प्रस्तुत अंश लेखक – अनिल यादव की पुस्तक: कीड़ाजड़ी से, पुस्तक ख़रीदने के लिए लिंक, लेख के अंत में।
एक दिन मुझे कीड़ाजड़ी अनायास खाने को मिल गई। मुफ्त। थोड़ी देर हाथ में लिए सोचता रहा, मरा हुआ कीड़ा खाना है। बचपन की स्मृति के धुंधले वाले हिस्से में जाकर खोजने की कोशिश की मैंने। कितनी बार गुड़ के साथ लिपटी चींटे की टांग खाई होगी। फिर उस अप्रिय लेकिन आत्मीय भाव को हॉस्टल के मेस में चावल के साथ पिल्लू, बैंगन और भिंडी के भीतर के कीड़ों, दाल में मक्खियों के सारतत्व, ब्रेड में तिलचट्टे के पंख और दही के जीवनदायी जीवाणुओं तक विस्तार देता गया।
अंततः कीड़े और फंफूद के डंठल दोनों को चबा गया। पूरे दिन इंतजार करता रहा। इससे ज्यादा असर तो पहले दिन पिंडर घाटी की शुद्ध हवा का हुआ था। न जाड़े से दुखते जोड़ों को आराम मिला। न आंखों में रोशनी भरी। न दौड़ने-कूदने की इच्छा हुई। न ही काम की ज्वाला में झुलसने लगा। कुछ नहीं हुआ। कायदे से कोई स्वाद तक नहीं था जिसे बताया जा सके। कीड़ाजड़ी का अपना ही एक स्वाद और जलवा है जो उसके बाद पता चला।
एक शाम बगल वाले कमरे में दो रूसी और एक यूक्रेनी आकर ठहरे। जिगरे वाले होंगे। बरसात में सुंदरढूंगा का रपटीला ट्रेक करके आए हैं। एक की आंखें नीली हैं। लंबे-भूरे लहराते बाल और चमकीली दाढ़ी है। देखने में लगभग ईसा मसीह लगता है।
हवा चलने पर उसके जैकेट की एक बांह फहराने लगती है। वह हाथ कुहनी से कटा हुआ है। कहता है, “मॉस्को में पंद्रह साल पहले एक एक्सिडेंट के बाद डॉक्टरों ने मेरा हाथ अलग कर दिया। जान बचाने के लिए जरूरी था लेकिन जीना मुश्किल। मैं अपने अधूरे शरीर से क्षुब्ध रहने लगा। डिप्रेशन का शिकार हो गया। भारत आने पर आध्यात्मिक गुरुओं की पंगत में शरीर की नश्वरता का बोध हुआ। आत्मा के सौंदर्य के लिए ईश्वर का आभारी होकर ही अपने डेढ़ हाथ के अस्तित्व को स्वीकार कर पाया।”
मैं अपने कमरे के बाहर धूप में बैठा कुछ पढ़ रहा हूं। वह जमीन पर रूमाल बिछाकर चारों कोनों पर पत्थर रखता है। लाल रंग की झोली से कोई दो सौ ग्राम कीड़ाजड़ी निकाल कर सूखने के लिए फैलाते हुए विनम्रता से कहता है, “भाई, डिस्टर्ब कर रहा हूं। क्षमा करना लेकिन इस पर नजर रखे रहना। नहाने जा रहा हूं। थोड़ी देर में उठा ले जाऊंगा।”

“जरूर, अब तक सिर्फ फोटो में देखा था। पहली बार सचमुच की कीड़ाजड़ी देखने को मिल रही है!”
