जन्मदिन – ये एक ऐसा दिन होता है जो आपके माता-पिता ने स्कूल में दाखिले के समय लिखवा दिया था उस समय। लगभग 7-8 साल का होने के बाद आप को पता लगा – धत्त तेरे की असली में तो, मैं चार दिन पहले या चार दिन बाद पैदा हुआ था। ये 80 के दशक में गाँव में हुए लोगों के लिए फिट बैठता है, और तब लगभग पूरा पहाड़ गाँव ही था। ये अल्मोडा, नैनीताल तो बाद के चोचले हैं। हाँ, फिर जैसे जैसे आप बड़े हुए ये दिन थोडा रोमांचक लगने लगा। कॉलेज में जब लडकियां बोले ‘हाई हैप्पी बर्थडे’ तो आप फूले न समाये, लगने लगा आप को की ‘हाये यही बर्थडे सबसे अच्छा है’।
और धीरे-धीरे आप 30 की ओर बढ़ने लगे और यहाँ रोमांच और बढ़ गया, लेकिन ये प्रदर्शित नहीं हो पाया। यहाँ ख़ुशी का कारण इसके आने का नहीं- इसके जाने का था। खाली बैठे, हाईवे की लोहे की रैलिंग्स से लटके, चीड़ के पेड़ों की मीठी बास के बीच आप सोचने लगे ‘चलो एक और तीर मार लिया’। मतलब हो कुछ भी, रहना खुश ही है।
थोडा परिश्रम से अगर कह भी दो, इस साल ये नहीं करूँगा, वो करूँगा, फलानी चीज छोड़ दूंगा, फलानी पकड़ लूँगा, यहाँ जाऊँगा, वहां नहीं, तो भाईसाब हो क्या जायेगा नया! रहोगे तो खुश ही ना. फिर…? तो रहो खुश ना…कहना क्या है। परिश्रम क्योँ इतना!
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