मैं ढलता हुआ सूरज हूँ। लाचार, बेबस और असहाय, मुझे मेरी उस संतान ने ही सड़क पर लाकर रख दिया है। जिस पर मै कभी गौरवान्वित हुआ करता था।
कभी मैं भी उगता हुआ (बाल सूरज हुआ) करता था। मैं और मेरे बाबूजी। ईजा को तो मैनें कभी देखा नही था। मेरे बाल्यावस्था में ही उसका देहान्त हो गया था। बचपन बाबूजी के सानिध्य में ही व्यतीत हुआ। यूँ तो काका, काकी थे पर उनका बर्ताव भी मेरे प्रति बहुत अच्छा नही था। सर में जुओं की भरमार, स्वयं से ही नहाना धोना। खुद ही कपड़े धोना। ईजा होती तो मेरा पूरा ख्याल रखती परन्तु बिना माँ की औलाद की गति तो ऐसी ही होती है।
बाबूजी को लगता दूसरी शादी करने से इसकी यानी मेरी दुर्दशा हो जायेगी सोचकर दूसरी शादी नही करी। उन्होंने मेरे देखभाल का दायित्व अपने छोटे भाई व बहु को (जो कि चचरे थे) को इस विश्वास के साथ दे दिया कि वो मेरी देखभाल अच्छे से करेंगे और बाबूजी निश्चिन्त होकर शहर बाहर अपने काम पर चले गये।
कुछ समय पश्चात जब बाबूजी लौट कर आऐ तो मेरी दुर्दशा देख बहुत दुःखी हुऐ और मुझे अपने साथ ही ले गये। बाबूजी के संरक्षण में, मैं धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। अपनी संस्कृत व ज्योतिष की पढ़ाई पूरी कर मैं नौकरी के सिलसिले में शहर चले गया बाद में, मैं अपने बाबूजी को अपने साथ ही शहर ले गया।
बाबूजी ने अपना अंतिम दायित्व, मेरे विवाह का,भी पूरा कर दिया अब वो चाहते थे कि वो वानप्रस्थ आश्रम में चले जाएँ, परन्तु ना मैं और ना ही मेरी पत्नी ये चाहते थे कि वो हमें छोड़ कर जायें। हमनें बाबूजी को अपने पास ही रोक लिया हमेशा के लिऐ। बाबूजी भी हमारे आग्रह को टाल ना सके।
धीरे-धीरे गृहस्थी आगे बढ़ने लगी। हमारा बेटा हुआ। धीरे-धीरे बेटा बढ़ा होने लगा, मैंने प्यार से इसका नाम तुषार रखा, बचपन से ही जिद्दी था, मैं इसका बालपन समझ इसकी हर गलती को अनदेखा कर देता।
समय-चक्र चलता रहा। बाबूजी भी अब वृद्ध होने लगे थे ढलते हुऐ सूरज की तरह। और एक दिन हमेशा के लिऐ अस्त हो गये। हालांकि हमारे दिलों में वो आज भी प्रकाशित हैं।
बाबूजी का परोक्ष आशीर्वाद हमारे साथ रहा और इसी आशीर्वाद के सहारे हम अपनी शेष गृहस्थी को चला रहे थे।
तुषार भी अब बड़ा होने लगा था। अपनी पढ़ाई में अव्वल था। हमेशा कक्षा में प्रथम आता। हमेशा माँ से चिपटे रहने वाला, माँ की जब तक सूरत नही देखता उसका दिन नही गुजरता। माँ को भी उस पर बड़ा गर्व होता । माँ भी मेरा तोषु कहते-कहते नही थकती। सब लोग समझाते भी कि पम्मों इतना भी लगाव अच्छा नही। परन्तु माँ तो माँ होती बच्चा कितना भी बड़ा हो जाय परन्तु माँ-बाप के लिये वो छोटा ही रहता है। एक दिन पढ़ाई पूरी होने के बाद तुषार की भी नौकरी लग गयी।
तुषार मेरे साथ बैठकर बातचीत करता। खाते समय हम दोनो ढेर सारी बातें करते। हमारी बातचीत का विषय कभी राजनीति पर आधारित रहता, कभी साहित्य पर आधारित होता, अलग-अलग विषय पर हम रोज खाने में चर्चा करते रहते। हम रात आठ बजे पहले बीबीसी के समाचार सुनते, कभी रात आठ बजे आकाशवाणी के समाचार सुनते फिर वर्तमान राजनैतिक घटनाक्रम पर चर्चा करते।
