देवभूमि उत्तराखंड में कई ऐतिहासिक पर्व मनाए जाते हैं। उनमें से एक लोकप्रिय पर्व है सातूँ आठूँ( गौरा–महेश पूजा)। कुमाऊं में मनाया जाने वाला पर्व सातूँ आठूँ मां गौरा (पार्वती) और भगवान महेश्वर (शिव) को समर्पित है। सातूँ आठूँ कुमाऊं में बड़े हर्षोल्लास से मनाया जाता है। यह पर्व भाद्रमाह(भादौ) के सप्तमी अष्ठमी को मनाया जाता है।
कहा जाता है, कि सप्तमी को माँ गौरा अपने मायके आती है, तथा अष्ठमी को भगवान महेश उन्हें लेने आते हैं। माँ गौरा का मायका हिमालय माना जाता है। बेटी के मायके आने पर उल्लास और उत्सव का माहौल होता है, उनका स्वागत और पूजन होता है।
माँ गौरा को पुत्री के रूप में मायके में भरपूर स्वागत और स्नेह दिया जाता है, और भगवान शिव को ससुराल में दामाद के रूप में सम्मान दिया जाता है, और उन्हें पूजा जाता है।
सप्तमी–अष्ठमी(सातूँ आठूँ) को सभी लोग माँ पार्वती और भगवान शिव की आराधना करते हैं, सप्तमी (सातूँ) को महिलाएं खेतों में हुई फसल के पौधों से माँ गौरा की आकृति बनाती हैं, उन्हें खूब सजाया जाता है। अष्ठमी (आठूँ) के दिन भगवान शिव की कुछ विशेष पौधों से आकृति बनाई जाती है, और उन्हें माँ गौरा के साथ मंदिर में प्रतिष्ठित किया जाता है।
सप्तमी की रात को माँ गौरा की विधि अनुसार पूजा होती है। भजन–कीर्तन व झोड़ा–चाचरी गाकर, पर्व को उल्लास के साथ मनाया जाता है।
अष्ठमी की सुबह भगवान महेश तथा माँ गौरा की पूजा होती है और उन्हें बिरूड़ चढाएं जाते हैं। पूजा किए गए बिरूड़ो को सबको प्रसाद के रूप में दिया जाता है। उसके बाद महिलाएं पारंपरिक गीत गाते हुए, माँ गौरा को ससुराल को विदा करती हैं।
बिरुड़ पंचमी
परंपरा के अनुसार सातूँ आठूँ पर्व से पहले भाद्रमास की पंचमी को, जिसे बिरुड़ पंचमी कहा जाता है। बिरुड़ पंचमी के दिन गांव घरों में लोग साफ तांबे के बर्तन पर, गाय के गोबर से पांच आकृतियां बनाते हैं, और उन आकृतियों पर दुब घास लगाते हैं। इन आकृतियों को टीका–चंदन करने के बाद, बर्तन में पांच या सात प्रकार के अनाज भिगोये जाते हैं, इन्हें बिरुड़ कहा जाता है। उस बर्तन को मंदिर के समीप रख दिया जाता है।
पंचमी के दिन भिगोये अनाज के बर्तन को, सातूँ के दिन पानी के धारे ले जाकर धोया जाता है, बिरुड़़ो को पत्तों में रख मंदिर में चढ़ाया जाता है। आठूँ के दिन गौरा–महेश की पूजा कर उन्हें बिरुड़े चढायें जाते हैं। पूजा किए गये बिरुड़ो को, सबको प्रसाद के रूप में दिया जाता है। बड़े-बुजुर्ग छोटों को बिरुड़े चढा़ते हैं और साथ में आशीर्वाद भी देते हैं। बचे हुए बिरुड़ो को फिर पकाकर प्रसाद के रूप में खाया जाता है।
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