कोई भी धारणा बस यों ही नहीं बन जाती। उसके पीछे वजह होती है, और ये वजह कभी कभी समय और हालात भी हो सकते हैं।
हम दसवीं में जिन भैया से मैथ्स का ट्यूशन लेते थे, उम्र में मुझसे 7-8 वर्ष बड़े होंगे। हफ्ते में दो दफा, शनिवार और इतवार को वो पढाते थे, शाम को 3 से 5 बजे तक। और पढ़ाते वक़्त, उनके पास जो रेडियो था, उसमे विविध भारती स्टेशन लगा रहता था, जिसमे लता, रफ़ी और किशोर कुमार के पुराने दर्द भरे नग्में लगातार बजा करते थे। इतनी तीव्र फीलिंग होती – मैथ वाले भैया पढ़ाते – पढाते कहीं खो जाते। और उनके हालात में हम भी ग़मगीन हो जाए करते।
तो प्यार – मोहब्बत क्या होती है ये तो हमें मालूम न था, लेकिन उसका दर्द हमारे कानों से होते हुए दिल में भर जाता।
वक्त गुजरा – कुछ साल बाद मोहल्ले में एक पडोसी के वहां अल्ताफ रजा के गाये, महबूबा की बेरुखी, बेवफ़ाई पर गाये गाने सुनाई देने लगे थे, और ये रोज का होता था- सुबह से ही और चलता था शाम तक। वो कहते भी हैं ना, “अगर आप दूसरों का दर्द महसूस न कर सकें तो आप इंसान काहे के!”
पड़ोस में चल रहे टेप में चल रहे गाने हर समय सुनाई देते, उनमें दर्द की मात्रा इतनी अधिक होती कि – हमें लगने लगा कि जैसे गानों का दर्द हमारा अपना हो।
तो अल्ताफ रजा के गाये गाने, सुन सुन कर, सुन सुन कर, बात अब इस हद तक पहुच गयी कि, हमें भी उस लड़की नफरत हो गयी थी, जिसने पडोसी का दिल तोड़ दिया था।
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