माता पूर्णागिरी का इतिहास

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पूर्णागिरि मंदिर उत्तराखण्ड राज्य के चम्पावत जिले के टनकपुर नगर में काली नदी, जिसे शारदा नदी भी कहते हैं, के दाएं किनारे पर स्थित है। चीन, नेपाल और तिब्बत की सीमाओं से घिरे चम्पावत जिले के प्रवेशद्वार टनकपुर से 19 किलोमीटर दूर स्थित यह शक्तिपीठ माँ भगवती की 108 सिद्धपीठों में से एक है। यह शक्तिपीठ टनकपुर के पर्वतीय अंचल में स्थित अन्नपूर्णा चोटी के शिखर में लगभग 3000 फीट की उंचाई पर स्थापित है।

माँ पूर्णागिरि मंदिर का इतिहास
शिव पुराण में रुद्र-सहिंता के अनुसार, राजा दक्ष प्रजापति की कन्या सती का विवाह भगवान शिव के साथ हुआ था। कहा जाता है कि ब्रम्ह पुत्र दक्ष प्रजापति  ने एक बार एक विशाल यज्ञ किया था। जिसके लिए उन्होंने सभी देवी- देवताओं और ऋषिओं को निमंत्रित किया था, परन्तु भगवान शिव को किसी पूर्वाग्रह की वजह से अपमानित करने की दृष्टि से निमंत्रण नहीं दिया। जिसे पार्वती (सती) ने भगवान शिव का घोर अपमान समझा और यज्ञ की वेदी में अपनी देह की आहुति कर दी। भगवान शिव यह जानकर बहुत ही क्रोधित हो गए और अपनी पत्नी के जले हुए  देह को लेकर आसमान में विचरण करते हुवे तांडव करने लगे। भगवान शिव का तांडव देखकर सारे देवी देवता परेशान हो गए और भगवान विष्णु से प्रार्थना करने लगे। भगवान विष्णु ने चिंतित होकर अपने चक्र से भगवान शिव द्वारा हाथ में लिए गए माता सती की देह के अलग- अलग हिस्से कर दिए। अलग -अलग हिस्से अलग- अलग जगहों में गिरे और जहां-जहां भी गिरे वहां- वहां शक्तिपीठों की स्थापना हुई । इन्ही हिस्सों में से एक हिस्सा जो कि माता सती की नाभि का था, अन्नपूर्णा पर्वत शिखर में जा कर गिर गया। कालान्तर में यह स्थान पूर्णागिरि कहलाया। माता पूर्णागिरि मंदिर में देवी के नाभि की पूजा की जाती है।

सोने का बन गया पर्वत
पुराणों के अनुसार, महाभारत काल में प्राचीन ब्रह्माकुंड के पास पांडवों ने मां भगवती की कठोर पूजा-अर्चना तथा बह्मादेव मंडी में ब्रह्मा द्वारा आयोजित विशाल यज्ञ में एकत्रित अपार सोने से यहां सोने का पर्वत बन गया था।

मंदिर की स्थापना
गुजरात निवासी श्री चंद्र तिवारी ने मुगलों के अत्याचार से दुखी होकर चम्पावत में चंद वंशीय राजा ज्ञान चंद के दरबार में शरण ली थी। उसी समय एक मां पूर्णागिरि ने सपने में पूजा स्थल बनाने का आदेश दिया। मां के आदेश का पालन कर तिवारी ने 1632 में मां पूर्णागिरि धाम के मंदिर की स्थापना कर पूजा पाठ शुरू कर किया, जो आज भी चल रहा है।

टनकपुर से पूर्णागिरी की दूरी
टनकपुर उत्तराखंड के चम्पावत जिले का हिस्सा है।  बेहद खूबसूरत वनाचाद्दित पहाड़ियों की गोद में बसा छोटा सा शहर टनकपुर माँ पूर्णागिरि के आशीर्वाद की तरह प्रतीत होता है। टनकपुर पहुंचने के बाद पूर्णागिरि पहुंचने के लिए  टनकपुर से  आगे 17  किलोमीटर की दूरी अलग- अलग तरह के निजी वाहनों या फिर उत्तराखंड परिवहन की बस से तय की जा सकती है। जबकि अंतिम 3 किमी की यात्रा पैदल करनी पड़ती है, जिसमे खड़ी पहाड़ी के ऊपर चढ़ना पड़ता है और इस तरह हम पहुंचते है माँ पूर्णा के दरबार पूर्णागिरि मंदिर।

माँ पूर्णागिरि मेला

माँ पूर्णागिरि मंदिर में लगभग वर्ष के 12  महीने भीड़ रहती है। मगर चैत्र की नवरात्रियों में यहाँ एक बड़े मेले का आयोजन होता है जो जून आखिरी तक चलता रहता है। मेले की प्रशासनिक  जिम्मेदारी चम्पावत जिला पंचायत की होती है। प्रशासन श्रद्धालुुओं की हर तरह से सुविधा हेतु मौजूद रहता है।लगभग तीन माह तक चलने वाले इस मेले में हर साल लगभग 25 से 30 लाख श्रद्धालु  देश विदेश से  दर्शन के लिए माँ पूर्णागिरि के दरबार में पहुंचते है। टनकपुर शहर में मेले के समय बहुत भीड़ भाड़ रहती है।

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पूर्णागिरि मंदिर में स्थित ‘झूठे का मंदिर’ की कहानी

कहा जाता है कि एक बार संतानहीन सेठ को देवी ने सपने में कहा – “मेरे दर्शन के बाद ही तुम्हे पुत्र होगा”। सेठ ने माँ पूर्णागिरि के दर्शन किये और कहा कि यदि उसका पुत्र होगा तो वह देवी के लिए सोने का मंदिर बनाएगा। मनोकामना पूरी होने पर सेठ ने लालच कर सोने के मंदिर की जगह तांबे के मंदिर में सोने की पॉलिश लगाकर देवी को अर्पित करने के लिए मंदिर की ओर जाने लगा तो टुन्यास नामक स्थान पर पहुंचकर वह तांबे के मंदिर को आगे नहीं ले जा सका तब सेठ को उस मंदिर को उसी स्थान में रखना पड़ा। इसलिये उसे झूठे का मंदिर नाम से जाना जाने लगा।

पूर्णागिरि, पुण्यगिरी और पुन्यागिरि के नाम से भी जाना जाता है। यहां से काली नदी निकल कर मैदान की ओर जाती है जहां इसे शारदा नदी के नाम से जाना जाता है।

इस समय यहां पर कई दुकानें और धर्मशालायें बन गए हैं। इन दुकानों के दुकानदार यात्रियों को मनमानी कीमत पर सामान बेचते हैं और यात्रियों के मना करने पर उनसे लड़ने तक को तैयार हो जाते हैं। शासन-प्रशासन को इस ओर ध्यान देना चाहिये और इस तरह की मनमानियों और गुंडागर्दी पर रोक लगानी चाहिये ताकि इस स्थान की पवित्रता बनी रहे।