आज मुझे अपना पहाड़ रह-रहकर याद आता है। ना जाने क्यों मुझें ऐसा लगता है, कि जैसे मेरा पहाड़, मुझे बुला रहा है। यदि मैं पहाड़ जाऊँ,तो वो मेरे स्वागत में अपनी पलकें बिछा देगा।
पहाड़ से मेरा लगाव बचपन से ही रहा है और अपने पहाड़ी होने पर मैं स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता हूँ।
मेरा बचपन पहाड़ों पर ही गुजरा है। हरे-भरे खेत-खलिहान, हरे-भरे वृक्ष, सीढ़ीदार चढ़तें-उतरते खेतों में उछल-कुद करना,फलदार वृक्षों से खुमानी,काफल प्लम आदि फल तोड़ कर खाना, सर्दियों में धूप में बैठकर नींबू सानकर खाना,रेडियो में क्रिकेट की केमेन्ट्री सुनना आदि ना जाने कितनी स्मृतियाँ कौंध जातीं हैं, मनो-मस्तिष्क में।
पहाड़ी लोगों का भोलापन और सादगी को देखकर, मेरा मन प्रसन्नचित्त हो जाता है। ना छल,ना छलावा,ना वाह्य आडम्बर, ना ही शब्दों में और ना ही भावों में कृत्रिमता । अपने पहाड़ी लोगों की सादगी को देखकर, मुझे अपने पहाड़ी होने पर गर्व होता है।
मेरा मन करता है लौट जाऊँ, अपने पहाड़ को, सब कुछ इस परदेश में छोड़-छाड़कर। ना यहाँ अपनें है और ना यहाँ सपनें हैं, है तो सिर्फ छल-कपट,राग-द्वेष,राजनीति, कूटनीति और कृत्रिमता बस।
हर चेहरा इस शहर में नकली नजर आता है, हर हँसी में छलावा नजर आता है। आदमी, आदमी नही, बल्कि पुतला नजर आता है।
पत्थर का ये शहर,पत्थर सा प्रतीत होता है। सिवाय गंदगी,दुर्गंध के यहाँ कुछ भी नही है। दूर से देखने पर तो ये शहर बहुत ही लुभावने लगतें हैं; परन्तु इस के भीतर प्रवेश करते ही सारा तिलिस्म टूटता सा नजर आता है; इसी इन्द्रधनुषीय संसार भ्रम में मेरे साथ-साथ कई पहाड़ के युवा भी आ जातें हैं। वो आ तो जातें हैं पर जा नही पातें हैं लौटकर पहाड़। पहाड़ उन्हें बुलातें हैं पर लज्जावश वो लौटकर वापस पहाड़ जाना नहीं चाहतें।
पहाड़ी मैस! क्यों छोड़ते हो अपना पहाड़। क्यों आतें हैं शहर और शहरियों के छलावे में। अपार संभावनाएं हैं अपने पहाड़ में, यार बस जरा बारीक नजर से देखों तो। क्यों इस चरित्रार्थ को सही सिद्ध कर रहें हो,” घर की मुर्गी दिल बराबर”; अर्थात क्यों करतें हो अपमान अपनें पहाड़ का ये कहकर कि पहाड़ में कुछ नही रखा है। सोचों क्या स्वीजरलैंड पहाड़ नही है? क्या हिमाचल प्रदेश पहाड़ नही है? क्या कश्मीर पहाड़ नही है? क्या पूर्वोत्तर के प्रदेश असम, सिक्किम आदि पहाड़ नहीं है? वो तो गर्व का अनुभव करतें हैं ,अपने पहाड़ पर,अपने पहाड़ी होने पर फिर आप लोग क्योँ नही गौरवान्वित होते हैं, स्वयं को उत्तराखंडी कहने पर?
हमारे पास तो अनगिनत धरोहरें है,जिस पर हम गर्व की अनुभूति कर सकतें हैं। स्वयं ईश ने इसका निर्माण अपने फुरसत के क्षणों में, अपने हाथों से किया है। और स्वयं इस स्थान में रहा भी है; इसका नाम भी तो देखिये ना! देवभूमि, तपोभूमि जैसे इस स्थान की शुद्धता को ,व पवित्रता को सिद्ध करतें हैं।
अपार संभावनाएं हैं अपने पहाड़ में, जैसे पर्यटन उद्योग ,जैसे जड़ी-बूटियाँ का उद्योग, जैसे दिल को रोमांचित करने वाले ट्रेकिंग,पैराग्लाइडिगं आदि,फल-फूल से संबंधित उद्योग आदि।
आप आएँ तो सही, वापस लौटकर, अपने घर, अपने पहाड़। वो पहाड़ आज पलकें बिछाए खड़ें हैं, आपके स्वागत के लिए। और फिर अपने घर-वापसी में कैसी हिचक।
आओ चलो लौट चलें,अपने घर,अपना पहाड़। क्योंकि ये पहाड़ बुलाते हैं हमें। आप भी चलें! मैं तो खैर जा ही रहा हूँ ,लौटकर वापस अपने पहाड़;
क्योंकि मुझे——!
बहुत याद आता है अपना पहाड़।