उत्तराखंड का इतिहास

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Uttarakhand Himalayas

पौराणिक इतिहास:

वैसे तो उत्तराखंड का इतिहास अभी का नहीं अपितु कई समय पहले का है, जिसका जिक्र कई हिंदू पुराणों में मिलता है। पौराणिक ग्रन्थों में उत्तरी हिमालय में सिद्ध गन्धर्व, यक्ष, किन्नर,जातियों का राजा कुबेर बताया गया हैं कुबेर की राजधानी अल्कापूरी  (बद्रीनाथ से ऊपर) बताई जाती हैं। पुराणों के अनुसार राजा कुबेर के आश्रम में ऋषि मुनि तप व् साधना करते थे।

पुराणों में  केदारखंड (वर्तमान गढ़वाल) और मानसखंड (वर्तमान कुमाऊं) का जिक्र किया गया हैं। पुराणों में, उत्तराखंड मध्य भारतीय हिमालय के लिए प्राचीन शब्द था। इसकी चोटियों और घाटियों को  स्वर्ग लोक के रूप में जाना जाता था।
badrinathइसके इतिहास को सबसे अच्छे तरीके से गढ़वाल और कुमाउं के इतिहास के माध्यम से समझा जा सकता है। इसकी उत्पत्ति और विकास का लंबा इतिहास रहा है जिसमें कई महान राजाओं और सम्राज्यों  जैसे कुशान, पौरव, कुषाण, कुनिदास, गुप्त, कत्यूरी, पलास, चंद्र और पवार, शाह, अंग्रेज आदि ने बारी-बारी यहाँ राज किया।
उत्तराखंड के बारे में हालांकि कई पुराणों से कई जानकारी मिलती हैं परंतु इसके बावजूद उत्तराखंड के प्राचीन इतिहास के बारे में पूरीजानकारी आज तक नहीं मिली हैं।। ऐसा कहा जाता है कि पांडव उत्तराखंड  आए थे और यहीं पर विश्व के सबसे बड़े महाकाव्यों महाभारत व रामायण की रचना हुई थी। हिंदू धर्म के पुनरुत्थानवादी आदि शंकराचार्य के द्वारा बद्रीनाथ मन्दिर के स्थापना का उल्लेख प्राप्त होता है। शंकराचार्य द्वारा स्थापित इस मन्दिर को हिन्दू धर्म का चौथा और आख़िरी मठ माना जाता है।

 

कुमाऊँ का इतिहास:

कुमाऊँ के समाजशास्त्रीय क्षेत्र का नाम “कूर्मांचल” से लिया गया है, जिसका अर्थ कूर्मावतार भूमि (भगवान विष्णु का कछुआ अवतार) है।  1300 से 1400 ई। के बीच के प्राचीन काल में, उत्तराखंड के कत्युरी राज्य के विघटन के बाद उत्तराखंड का पूर्वी क्षेत्र आठ अलग-अलग रियासतों यानी कत्युरी, द्वारहाट, दोती, बारामंडल, असकोट, सिरा, सोरा, सुई (काली कुमाऊँ)में बाँट गया। बाद में, 1581 ई में रुद्र चंद के हाथ से राइका हरि मल्ल (रुद्र चंद के मामा) की हार के बाद, ये सभी विघटित हिस्से राजा रुद्र चंद के अधीन आ गए और पूरा क्षेत्र कुमाऊँ के रूप में था।

गढ़वाल का इतिहास:

दस्तावेज के अनुसार पौराणिक काल में पुरे भारतवर्ष में रजवाड़े निवास करते थे, और उनके राजा राज्य में राज करते थे। इसी प्रकार सबसे पहले उत्तराखंड के पहाड़ो में सबसे पहले राजवंश “कत्युरी” था । जिन्होंनेपूरे पर शासन किया।  आज भी कई शिलालेख और मंदिरों में उनके कुछ महत्वपूर्ण निशानमिलते हैं । कत्युरी के पतन के बाद के समय में, यह माना जाता है किगढ़वाल क्षेत्र एक सरदार द्वारा संचालित साठ से अधिक चार राजवंशों में विखंडित था। एक प्रमुख सेनापति चंद्रपुरगढ़ क्षेत्र के थे । चंद्रपुरगढ़ के राजा जगतपाल  (1455  से 1493) के शासन के अंतर्गत एक शक्तिशाली शासन के रूप में उभरा , जो कनकपाल के वंशज थे । 15 वीं शताब्दी के अंत में राजा अजयपाल ने चंद्रपुरगढ़ का शासन किया और इस क्षेत्र पर शासन किया। इसके बाद, उसके राज्य को गढ़वाल के रूप में जाना जाने लगा और उन्होंने1506 ई से पहले चंद्रगढ़ से देवलागढ़ तक अपनी राजधानी और 1506 से 1519 के बीच श्रीनगर को स्थानांतरित कर दिया।राजा अजयपाल और उनके उत्तराधिकारियों ने लगभग तीन सौ साल तक गढ़वाल के क्षेत्र पर शासन किया था।  इस अवधि के दौरान उन्होंने कुमाऊं, मुगल, सिख और रोहिल्ला से कई हमलों का सामना किया था।