उसने दो घंटे बाद आकर जड़ी पर हाथ फिराया ताकि धूप बराबर लगे। मुझे एक पीस देते हुए कहा, “मेरी ओर से उपहार! दूध के साथ या ऐसे ही चबा जाइए। पैंतालीस मिनट बाद शरीर में नई ऊर्जा की सकारात्मक तरंगें मचलने लगेंगी।”
मुझे लगा, वह इस बीच अपने कमरे की खिड़की से मुझे ताड़ रहा था। अब ईमानदारी का इनाम दिया गया है। वह शाम को बाहर दिखा तो मैंने बताया, “मुझे कुछ महसूस नहीं हुआ। तब से इंतजार कर रहा हूं।”
सफेद एप्रन पहन कर टीवी पर टूथपेस्ट के गुण बकने वाले अभिनेताओं की तरह उसने कहा, यह शरीर की संवेदनशीलता पर निर्भर करता है कि कितनी देर में असर का पता चलना शुरू होगा। पेट को दूसरा दिमाग कहने वाले चीनियों ने लगभग हर चीज को खाकर सेहत पर उसके प्रभाव को आजमाया है। वे गधे तो नहीं हैं जिन्होंने इतनी तरह की चिकित्सा पद्धतियों का विकास किया है। इसमें कोई तो बात होगी जो चीनी लोग यारत्सा गुन्बु के दीवाने हैं। एक मिनट रुकिए, अपना अनुभव बताता हूं।
आजकल मैं इसे अपने एक दोस्त को प्रयोग के तौर पर खिला रहा हूं। दो रात पहले हम लोग सुंदरढूंगा ग्लेशियर के नीचे एक गुफा में सोए हुए थे। वह पेशाब करने के लिए उठा। मुझे धार के पत्थर से टकराने की तेज आवाज सुनाई दे रही थी लेकिन वह बीच में अचानक रुक जा रहा था। मैंने पूछा, किसी योग-विधि से मूत रहे हो क्या? उसने कहा, शिश्न में असाधारण तनाव के कारण मैं पेशाब करना भूल जा रहा हूं। मैं खुद एक डॉक्टर हूं। अपने मरीजों को दवा के रूप में देता हूं। हफ्ते भर में उनकी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है और पुरानी बीमारियां ठीक होने लगती हैं। वे सब मुझसे झूठ तो नहीं बताते होंगे!
प्रयोग वाला दोस्त, एक गंजा रूसी पहलवान है जो जवानी वापस घसीट लाने के लिए रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से भी अधिक हठ के साथ जुटा हुआ है। उससे मेरी मुलाकात रोज सुबह होती है। मैं अपने दरवाजे पर कंबल बिछाकर ध्यान कर रहा होता हूं। वह सिर्फ एक हाफपैंट पहने काफी सामान के साथ अपने कमरे से बाहर निकलता है। पहले स्टोव जलाकर, एक हंडिया में मद्धिम आंच पर नेपाल का नशीला शहद, तीन कीड़ाजड़ी और एक बोतल से कोई द्रव मिलाकर पकने के लिए चढ़ा देता है। एक प्रशिक्षित ट्रेक ऐंड फील्ड एथलीट की तरह वॉर्मअप करने के बाद घुटने मोड़कर मैकतोली शिखर पर आंखें जमाए “नौली क्रिया” करने लगता है। पेट में दोनों तरफ आंतों को चक्राकार मथने के बाद शीर्षासन करता है। थोड़ी देर तक सामने उकड़ बैठकर मुस्कराते हुए मेरे ध्यान का निरीक्षण करने के बाद सूर्योदय के समय एक लकड़ी से हंडिया का माल निकाल कर चाटता है और कोई खास किस्म की चाय पीता है।
इतने करीब बैठकर घूरने से बेचैन होकर आंखें खुल जाती हैं। झुंझलाहट को हंसी से छिपाता हूं लेकिन उसकी अंग्रेजी बहुत खराब है इसलिए देर तक बात नहीं हो पाती। इसी समय कीड़ भी उसे शेड में से नाश्ता बनाते हुए देख रहा होता है। मैं उससे पूछता हूं, “वह हंडिया में बोतल से निकाल कर क्या मिलाता है?”