अब हम लोगों को भी तुषार की शादी का दायित्व भी पूर्ण करना था। लड़की की खोज करनी शुरू कर दी। बड़ी खोजबीन के बाद पूनम से तुषार की शादी करवा कर हम लोगों ने अपना दायित्व पूर्ण किया। तुषार की शादी करने के बाद धीरे-धीरे तुषार के स्वभाव में अचानक परिवर्तन होना शुरू हो गया था। अब उसका झुकाव धीरे-धीरे माँ से हटकर ससुराल की तरफ होने लगा। दुनिया वालों के सामने तो वो मातृभक्त था परन्तु घर के अंदर वो वही करता, जो उसकी पत्नी उसको करने को कहती।
पुरूष का स्वभाव भी बड़ा विचित्र होता है साहब, बाहर वो कितना ही ताकतवर क्यों ना हो, पर घर में पत्नी के आगे तो भीगी बिल्ली बन जाता है। इसका कारण मुझे आजतक समझ में नही आया। मैं तो बस इतना समझ पाया कि इस तरह के पुरूष कभी भी ईमानदार हो ही नही सकतें, क्योंकि जो जन्मजन्मांतर के रिश्तों को, शादी के बाद कुछ पल के बने रिश्तों, के लिऐ छोड़ देते हों वो शादी के रिश्तों को पूरी निष्ठा से निभायगें क्या? ये बात उन पत्नियों को भी समझनी चाहिये जो अपने पतियों को उसके घर वालों के विरूद्ध कर अपने को गौरवान्वित महसूस करती हैं।
खैर तुषार को कम्पनी ने पदोन्नति देकर अमेरिका भेज दिया। तुषार सपत्नीक अमेरिका चले गया।
मैं और मेरी पत्नी भारत में अपने शहर में अपनी दैनिक दिनचर्या में व्यस्त हो गये और तुषार अमेरिका में अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गया शुरू में तो कभी-कभार महिनों में एक-आध बार उसका फोन आता , बाद-बाद में सालभर में एकबार आ जाता था अब वो भी बंद हो गया था।
पत्नी हर रोज मेरा तोषू, मेरा तोषू कर दिन भर उसकी चिन्ता में आंसु बहाते रहती। परन्तु ना कभी तोषु आया ना ही फोन।
समय शनेः-शनेः गुजर रहा था पर तुषार की माँ अभी भी टकटकी लगाये तुषार का इन्तजार करती रहती।
कहते हैं ना ऊपर वाला भी मन की पुकार सुन लेता है।
एक दिन तुषार का फोन आ ही गया। वह दिसम्बर में भारत आ रहा था। तुषार की माँ तो खुशी से बावली हुई जा रही थी। उसे तो एक-एक दिन सदियों समान लग रहे थे। खैर दिसम्बर भी आ गया और तुषार भी परिवार सहित। दिन अब पंछियों की तरह उड़ने लगें। इस बार तुषार अपनी माँ को भी अमेरिका साथ ले जाने के लिये आया था। हालांकि जब वो अपनी माँ से अमेरिका चलने को कह रहा था। माँ भी फूले ना समाई थी पूरे गर्व के साथ मुहल्ले में जा-जाकर अपने अमेरिका जाने की खबर दे आई और ये भी कहना ना भूली कि पीछे से घर का ध्यान रखना सूबह-शाम घर का ताला खोल, दिया-बाती कर देना। धीरे-धीरे वो अपने सामान के साथ मेरा भी सामान लगाने लगी।
खैर वो दिन भी आ गया जब हम अमेरिका जाने को निकले। जब हम सभी लोग चैकिंग के लिये जाने लगे तो अचानक तुषार मेरे पाँव छू कर बोला “बाबूजी आप बस यही तक ही आ सकते हैं। मैं और तुषार की माँ दोनो ही चौंके, “ये तू क्या कह रहा है तूषार”? “हाँ बाबूजी “अमेरिका मैं मेरी पत्नी व मेरी माँ जा रहें हैं”।”मैंने आपसे तो कहा ही नही था अमेरिका चलने को”। मैं स्तब्ध रह गया। माँ बोली,” बेटा इनके बिना तो मैं भी नही जाऊँगी”।”
माँ मैं इसको क्यों ले जाऊँ”?”इसने मेरे लिये किया ही क्या”? “हमेशा बोझ ही बना रहा मुझ पर”। “अब मैं इसका बोझ नही सह सकता”।