अंग्रेजी शासन:

राज्य में गढ़वाल और कुमाऊं दो भाग हैं। 1790 से पहले, कुमाऊँ के क्षेत्र पर चंद राजवंश और गढ़वाल के क्षेत्र पर परमार और पंवार राजवंशों का शासन था। 1790-91 के दौरान, गोरखाओं के हमले के बाद, गढ़वाल और कुमाऊं का पूरा क्षेत्र गोरखाओं की अधीनता में आ गया। 1815 के समझौते के बाद, राजा सुदर्शन शाह ने टिहरी और उत्तरकाशी के वर्तमान जिलों पर कब्जा कर लिया, जबकि पौड़ी गढ़वाल, रुद्रप्रयाग और चमोली जिलों के साथ-साथ पूरे कुमाऊं क्षेत्र पर अंग्रेजों का शासन शुरू हो गया। 1947 तक, तत्कालीन टिहरी राज्य अंग्रेजों द्वारा राजा और ब्रिटिश गढ़वाल और कामौन के क्षेत्र पर शासन करना जारी रखा।

उत्तराखंड स्वतंत्रता आंदोलनों में:

Kalu-Mhra1857 के आंदोलनों में हालांकि राज्य में असर काम था, क्योंकि लोगों को अन्यायपूर्ण गोरखा शासन की तुलना में अंग्रेजी शासन सुधारवादी लग रहा था। कुमाऊँ कमिश्नर रैमजे काफी कुशल और उदार शासक था। इसके बाद चंपावत के कालू सिंह महरा ने कुमाऊँ में गुप्त संगठन क्रांतिवीर बनाकर अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन चलाया। इन्हें उत्तराखंड का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बनने का गौरव प्राप्त हुआ। इसके बाद धीरे-धीरे यह स्वतंत्रता की आग उत्तराखंड में फैलने लगी, जिसके चलते कुमाऊँ के हल्द्वानी में क्रान्तिकारियों ने अधिकार कर लिया, जिसे अंग्रेजों ने बड़ी मुश्कील से वापस पाया। इसके बाद 1870 में अल्मोड़ा डिबेटिग क्लब के बनने और अल्मोड़ा अखबार के प्रकाशन से कुमाऊँ में राजनैतिक चेतना का विस्तार हुआ।

1886 में ज्वाला दत्तजोशी सहित दो नेताओं ने कलकत्ता में हुए कांग्रेस के दूसरे सम्मेलन में भाग लिया। 1903 में पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने हैप्पी क्लब की स्थापना की। बंगाल विबहजन के बाद देशभर में चलने वाले विरोध, बहिष्कार आंदोलनों में पूरे राज्य में व्यापक असर रहा।
1912 में राजनीतिक चेतना और आंदोलन को सुचारु रूप से चलाने के लिए अलमोर कॉंग्रेस की स्थापना हुई।

इसके बाद कई क्रांतिकारीयों ने तिलक द्वारा चलाए गए होम रूल लीग आंदोलन से प्रेरित होकर  विक्टर मोहन जोशी, बद्रीनाथ पाण्डेय, चिरंजीलाल, हेमचंद, आदि ने मिलकर राज्य में होमरुल लीग आंदोलन चलाया।

इसके बाद यहाँ पंडित गोविंद बल्लभ पंत, हरगोविंद पंत, बद्रिदत्त पाण्डेय आदि के द्वारा कुमाऊँ परिसद का गठन किया गया। इस परिषद ने आगे चलकर कुली बेगार, कुली उतार, जंगलात कानून, बंदोबस्त प्रणाली, आदि के साथ स्वतंत्रता संग्राम में मत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
1918 में बरिस्टेर मुकुन्दी लाल और अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के प्रयासों से गडवाल कांग्रेस कमेटी की स्थापना हुई।