“क्या पता, कुछ भी हो सकता है।”
तीसरा वाला यानी यूक्रेनी किसी से बात नहीं करता। दिन में दो बार कुर्सी लेकर, हैट लगाए खेतों की ओर चला जाता है। मैकतोली की ओर देखते हुए एक थैली में हाथ छिपाए तस्बीह फेरता रहता है। कभी-कभार उस खेत से धीमी आवाज में अटपटे उच्चारण वाला गायत्री मंत्र सुनाई देता है। रोज सुबह पड़ोसी प्रकाश की बीवी अपनी गायों को हांकते हुए जंगल ले जाती है और रोज एक गाय भागती हुई बीच के गधेरे को पार कर यूक्रेनी के सामने जाकर खड़ी हो जाती है। वह गाय को पंटी से पीटती है। यूक्रेनी होंठ भींचकर दूसरी तरफ मुंह घुमा लेता है। विक्रम उससे पूछता है, “गाय को क्यों पीट रही हो?” वह हंसती है, “यह गोरू है ही नहीं। इसमें आदमियों की बुद्धि आ गई है। रोज अंग्रेज का मंतर सुनने चली आती है।”
मैं उससे बातचीत की कोशिश करता हूं, “सर्गेइ नजारोव बुबका!”
जब मैं किशोर था, पोल वॉल्टर बुबका मेरा हीरो था। उतना शानदार खिलाड़ी मैं दुनिया में और किसी को गिनता नहीं था। वह बांस के सहारे उड़ता था। हर ओलंपिक या किसी भी विश्वस्तरीय प्रतियोगिता में अचूक ढंग से एक नए रेकॉर्ड के साथ गोल्ड मेडल जीतता था। वह तस्बीह फेरते हुए कहता है, “यस, ही इज अ बुबका, यूक्रानियन।”
मुझे लगता है जैसे कह रहा है, नाम के आगे भड़ाना लगा है तो गुज्जर ही होगा।
यूक्रेनी का कहना है कि वह और ईसा मसीह, पुट्टपर्थी (आंध्र प्रदेश) के सत्य साईं बाबा के शिष्य हैं। ईसा मसीह आश्रम में डॉक्टर के रूप में सेवा देता है और उसने भारत के मरीजों की गरीबी को ध्यान में रखते हुए सस्ते इलाज के कई सफल प्रयोग किए हैं। ईसा मसीह का कहना है कि भारत में काम की इकलौती चीज अध्यात्म है और यह बात सिर्फ प्रवचन सुनकर या किताबें पढ़कर नहीं कह रहा है बल्कि उसने तीन घंटे की समाधि का अनुभव भी किया है।
मैं बीड़ी पीता हूं। ईसामसीह धुएं की ओर इशारा करके कहता है, कोई आदमी बुरा नहीं होता। बुरी आत्मा उसके भीतर प्रवेश करके ऐसे काम कराती है। आपकी बुरी आदतें उस आत्मा की आदतें हैं।
मैंने पूछा, “जब भी पहाड़ आता हूं बीड़ी की लत लग जाती है। मतलब किसी और की आत्मा मुझमें आ चुकी है?”
