आज मैं जब इस विषय पर चर्चा करने जा रहा हूँ तो मेंरे अंतर्मन में अनेक विचारों का आवागमन चल रहा है।कभी सोच रहा हूँ कि प्राचीन काल में लोगों के आतिथ्य भाव का तुलनात्मक अध्ययन वर्तमान काल में लोगों के आतिथ्य भाव से करूँ,या फिर केवल प्राचीन काल में लोगों के आतिथ्य भाव का ही वर्णन करूँ ,तो मैंने सोच लिया कि प्राचीन काल की अतिथि देवो भव की सभ्यता से आप सभी लोगों को रूबरू करवाऊँ।तो चलिये चलते हैं प्राचीन समय में , अतीत की सैर में, अतीत के पथ पर।
मुझे नन्दीगाँव में एक परिचित के वहाँ विवाह समारोह में शामिल होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। शादी क्योंकि लडके की थी इसलिये बारात में नन्दीगाँव से गरूड़ जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पहाड़ की शादी थी,इसलिये एक हफ्ते पहले ही पहुँच गया। जिस दिन ,मैं नन्दीगाँव पहुँचा, तो पूरा गाँव मेरे स्वागत में खड़ा था। हर किसी ने मुझे भोजन के लिए आमन्त्रित किया। किसी ने सुबह के चाय नाश्ते के लिए बुलाया, किसी ने दिन के भोजन का आमंत्रण दिया, किसी ने शाम को चाय-नाश्ते में आने को कहा व किसी ने रात्रि-भोज को आमंत्रित किया। उनके स्नेहिल आग्रह को टाल पाना मेरे सामर्थ्य में कहाँ था। उनके लिये तो अतिथि देवो भव वाली बात चरितार्थ हो रही थी ।
मुझे याद आ रहा था अपना शहर जहाँ अतिथि का स्वागत उसके आर्थिक स्थिति को देख कर ही किया जाता है। यदि आर्थिक स्तर अच्छा तो आपको बैठक में बैठाया जायेगा, यदि आर्थिक स्तर थोड़ा-सा कमतर तो बरामदे में बैठाया जायेगा और यदि आप आर्थिक रूप से कमजोर तो बाहर गेट के बाहर से ही गेट के अंदर वाले व्यक्ति से बात कर पायेंगे और आगे तो क्या कहूँ।
खैर शहर तो शहर होता है दिखावटी व स्वार्थी।
नन्दीगाँव में शादी की रौनक तो काफी पहले से ही नजर आने लगी थी। लोगों का आने-जाने का क्रम दिनभर बने रहता था। हर एक व्यक्ति शादी में अपना कुछ ना कुछ योगदान ऐसे दे रहा था, जैसे समुद्र में सेतु निर्माण मेंं हर कोई अपना योगदान दे रहा था, यहाँ तक कि छोटी गिलहरी भी समुद्र में सेतु निर्माण मेंं अपना योगदान दिया था। ठीक नन्दीगाँव का हर एक निवासी भी छोटी गिलहरी की भाँति परिचित के लड़के की शादी में कुछ ना कुछ अपना योगदान दे रहा था। कोई अपने घर से चावल की बोरियां ला रहा था, कोई आटा ला रहा था कोई सब्जी, कोई, दूध व दूध से बने पदार्थ ला रहा था।
काम पूछने की परम्परा में हर कोई आता कुछ ना कुछ सहयोग करता श्रम के रूप में। देखते ही देखते शादी के दिन भी निकट आने लगे। अब घर में सजावट की तैयारी होने लगी। केले के बड़े-बड़े पेड़ लाये गये, तोरण द्वार बनाने के लिये। रंग-बिरंगे पताकों से घर सजाया जाने लगा। गेंदें, गुलाब आदि पुष्पों से घर को सजाया जाने लगा। महिलाएं घर में एपण दे रही थी । एक मंडली खाना बनाने का काम मे व्यस्त रहती थी। यानि कि हर कोई किसी न किसी काम में व्यस्त था। अब भोजन की बारी थी पहले जमीन में चटाई बिछाई गई, पहले पुरूषों को बैठाया गया ।अब भोजन परोसने की बारी में एक व्यक्ति ने केले के पत्ते लगायें, दूसरा व्यक्ति चटनी देने लगा, तीसरा व्यक्ति सब्जी परोसता, चौथा दाल, पाँचवा पूरी लाता, फिर कोई ककड़ी का रायता लाता, कोई चावल परोसता। खाने को इस क्रम में परोसने के कारण जहाँ एक ओर मुँह में पानी आता वहीं दूसरी ओर भुख और बढ़ जाती, तब खाने में जो आनंद आता उसका तो वर्णन ही नही किया जा सकता। पुरुषों को टोली जब खाना खाकर निवृत्त हो जातीं तो फिर बच्चें व महिलाएँ भोजन करने बैठती।
शादी के दिन बारात गरूड़ के लिए। रवाना हुई। हम लोग नियत समय में गरूड़ पहुँच गये वहाँ घरेती पक्ष ने विश्राम के लिए जनवासे की व्यवस्था कर रखी थी जहाँ घरेती हमारे स्वागत में एक पैर पर खड़े थें। व्यवस्थित तरीके से हर एक बाराती का विशेष ध्यान रखा जा रहा था हर कोई मेहमानों की सेवा में अतिथि देवो भव का भाव लिये हुए था। चाय-पानी व विश्राम से निवृत्त होकर बारात जनवासे से लड़की के घर को रवाना हो गयी। नाचते-गाते हमलोग लड़की के घर पहुँच गए। बारात का भव्य स्वागत, घरेती पक्ष द्वारा, किया गया। भोजन परोसने का तरीका ठीक नन्दीगाँव की ही तरह था। पहले बारातियों को भोजन करवाया गया। जब बाराती भोजन से निवृत हुए तब जा कर घरेती पक्ष के बच्चों व युवाओं ने भोजन किया। बड़े-बुजुर्ग तो वैसे भी कन्या-दान करने वाले हुऐ। रातभर बारात के रश्मों में हम भी शामिल रहे थें । हालांकि अगर किसी को सोना था तो उसके लिये भी पर्याप्त व्यवस्था घरेती-पक्ष ने अपने-अपने घरों में कर रखी थी। सुबह बारात विदाई का समय आ गया । घरेती पक्ष ने एक-एक बाराती को अपने हाथों से चाय नाश्ता करवाया फिर उन्हें पंक्तिबद्ध बैठाकर विदाई की रस्म निभाई गयीं। इस तरह मैं, शादी की रस्म पूर्ण होने के बाद, जब वापस आनें लगा तो नन्दीगाँव के लोगों ने मेरी विदाई की रस्म पूर्ण करने के बाद ही मुझे अपने घर वापस आने की इजाजत दी ।
आज भी मैं नन्दीगाँव को भूल पाता हूँ ना ही उनके आतिथ्य भाव को अतिथि देवो भव के मंत्र को,अगर मैं कही समझ पाया और सही अर्थों में तो वो है नन्दीगाँव।
समाप्त
हिमांशु पाठक