अपड़ु मुलुक अपड़ी भाषा (हिंदी – गढ़वाली कविता)

by Karishma Chandra
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आजकल गांव से शहरों में भाग रहे हैं लोग,
और सब को लगता है कि अब जाग रहे हैं लोग।
अपड़ी कूड़ी पूंगड़ी छोड़ के फ्लैट में रह रहे हैं,
किराए के मकान में अपड़ी कमाई फूक रहे हैं लोग।

घर में जो प्रणाम बौडा जी बोला करते थे,
आज गुड मॉर्निंग हाय हैलो बोल रहे हैं लोग।
घर में खाई कोदे की रोटी जिन्होंने,
बाहर पिज्जा चौमिन खुज्या रहे हैं लोग।

पहाड़ों की ठंडी हवा छोड़ छाड़ के,
एसी की नकली हवा में खुश हो रहे हैं लोग।
छोयां छंछेडों कु पाणी छोड़ कर,
अब बिसलेरी की बोतल खुज्या रहे हैं लोग।

अपड़ी बोली भाषा बोलने में शरमा रहे हैं लोग,
इंग्लिश कु पूँछ पकड़ी अब भरमा रहे हैं लोग।
और गाणा सुणणा छिन कि देहरादून वाला हूं,
और इनी बेज्जती सुणि की बड़ा खुश हो रहे हैं लोग।

हे बुबा हे ब्वे या भाषा त अब विलुप्त व्हेगी ,
मॉम डैड की वजह से गढ़वाली जब्त ह्वेगी।
हे लोलों जरा त सोच ल्यादी यन अपड़ी बोली भूलण की बीमारी या सख्त ह्वेगी।
जैं किताब मां लिख्यूँ छौ कि जिसको न निज देश निज भाषा पर अभिमान है वह नर नहीं निरा मृतक पशु समान है
और वीं किताब बेचि कि कबाड़ी से मूंगफली खा रहे हैं लोग।

अपड़ी संस्कृति भूल के वेस्टर्न कल्चर अपना रहे हैं हम,
बाल कटै की कलर करै की जुल्फें उड़ा रहे हैं हम।
पर नौना भी कम नहीं हैं आजकल के,
अधा मुंड बाल कटा के घूम रहे हैं
इनु कुढंगी फैशन न जाने कहां से ला रहे हैं।
ज्यादा से ज्यादा तैं पैंट पहन लेते तुम,
पर पैंट को अधा करी निकर बनाकर घूम रहे हैं लोग।

हर बात पर यो यो बॉस बुना लग्यां,
हांजी और अच्छा जी कु रिवाज छुंण लग्यां।
अब त क्वी गौं नी राणु बल कुछ नि रखयूं गौं मा,
बस अब बड़ी बड़ी सिटी की तरफ मुख मुण लग्यां।
पर क्वी बात नी तुम बाहर जा रहे हो,
पर अपड़ी बोली को क्यों भूल रहे हो।
समणी अगर कोई अपने गांव का भी मिल रहा,
तो उससे भी अंग्रेजी और हिंदी में बच्या रहे हैं लोग।

उत्तराखंड की धरती कतगा पवित्र छै हमारी,
सभी जगह उत्तराखंड की शान छै हमारी।
पर जरा जरा करी यख भी दंगा फसाद होण लगी,
ईं पावन धरती मा पापी काम होण लगी।
गंदगी के छींटे भी इस धरती पर पड़ गए हैं,
फिर भी सब छोड़ी की मौज मना रहे हैं लोग।

घर गौं छोड़ी की जो चले गए थे देश में,
रहने लगे अब वो भी ऊपरी मनख्यूँ के भेष में।
हे भुला भैजी करके जो बात करते थे गौं में,
अब हे ब्रो हे ब्रो करके बच्या रहे हैं लोग।
हम गांव से आए हैं ये बुलण में शर्म आ रही,
पर मसाण पूजने को गांव का बाटा खुज्या रहे हैं लोग।

संदेश मेरा यही है कि चाहे कखी भी जाओ तुम,
अपड़ी भाषा अपड़ी बोली मा बिल्कुल ना शरमाओ तुम।
हमारी बोली हमारी संस्कृति जड़ च उत्तराखंड की,
और ईं जड़ काटी की टुख खुज्या रहे हैं लोग ।।

अब आजकल गांव से शहरों में भाग रहे हैं लोग,
और सब को लगता है कि अब जाग रहे हैं लोग।।

~ करिश्मा चन्द्र

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