के पास लौट आए और गानेवाली चिड़ियों को पकड़ने और बेचने का धंधा करने लगे। यो दिनों के बाद नाना ने फिर उन्हें नानी के नक्सनावीश सम्बन्धी के यहाँ भेज दिया। यहाँ दिन – भर काम में लगे रहते और रात में चोरी छिपे किताबे पढ़ते रहते। बूढी मालकिन जब उन्हें किताबे पढ़ते देख लेती तो बुरी तरह बिगडती।
गोकी ने लिखा है : ‘पुस्तकें पढ़ने की अपनी इस अचानक धुन के कारण क्या – कुछ नहीं मुझे सहना पड़ा। अपमान के कड़वे घुट मैंने पिए, हृदय में लगी चोटों से मैं कराह उठा।’ गोकी ने अपने साहित्यिक जीवन में उपन्यास, नाटक, कहानियों एवं निबन्धों की झड़ी लगा दी। अपने देश और वहाँ के निवासियों का जितना व्यापक और गहरा अध्ययन गोर्की ने किया, उतना शायद ही विश्व के किसी अन्य लेखक ने किया हो।
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