Kuli-Begar-Movementगांधी द्वारा किए असहयोग आंदोलन में राज्य के लोगोन ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। इसी दौरान बद्रिदत्त पाण्डेय, हरगोविंद पंत, चिरंजीलाल, के नेतृत्व में 40 हजार सेनानियों ने बागेश्वर के सरयू नदी के तट पर कुली बेगार न करने की सपथ ली। इसके बाद गांधी और नेहरू द्वारा हल्द्वानी, भवाली, ताड़ीखेत, अल्मोड़ा, कौसानी, आदि जगहों में सभाएं करी।

26 जनवरी 1930 को टिहरी रियासत को छोड़ पूरे उत्तराखंड में जगह- जगह तिरंगा फहराया गया।

ज्योतिराम कांडपाल, भैरव दत्त जोशी, और गोरखवीर खड़क बहादुर डांडी यात्रा में शामिल 78 सत्याग्रहियों में से थे। भारत छोड़ो आंदोलन में उत्तराखंड में भी जगह जगह हड़तालें हुई जिसमें देघाट(अल्मोड़ा) में पुलिश ने आंदोलनकारियों पर गोलीयान चल दी जिसमें  हीरामणि, हरीकृष्ण, बद्रिदत्त, और कांडपाल शहीद हो गए।

इनके अलावा अलग अलग आंदोलनों में टीका सिंह, नर सिंह धानक, गंगाराम, खीमादेव, चूड़ामणि, बहादुर सिंह, शहीद हुए।

उत्तराखंड से स्वतंत्रता संग्राम में जितनी पुरुषों की भूमिका रही उतनी ही महवपूर्ण महिलाओं की भी भूमिका रही। इस दौरान कुंती वर्मा, पद्मा जोशी, कुंतादेवी रावत, दुर्गवाती पंत, भागीरथी देवी वर्मा, तुलसी देवी रावत, भिवेड़ी देवी, भक्ति देवी, भागुली देवी, जानकी देवी, मंगला देवी, रेवती देवो, शकुंतला देवी, प्रमुख भूमिका में थी।

नमक सत्याग्रक के समय अल्मोड़ा नगरपालिका भवन में विश्नि देवी शाह के नेत्रत्व में कुंती वर्मा, जीवन्ती, मंगला, रेवती आदि ने तिरंगा फहराया।

भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान मालती देवी के नेत्रत्व में विध्या देवी, कुंती देवी, सरस्वती, भागीरथी आदि महिलाओं ने रेल संपत्ति को काफी हानी पहुचाई।

उत्तराखंड पृथक राज्य आंदोलन:

समय-समय-पर-उत्तराखंड-राज्य-में-हुए-प्रमुख-जन-आन्दोलनभारत तो आज़ाद हो गया था, परंतु उत्तराखंड का अपना कोई नाम नहीं था वह उत्तर प्रदेश राज्य के अंतर्गत ही आता था और पूर्ण उत्तर प्रदेश के नाम से ही जाना जाता था। गढ़वाल और कुमाऊँ को मिलाकर एक अलग राज्य बनाने की मांग सर्वप्रथम 5-6 मई 1938 श्रीनगर(गढ़वाल) में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के विशेष अधिवेशन में उठाई गई। इसके लिए बहुत बार मांगे उठी और आंदोलन हुए, उत्तराखंड के कई लोगों ने इसके लिए अपना बलिदान भी दिया था।श्रीदेव सुमन ने दिल्ली में गढ़देश सेवा संघ नाम से एक संगठन बनाया जिसका नाम बाद में बदलकर हिमालय सेवा संघ हो गया। 1946 में हल्द्वानी मे बद्रिदत्त पाण्डेय की अध्यक्षता में हुए काँग्रेसः सम्मेलन में उत्तराखंड पर्वतीय भू-भाग को अलग राजू बनाने की मांग की गईं साथ ही अनुसूयप्रशाद बहुगुणा ने भी अगवाल-कुमाऊँ को मिलाकर एक अलग राज्य की मांग की।   पूरन चंद जोशी द्वारा जो उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव थे, उन्होंने 1952 में भारत सरकार को उत्तराखंड को एक अलग राज्य बनाने की मांग को लेकर ज्ञापन भेजा था। बाद में जवाहर लाल नेहरू कोवीर चंद्र गढ़वाली वीर चंद्र गढ़वाली ने भी योजना का प्रारूप दिखाया था। फज़ल अली आयोग के द्वारा 1955 में एक अलग क्षेत्र और उत्तर प्रदेश का पुनर्गठन करने की बात रखी गई, इसको उत्तर प्रदेश के नेताओं ने खारिज कर दिया था। टिहरी रियासत के आखरी राजा मानवेन्द्र शाह ने भी 1957 में अपने स्तर से अलग राज्य बनाने के आंदोलन का आरंभ कर दिया था।  पर्वतीय राज्य परिषद की स्थापना रामनगर में 24-25 जून, 1967 को हुई थी।  दयाकृष्ण पांडेय को पर्वतीय राज्य परिषद का अध्यक्ष बनाया गया और गोबिंद सिंह महरा को उपाध्यक्ष और नारायण दत्त को इसका महासचिव बनाया गया था.

