पहाड़ के लोग भले दुनिया के किसी भी हिस्से में हों उनकी स्मृतियों में बसी पहाड़ और उससे जुड़ी यादें उसे पहाड़ और इसकी सांस्कृतिक विरासत से हमेशा जोड़े रखती हैं। समय-समय पर पहाड़ी रीति-रिवाज, त्योहारों के मार्फत अपनी भावनाओं को न केवल साझा करते हैं बल्कि समय मिलते ही पहाड़ और यहाँ के मौसम का लुफ्त उठाने अपनी टिकट भी बुक करा लेते हैं। एक पहाड़वासी के पहाड़ आने का यूँ तो कोई निश्चित समय नहीं है किन्तु होली-दिवाली और शहरों की तपती गर्मी में बच्चों के साथ मई-जून का महीना इनमें ख़ास है। समय के साथ होली के त्योहारों में भले अब प्रवासियों ने इस त्योहार में आना कम कर दिया हो लेकिन यह बहुत पुरानी बात भी नहीं जब होली और दिवाली के त्यार में आने का वादा कर युवा पहाड़ से परदेेेश को निकलते और त्योहारों में लौट आते।
होली का त्योहार जहाँ देश के ज्यादातर हिस्सों में यह मात्र एक दिन का त्योहार है वहीं कुमाऊ अँचल में इसकी शुरुआत बैठकी होली के साथ शुरू होकर छलेडी खेलने और और उसके बाद मन्दिर प्रांगण में भगवान श्री कृष्ण को विदाई देने के साथ पूरी होती है।
कल पूरे देश के साथ-साथ कुमाऊ में भी छलेडी के रूप में होली मनाई गई. एकादसी को रंग पड़ने के बाद दोपहर के बाद गाँव के सभी घरों में होली गायन और रात को किसी एक परिवार के घर पर बैठकी होली गायन की परम्परा कुमाऊनी होली को खास बनाती है।
सामूहिक गायन में एक लय, सुर और ताल के साथ होल्यारों की चहलकदमी इसमें रंग भरते हुए छलेडी के दिन तक चलती है. छलेडी के दिन सुबह से हल्की-फुल्की मस्ती के रंग में पुरुषों की टोली होली के गीत नृत्य के साथ फिर से पूरे गाँव-घरों के चक्कर लगाती है। घरों के भीतर बैठी महिलाएं अपने देवरों के ऊपर पानी और रंग की बौछार करती हैं। अबीर-गुलाल के टीके के साथ सौंप-सुपारी और गुड़ बाँटने की प्रथा भी इसका एक हिस्सा है। कहीं चाय, पकौड़े, आलू के गुटके मिल जाए तो क्या ही बात है। प्रत्येक घर पर जाकर होली गाने के बाद गाँव के किसी एक सदस्य द्वारा ऊँची आवाज में परिवार के मुखिया का नाम लेते हुए होली की शुभकामनाएं व परिवार के सुख-समृद्धि की कामना की जाती है। इस दौरान परिवार द्वारा अगले दिन बनने वाले प्रसाद के लिए एक गुड़ की भेली और भैंट के रूप में स्वेच्छा के अनुसार नकद रुपए पैसे देने का चलन है।
होली का समापन मन्दिर में जाकर गाँव व क्षेत्रवासियों की सुख -समृद्धि की कामना के साथ भगवान श्री कृष्ण को “आज कन्हैया मथुरा को जा” विदाई होली के साथ पूरी होती है। घरों से प्राप्त गुड़ का एक छोटा हिस्सा प्रसाद के रूप में सभी को बाँटा जाता है। यूँ तो आधिकारिक तौर पर होली गायन, रंग लगाने का कार्यक्रम मन्दिर परिसर में विदाई होली के साथ समाप्त हो जाता है किन्तु इसकी असल समाप्ति होली के दूसरे रोज मन्दिर में गाँव से आए आटे जिसे पखोव कहा जाता है को बनाकर प्रसाद के रूप में बाँटने के साथ पूरी होती है।
कोरोना के प्रभाव के बावजूद पहाड़ में इस बार की होली पूरे हर्षोल्लास के अगले बरस फिर आने की कामना के साथ सम्पूर्ण हुई। प्राप्त फ़ोटो और वीडियो मेरे गाँव गौली, दन्या, अल्मोड़ा से लिये गए हैं.