आज लगभग बयालीस वर्षों के बाद अपनी जन्मभूमि अल्मोड़ा की पावन भूमि की मिट्टी को अपने माथे पर लगाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मन अत्यधिक प्रसन्न था मातृभूमि की पावन हवा मन को स्फूर्त कर रही थी। मेरी कल्पना में तो पुरानी यादों की तस्वीरें ही छा रही थीं।वही हरा-भरा अल्मोड़ा,हरे-भरे वनों से आच्छादित मेरा पुराना मोहल्ला,पनियाऊडार व पोखरखाली। मैं होटल शिखर में ठहरा हुआ था। थोड़ी देर कमरे में विश्राम करने के पश्चात, मैं करीब तीन बजे शाम को अपनी पत्नी के साथ निकल गया अपनी पुरानी यादों को एक बार फिर से तलाशने को; परन्तु मेरी यादों में छाया हुआ वह अल्मोड़ा जिसे मैं आज से ठीक बयालीस साल पहलें छोड़ आया, मुझे कहीं भी नजर नही आया। ना वो लोग,ना वो जगह, ना वो मुहल्ला,ना वो खुलापन, ना वो हरे-भरे वन,ना वो पाटाल की रोड,ना वो लाला बाजार, ना वो रैमजे,सब कुछ बदला हुआ था।
खैर मैं, सपत्नीक पहुंच गया पोखरखाली, वृक्षों का वन अब कंक्रीट के वन में परिवर्तित हो चुका था। ना वो काफल का पेड़,ना वो खड़क का पेड़, ना वो चीड़ व बांज के पेड़,ना वो खुमानी का पेड़, ना वो हिसालू व किल्मोड़ी के झाड़ियाँ, सब कुछ विलुप्त हो चुका था।
हाँ एडम्स स्कूल के बगल से एक रास्ता जाता था,जहाँ से मैं अपने स्कूल जाता था। वो भी बन्द हो चुका था ,उस जगह में अब कुड़ा बिखरा हुआ था। हाँ रास्ते में मुझे एक चर्च दिखाई दिया, जो अपनी खुबसूरती को बनाए हुए था।
पोखरखाली से निकलते हुए मैं पहुँच गया पनियाऊडार ,वहाँ पर भी हरे-भरे वन मुझे नही दिखाई दिया मेरी थोड़ी समझ में ही नही आ रहा था कि क्या करूँ पनियांऊडार की दूरी को देखकर, पनियांऊडार से आगे निकलते हुए मैं रानीधारा गया जहाँ कभी एक नौला हुआ करता था, हालाँकि वो नौला आज भी है, पर विवश है क्योंकि उसे बाँध जो दिया गया है। मुझे आज भी याद है बचपन में जब अपनी ईजा के साथ वहाँ जाया करता था तो उस नौले में काफी मोटा पानी आया करता था वो स्वतंत्र भी था और स्वच्छंद भी। आज ना ही प्रकृति और ना ही प्रकृति के संसाधन स्वतंत्र है।उन्हें तो बंदी बना लिया गया है मनुष्यों के द्वारा और किया जा रहा है बलात्कार, प्रकृति का हर रोज,उसका चीर-हरण करके। यही हाल कमोबेश पूरे अल्मोड़ा का है।
उसके बाद मेरा मन विचलित हो गया और मैंने आगे जाने का का कार्यक्रम स्थगित कियाऔर लौट आया वापस होटल शिखर ,अपने कमरे में।
लौटते समय मैं वापस पोखर खाली की बजाय,पनियाऊडार वाली पाटाल रोड से आया तो मेरा मन और भी ज्यादा खिन्न हो गया क्योंकि पाटाल रोड अब सीमेंट रोड बन चुकी थी ,एक सुरंग के रूप में, ना खड़क का पेड़, ना खुमानी का पेड़,ना वो कही फूलों के पेड़, नाही भांग की झाड़ियाँ, ना हिसालू,ना किल्मोड़ी ।बस थे तो मकान ही मकान। वो भी सीमेंट व कंकरीट के।
उस रात मैं सो नही पाया और सारी रात अपनी मातृभूमि की दुर्दशा देखकर विचलित हो गया और सोचने लगा कि हम इतने स्वार्थी कैसे हो सकते हैं! कैसें हम निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपनी माँ की दुर्दशा कर सकते हैं। फिर मैं विचार करने लगा कि मनुष्य भी कितना मूर्ख,स्वार्थी, पाषाण और निर्लज, अपनी मूर्खतापूर्ण व्यवहार को,अपनी समझदारी समझ उसका गुणगान जगतभर में करते रहता है,और फिर जब कभी प्रकृति अपना रौद्र रूप दिखाती है तो फिर त्राहिमाम करता है।
खैर एक सप्ताह तक अल्मोड़ा रहने के पश्चात जब मैं अल्मोड़ा से लौटने लगा तो मुझे ऐसा आभास हो रहा था जैसे मेरी मातृभूमि मेरी ओर आशा भरी निगाहों से देख रही हो,परन्तु मेरी विवशता यह कि मैं चाहते हुए भी कुछ नही कर पा रहा हूँ। क्योंकि मुझे पता है कि हर छोटे कद के छोटा सा आदमी कर भी क्या सकता है? सिवाय अपने आप को विवश स्थिति में रखने के। आम आदमी तो भीष्म होता है जो विवशता का आवरणओड़ दुःखी होता है और देखते रहता है द्रौपदी का चीरहरण होते।
मैं लौट आया वापस अल्मोड़ा से दुःखी और उदास। मुझे पता है कि लोग स्वार्थी हैं और अपनी स्वार्थ पूर्ति हेतु व आर्थिक विकास हेतू वो प्रकृति का चीरहरण करते आए हैं और करते रहेंगे, परन्तु मैं सोचता हूँ कि क्या उत्तर देंगे ये लोग अपने-अपने अनुजों को जब किसी चलचित्र या चित्र में देखेंगे पुराने अल्मोड़ा को और पूछेगें प्रश्न उनसे,” कहाँ गया वो अल्मोड़ा”?
समाप्त
हिमांशु पाठक
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