बस में वो अकेली लड़की (कविता)

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बस की किनारे वाली सीट की खिड़की से, बाहर झांकती वो लड़की।

पीछे छुटते पहाड़ों, नदी और नदी के पार, उंचाई पर पर बसे गाँव को देख…

… टूटी यादो को फिर से जोड़, कोई तस्वीर बनाती, सफ़र तय करती वो लड़की।

बस के अगले मोड़ में पहुँच, पीछे छुटते पहाड़ियों को यादों से झटक, फिर से कौई नयी तस्वीर बनाती वो लड़की।

कभी कहानी में कोई रोचक मोड़ बन आता तो, खुद में ही मुस्कुराती सी वो लड़की।

फिर बस स्टॉप आने पर, बस से उतर भीड़ में खो जाती सी वो लड़की।

जिंदगी से दूर, अटक अटकती साँसों सी, गला दबाती सी भीड़…

सब के अन्दर कुछ टूटता, चूर होता सा, और ओस की बूंद सी वो लड़की।

जिंदगी के सफ़र को कह दूँ वो लड़की, या फिर लड़की को जिंदगी कह दूँ!