उत्तर प्रदेश की सरकार ने उसके पहाड़ी क्षेत्रों में विकास करने के लिए 1969 में पर्वतीय विकास परिषद का गठन किया था। 1970 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पूरन चंद जोशी द्वारा कुमाऊँ राष्ट्रीय मोर्चा की स्थापना की थी और इसके साथ ही साथ उन्होंने अलग राज्य बनाने की मांग भी रखी थी। उत्तरांचल परिषद का नैनीताल में 1972 में गठन हुआ और इसके सदस्यों  ने आंदोलन को आगे बढ़ाते हुए दिल्ली में धरना दिया था।  प्रताप सिंह नेगी द्वारा बद्रीनाथ से दिल्ली तक की पैदल यात्रा करी गई और इस यात्रा में उन्होंने “दिल्ली चलो” का नारा भी दिया था, यह यात्रा 1973 में तय की गई थी। उत्तराखंड युवा परिषद की भी स्थापना 1976 में करी गई थी और इसी के सदस्यों ने 1978 में संसद का घेराव किया था।   1979 में ही त्रेपन सिंह नेगी के नेत्रत्व में उत्तरांचल राज्य परिषद की सटापन की गई।  उत्तराखंड क्रांति दल ( U.K.D ) की स्थापना भी 1979 में करी गई थी और इसके सबसे पहले अध्यक्ष देवी दत्त पंत थे।

24-25 जुलाई 1979 में पर्वतीय जन विकास समिति की मंसूरी में  स्थापना करी गई थी।  जैसे की गढ़वाल और कुमाऊँ तब उत्तर प्रदेश के ही भाग थे, तब उत्तराखंड क्रांति दल ने पर्वतीय क्षेत्रों के 8 जिलों को जोड़कर एक अलग राज्य बनाने की मांग रखी। बाद में उत्तराखंड क्रांति दल का विभाजन 1987 में हो जाता है और इसके नेता काशी सिंह ऐरी को बनाया जाता है। 23  अप्रैल 1987 में उपाध्यक्ष त्रिवेंद्र पवार ने संसद में एक पत्र बम फेक जिसके बाद उन्ही कई यातनाएं दी गईं।

उत्तराखंड क्रांति दल द्वारा 23 नवंबर, 1987 को अलग राज्य बनाने के लिए दिल्ली में धरना देवी दत्त पंतदिया गया था और हरिद्वार को उत्तराखंड में मिलाने के लिए राष्ट्रपति को ज्ञापन भेजा गया था। 1987 में ही भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी की आद्यक्षता में अल्मोड़ा के पार्टी सम्मेलन में उत्तरप्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र को अलग राज्य का दर्ज देने की मांग को स्वीकार कर लिया गया, लेकिन प्रस्तावित राज्य का नाम उत्तराखंड के बदले उत्तरांचल स्वीकार किया गया।

उत्तराखंड उत्थान परिषद ( Uttarakhand Development Council ) की स्थापना सोबन सिंह जीना के द्वारा 1988 में करी गई थी। 1989 में उत्तरांचल संयुक्त संघर्ष समिति की स्थापना करी गई थी। द्वारिका प्रसाद उनियाल के नेतृत्व में 11-12 फरवरी, 1989 को रैली भी करी गई थी। गैरसैण, चमोली में 1992 में उत्तराखंड क्रांति दल का अधिवेशन होता है और इस अधिवेशन में गैरसैण को राज्य की राजधानी के रूप में देखा जाता है, इसको उत्तराखंड के प्रथम ब्लू प्रिंट के रूप में भी देखा जाता है।

उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने 1993 में उत्तराखंड राज्य के लिए नगर विकास मंत्री रमाशंकर कौशिक के नेतृत्व में एक कैबिनेट समिति का गठन किया था।  इस समिति ने जिसको कौशिक समिति भी कहा जाता है, मई 1994 में एक रिपोर्ट दी थी, जिसमें गैरसैण को राजधानी बनाने की बात कही गई थी।  21 जून, 1994 में कौशिक समिति की इस बात को मान लिया गया था।

खटीमा कांडखटीमा कांड:

उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने के लिए आंदोलनकारियों द्वारा 1 सितम्बर, 1994 को खटीमा, उधम सिंह नगर में छत्रों और पूर्व सनिकों की रैली चलाई जा रही थी और उस रैली के ऊपर पुलिस ने गोलियां बरसा दी थी, जिसके कारण उस रैली में25 लोग मारे गए थे और इसे खटीमा कांड के नाम से भी जाना जाता है।

 

 

मंसूरी कांड:

उसके अगले ही दिन 2 सितम्बर, 1994 में इस खटीमा कांड का विरोध प्रदर्शन मंसूरी के झूला घर में हो रहा था, उन विरोध कर रहे आंदोलनकारियों पर भी पुलिस ने गोलियां बरसा दी थी, जिसमे हंसा धनाई और बेला मति चौहान नामक दो महिलायें इसमें शहीद हो गई थी।

इसमें एक पुलिस अधिकारी उमा कांत त्रिपाठी की भी मृत्यु हुई थी और इस घटना को मंसूरी कांड के नाम से जाना जाता है।

 

रामपुर तिराहा कांड

रामपुर तिराहा कांड:

2 अक्टूबर, 1994 को कुछ आंदोलनकारी दिल्ली में होने वाली रैली में भाग लेने के लिए जा रहे थे, रास्ते में ही पुलिस के द्वारा रामपुर तिराहा ( मुजफ्फरनगर ) में आंदोलनकारियों को पकड़ लिया गया था।

आंदोलनकारियों के साथ पुलिस ने बहुत ही बुरा व्यवहार किया, उनको बसों से नीचे उतारा गया और महिलाओं के साथ भी पुलिस ने अभद्र व्यवहार किये थे, आंदोलनकारियों पर गोलियां चलाई गई, जिसमें कई लोगों ने अपने प्राण गवाएं थे और इसको रामपुर तिराहा कांड के नाम से जाना जाता है।

इस घटनाक्रम को क्रूर शासक की क्रूर साजिश भी कहा जाता है और इसे रोम के नीरो कांड की भी संज्ञा दी जाती है।

उत्तरांचल आंदोलन संचालन समिति ने 25 जनवरी, 1995 में संविधान बचाओ यात्रा चलाई थी।

श्रीयंत्र टापू कांड 

श्रीयंत्र टापू, श्रीनगर में उत्तराखंड में चल रहे ऐसे कांड और अप्रिय घटनाओं की वजह से आंदोलनकारियों ने आमरण अनशन करना शुरू कर दिया था।

पुलिस और आंदोलनकारियों में संघर्ष हुआ, यशोधर बैजवाल और एअजेश रावत इसमें शहीद हो गए थे, यह घटना 10 नवंबर 1955 को हुई थी।

अंततः 15 अगस्त 1996 में उस समय के प्रधानमंत्री एच. डी. देवगौड़ा ने उत्तराखंड को एक अलग राज्य बनाने की घोषणा दिल्ली के लालकिले से की थी।

लोकसभा में उररारप्रदेश पुनर्गठन विधेयक को 27 जुलाई 2000  में पेश किया गया था और 1 अगस्त 2000 में लोकसभा द्वारा ये विधेयक पास कर दिया गया था।

नित्यानंद स्वामीराज्य सभा द्वारा भी यह विधेयक 10 अगस्त, 2000 में पास कर दिया गया था।

उस समय के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री आर. के. नारायण ने इस विधेयक पर 28 अगस्त, 2000 को हस्ताक्षर कर दिए थे।

अंत में इतने बलिदानों और कष्टों  के बाद 9 नवंबर, 2000 में भारत में उत्तरांचल नाम से यह 27वे राज्य के रूप में स्थापित हुआ था।

उत्तरांचल का नाम 1 जनवरी 2007 में बदलकर उत्तराखंड कर दिया गया था।

नित्यानंद स्वामी उत्तराखंड  के पहले मुख्यमंत्री के रूप में चुने गए थे।