परम्परागत तौर पर पहाड़ के लोगों की वैज्ञानिक सोच और दृष्टिकोण को देखना हो तो घराट जिसे घट भी कहा जाता है एक नायाब नमूना है। आधुनिकता की दौड़ में पहाड़ और इसकी जीवनशैली से जुड़ी कुछ चीजें जो लगभग समाप्ति की और हैं उनमें घराट प्रमुख है। यूँ तो आज घर-घर में अनाज पीसने के लिए छोटी-छोटी बिजली से चलने वाली मशीनें लग चुकी हैं किन्तु पर्वतीय क्षेत्रों में घराट वैज्ञानिक पद्धति से निर्मित स्थानीय तकनीक है, जिसके द्वारा सैकडों वर्षों तक लोगों द्वारा अनाज पिसा जाता रहा है।
नदियों के किनारे बने घराट में गाड़-गधेरों से नहरों (गूल) द्वारा पानी को लकड़ी से बने पनाले द्वारा पानी को निचले तल पर बने पंखेदार चक्र में छोड़ा जाता है. ऊपर के तल में दो पाटे (गोल पत्थर) बने हुए होते हैं जिसमें निचला पाटा स्थिर रहता है और ऊपर का पाटे में चक्र के सीधे खड़े हिस्से (मूसल)को फसाया जाता है। पानी के वेग से जैसे ही पंखेदार चक्र घूमता है उसके साथ-साथ ऊपरी पाटा भी घूमता है। पाटे के ऊपर में लकड़ी और स्टील से अनाज डालने हेतु एक आकार दिया जाता है जिसे कुमाऊनी में डयोक कहा जाता है। डयोक को लकड़ी के फ्रेम की मदद से कुछ इस तरह रखा जाता है जिससे अनाज के दाने सीधे पाटे में बने छेद पर ही गिरें. अनाज स्वतः ही एक निश्चित गति में गिरते रहे इसके लिए डयोक को एक लकड़ी अथवा कील द्वारा पाटे के साथ कुछ इस तरह व्यवस्थित कर दिया जाता है जिससे पाटे के घूमने के साथ लकड़ी पर लगने वाले बल के साथ अनाज भी स्वतः पाटे में जाने लगता और पाटे के घूमने के साथ-साथ अनाज भी पिसता रहता जिसे बाद में इकट्ठा कर लिया जाता।
कभी पहाड़ के लोगों की मुख्य ज़रूरत को पूरा करती पानी से चलने वाली चक्की घराट का चलन अब लगभग -लगभग बन्द हो चुका है. आज वर्तमान में कुछ दूर-दराज के क्षेत्रों में पर ही यह व्यवस्थित हैं और उपयोग में लाए जा रहे हैं। दन्या (अल्मोड़ा) के पास के एक गाँव धनकाना में आस-पास ही बने दो घराट में एक घराट तो बन्द हो गया है लेकिन एक अभी भी गांव के लोगों द्वारा उपयोग में लाया जा रहा है। घराट का बन्द हो जाना अब कोई आश्चर्य की बात नहीं क्योंकि यह एक मात्र घराट नहीं जो बन्द हो गया हो, इस तरह के सैकड़ों घराट पिछले दो-तीन दशकों में बंद हो चुके है। घराट का बन्द होना एक तकनीक का बन्द होना मात्र नहीं है इसके साथ-साथ जो और चीजें बन्द हुई हैं या कमजोर हुई है वह पहाड़ और उसकी जीवनशैली से जुड़ी हैं।
यह बहुत पुरानी बात नहीं जब गाँव के लोग गेहूँ या मडुए का आटा पीसने के रूप में इस प्राचीन तरीके का इस्तेमाल करते और बदले में पीसे हुए आटे का कुछ हिस्सा घराट मालिक के लिए छोड़ देते। आज की भाषा में कहें तो यह पूर्णतया कैशलैस पद्धति थी जिसमें गाँव के परिवारों द्वारा पीसे अनाज के एक बहुत छोटे हिस्से से एक परिवार जिसकी जमीन पर यह घराट होता का भरण-पोषण होता। घराट का मालिक घराट के चलने के दौरान शायद ही वहाँ रहता हो किन्तु उसके हिस्से का पिसा अनाज बगैर किसी निगरानी के भी उस तक पहुँच जाता। लोगों की ईमानदारी, घराट और घराट मालिक के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते रिवाज भी एक घराट के बन्द होने से धीरे-धीरे कमजोर हुए हैं।
गाँव के नजदीक ही यदि घराट होता तो कभी भी जाकर अनाज को पीस लाते लेक़िन यदि यह दूर होता तो ज्यादातर महिलाएं एक झुण्ड के रूप में अपने खान-पान की व्यवस्था कर अंधेरा होने से पूर्व जाती और सुबह उजाला होंते ही पीसे हुए आटे के साथ घर लौट आती। रात भर घराट और पानी के धारे की आवाज के बीच उनकी अपनी गपसप और सुख-दुःख, हँसी-ठिठोली की बातें होती. सामूहिकता और आपस में जोड़ने के कुछ तरीक़े भी घराट के बन्द होने से धीरे-धीरे कमजोर हुए हैं।
घराट है तो निश्चित है कि पानी भी होगा. घराट को चलाने के लिए गधेरों में पानी कम न हो इसके लिए वो सभी देसज तरीके अपनाए जाते रहे होंगे जिससे वर्ष भर घराट में पानी बना रहे। जिसमें गधेरों- नहर की साफ -सफाई और ऊपर जंगल की तरफ पेड़-पौधे लगाना, कौन से पेड़-पौधे लगाना आदि शामिल है की जानकारी भी एक तकनीक के साथ लगभग समाप्त हो गयी। साथ ही समाप्त हो गई पढ़े-लिखे होने के बावजूद समाधान को खोजती, सहज-सरल, प्रकृति से जोड़ती वैज्ञानिक सोच. यह विश्वास कर पाना सहज मुश्किल होता है लेकिन पहाड़ में जहाँ आज भी दूर-दराज के इलाकों में शिक्षा की उचित व्यवस्था नहीं है वहाँ के लोगों द्वारा सैकड़ों वर्ष पूर्व जरूरत के अनुसार ना केवल अपनी देशज वैज्ञानिक तकनीक विकसित की बल्कि प्रकृति के साथ जुड़ाव भी बनाए रखा।