मेरी पत्नी ( तुषार की माँ) कि स्थिति ऐसी कि ना ही घर लौटे बने ना ही अमेरिका जाने बने ।क्योंकि सामान चैकिंग से होकर बाहर आना उसके लिये भी मुश्किल था एक तरफ बेटा जो लम्बे समय के बाद मिला और एक तरफ पति ।मैंने उसको काफी समझाया तब जाकर उसका जड़वत शरीर अमेरिका जा रहा था। मै बहुत दूर तक और बहुत देर तक उनको जाते हूऐ देख रहा था। ये हमारी अंतिम मुलाकात थी वो मेरी आँखों से ओझल हो चूके थे।
और मैं एयरपोर्ट में बैठा अपने जीने का कारण तलाश रहा था। घर आया तो पता चला कि तुषार घर सामान सहित बेच चुका था। अब मैं सड़क में होने की स्थिति में था, पर कहते हैं ना ऊपर वाला जब सारे रास्ते बंद करता है तो एक रास्ता खोल देता है। मुझे रास्ते में देख वृद्धाश्रम वालों को मुझ पर तरस आ गया और मैं वृद्धाश्रम में चले गया हमेशा के लिये।
पुरूष भी बड़ा विचित्र होता है साहब पूरी उम्र अपना सर्वस्व अपने बच्चों पर झौंक देता अपना टूटे चप्पल पहन लेता है, मगर अपने बच्चों की हर इच्छाओं को पुरा करता है। खुद पुराने कपड़े पहन बच्चों को नये कपड़े पहनाता है। हजार दुःख सीने में दबाकर मुस्कुराता है। कभी कार्यालय में अधिकारी से, कभी बाहर किसी से अपमानित होता हैं मगर घर आकर बच्चों के सामने मुस्कुराकर उसकी हर ख्वाहिशों को पूरा करते-करते ढलता सूरज बन जाता है। जब उसे जरूरत होती है बच्चों की तो बेकार नाकारा बन अपनों ही बच्चों से अपमानित हो कर अंत में अस्ताचल में चला जाता है।
समय अपनी गति से चलता रहा दिन, महीने, साल गुजरते गयें और जिन्दगी चलती रही हर रोज सूबह सूरज आता चला जाता। एक दिन एक काँल मेरे नम्बर पर आया। फोन अंजान नंबर से था इसलिये मैंने नही उठाया जब उसी नम्बर से बार-बार फोन आया तो मैंने फोन उठा लिया। सामने से पम्मो(तुषार की माँ) की आवाज थी रूआँसी सी मैने उसका हालचाल जानना चाहा तो वो रोने लगी, रोते हुऐ उसने बताया,
“तुषार इतना बदल जायेगा सोचा नही था।” और उसने जो बताया वह तो बहुत ही पीड़ादायक था कैसे कर सकती है एक औलाद, ऐसा कैसे कर सकती है। माँ और नौकरानी, मैं कुछ समझ नही पाया तो मैंने उन सज्जन से बात करी तो उन्होंने मुझे पूरी बात समझायी। असल में अमेरिका मे घरेलू नौकरानी नही मिल पाती तो लोग खास रिश्तेदार को सरवेंट वीजा पर अमेरिका ले जाते हैं और वहाँ उनसे फ्री में नौकरों की ही तरह काम करवाते हैं। और इस महिला को भी सरवेंट वीजा पर ही यहाँ लाया गया था। और अब क्योंकि ये रोड में भटकते हुई मिली तो हम इन्हें ओल्ड ऐजकेयर सेंटर में ले आये हैं।
मैं स्तब्ध रह गया। एक औलाद ऐसे कर सकती है। माना आज वो उगता सूरज है और हम ढलता हुआ सूरज। मगर क्यों भूल जाते हैं वो ये कि कल वो भी होंगे ढलता हुआ सूरज।
मैं जानता हूँ कि आप मेरे पर नाराज हो रहे होंगे ये सोचकर कि मैं इस कहानी को किसी निष्कर्ष तक क्यों नही ले जा पाया। आप लोग मेरी जड़ बुद्धि पर क्षमा करें क्योंकि अब मेरे पास विचार और शब्द दोनो का अभाव हो गया हैं। प्रिय पाठकों अब मैं आपके विवेक पर ही छोड़ देता हूँ कि यदि आपके पास इस कहानी का कोई निष्कर्ष हो तो कृपया मेरा मार्गदर्शन करें अब तो आप ही के द्वारा सुझाया गया मार्ग मेरी उलझन को सुलझा पायेगा। इस आशा और विश्वास के साथ। मैं हिमाँशु पाठक आपसे विदा लेता हूँ। अगली मुलाकात तक नये विचारों के साथ नमस्कार।।
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