सारी संभावनाओं के बीच आवाज आयी- “अबे टेंशन मत लो, सब ठीक हो जायेगा”।
ठीक है, आप कहते हो तो ऐसा ही कर लेते हैं। बड़ी दुविधा है साहब; एक तरफ संभावनाओं की तलाश में जीवन व्यर्थ करने का डर, और दूसरी तरफ इंतज़ार करके रुकने का दुःख। अब दोनों में ये बताओ जिया कितना?
खैर अल्मोड़ा में टेढ़ी-बाजार में जो जलेबी वाली दुकान है, उसमें कल बहुत वर्षों बाद बैठे, वही दुकान – वही लोग, बालों का रंग थोडा सलेटी से सफ़ेद सा हो गया था लोगों का। पहले लकड़ियों की बँचेंस हुआ करती थी, उनकी में अधिकांश की जगह अब प्लास्टिक की कुर्सियों ने ले ली थी। दूध थोडा पतला और जलेबियाँ अब लकड़ी के चूल्हे के बजाय एल.पी.जी. स्टोव पे बनती हैं। बहरहाल हम लकड़ी की बेंच में बैठे। भले ही थोडा वेट करना पड़ा हो। सुन रहे थे, जलेबी वाले की बातें- किसी को भी इग्नोर नहीं करना। कोई छोटा बच्चा आये तो उसे अखबार के टुकड़े पे एक जलेबी रख कर देना। लम्बी कतार रहती है इनके वहां, तो हर किसी को बोलते रहना कि – “आप के लिए इस वाले लॉट से बढ़िया वाली छान रहा हूँ”। कुछ पुराने लोग बोल देते – “लाला तू कार्बन पेपर लगा के नोट छाप रहा है, आज तो बारिश से ठण्ड बढ़ गयी तो कहीं पेपर कम न पड़ जाए”! ऐसे ही कुछ और पुरानी दुकानों में जाड़ों की बारिश में घूमते-घूमते अचानक से लगा, सब बदल गया है- कुर्सियां, बेन्चें, चाय, आलू-छोले, फिलिप्स का रेडियो, घरों की बनावट और बाजार की बसासत, ऐपन का बिस्वार, दिवाली की धूम और पाठक-कैफ़े का नाम।
अफ़सोस ये था कि खुद की भी जुबान, नजर, कान, मन और रहन-सहन, सब साला बदल गया है. हम सोचे ये बदलाव कितना परमानेंट है- इस से अच्छे तो मौसम हैं- एक ठण्ड- फिर गर्मी- फिर बरसात पर फिर से वही दोहराव। आगे जाते जाते कितना आगे जाओगे।
धत्त साला- सामने होर्डिंग लगी थी प्लास्टिक की सिंथेटिक पेंट से लिखी- “सेव एनवायरनमेंट-सेव अर्थ- स्टॉप ग्लोबल वार्मिंग“। यक़ीन हो चला, कुछ नहीं बदला धत्त- इंसान वही हैं… आज भी, दोगुला।
इसी दौरान आवाज आयी थी वो कि “…, सब ठीक हो जायेगा”। अब ढूंढ रहा हूँ बाहर से किसी ने बोला था या अन्दर से ही आयी थी, पता लगे तो करू उसका भी हिसाब।
लीजिये जलेबी की दुकान का टूर :
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