“आ नहीं चुकी है… वह बुरी आत्मा ऑलरेडी आपके शरीर का इस्तेमाल बीड़ी की तरह कर रही है,” उसने अपने रूपक को भयानक बनाते हुए कहा। वे तीनों जब सुंदरढूंगा से नीचे उतर रहे थे, लोकल एजेंटों के जरिए घाटी में खबर फैल चुकी थी। उन्होंने आने के अगले दिन से कीड़ाजड़ी की खरीदारी शुरू कर दी।
पहले दिन गुपचुप कारोबार हुआ। किसी प्राइवेट कॉलेज में नौकरी के लिए होने वाले इंटरव्यू की शैली में। ईसामसीह हर आधे घंटे में प्लास्टिक की एक कुर्सी घसीटते हुए बाहर आता है। खाली टिन शेड की ओर देखते हुए कुर्सी दो बार पटकता है, “एनीवन कमिंग!” पांच मिनट के भीतर मल्ला जैकुनी और दऊ तक खुसर-पुसर होने लगती है, “पुकार पड़ गई-अंग्रेज बुला रहा है।”
मैं अधखुले दरवाजे से देख रहा हूं, बेचने वाला आता है। माल की पोटली खोलकर बिना कुछ कहे मेज पर रख देता है। कई बार कहने पर झिझकते हुए कुर्सी पर बैठता है। उनके पास पुरानी पीढ़ी के लिए स्टील का तराजू और ग्राम-मिलिग्राम के बाट हैं। तौल, पहले खुद विक्रेता को करने के लिए कहा जाता है। नई पीढ़ी के लिए डिजिटल बैलेंस है। जो तौल के चक्कर में नही पड़ना चाहते उनको प्रति पीस का सौदा करने की सहूलियत है। रेट है, बढ़िया साबुत कीड़ा, अस्सी हजार रुपए का सौ ग्राम। पतला कीड़ा, साठ हजार का सौ ग्राम और ढीला, टूटा कीड़ा, चालीस हजार का सौ ग्राम। इसी हिसाब से पांच सौ, तीन सौ और डेढ़ सौ रुपए प्रति पीस का रेट है।
कीड़े की जांच और रेट लगाने का काम ईसामसीह का है। खजांची, यूक्रेनी है जो एक हैंडबैग से बिल्कुल नए करेंसी नोट निकालता है और बेचने वाले बंदे को देकर गिनने का इशारा करता है। पहलवान कुछ नहीं करता। नंगे बदन बैठा रहता है। आने वालों को घूरता है और सौदे के समय कमरे से बाहर निकल कर गर्दन भांजते हुए हवा खाता है। भुगतान के बाद ईसामसीह हाथ मिलाने के लिए बढ़ाता है लेकिन विक्रेता रुपयों से भरी मुट्ठी को दूसरे हाथ से जोड़ते हुए बाहर निकल आता है। किसी पेड़, घर या झाड़ी की ओर देखता है जहां कई जोड़ी आंखें उसका रास्ता देख रही होती हैं।
दो लाख तीस हजार की खरीद हुई। आधे से ज्यादा कीड़ा आसपास के घरों से आया जहां कोई न कोई अंग्रेज के आने की खबर पाकर बुग्याल से लौटा था। शाम को तीनों ने खरकिया जाने वाले रास्ते पर खड़े होकर गायत्री मंत्र का सामूहिक पाठ किया था। पहलवान ने बच्चों को हाथ के बल बिच्छू चाल चलकर दिखाया। दो लड़कों ने भी वैसी ही चाल चढ़ाई पर चलकर दिखा दी तो बोला, “वैरी गुड” और उनसे हाथ मिलाया।
अगली सुबह, आठ बजे तक टिन शेड की तीनों बेंच ठसाठस भर चुकी हैं। लौंडे-मोड़े खड़े हैं। रास्ते पर दो छोटे झुंड पत्ते खेलकर टाइम काट रहे हैं जिनकी बगल से खरकिया को जाने वाले खच्चर बिदक कर निकल रहे हैं। कीड़ कहता है, इनमें से सिर्फ दस-बारह होंगे जिनकी अंटी में कीड़ा है। जो बेचकर निकल रहे हैं, वहीं शेड में बोतल मंगाकर खोल लेते हैं। कई तमाशा देखने वाले इतने टल्ली हो चुके हैं कि असहाय भाव से पसीना छोड़ रहे हैं। खिलखिलाते बच्चे उनके कपड़े नोचकर भाग रहे हैं। खाती गांव में चाय की दुकान वाले प्रकाश का लड़का सैंतालीस सौ का कीड़ा बेचता है लेकिन पैसे लेकर बाहर नहीं निकलता। कुर्सी का हत्था पकड़कर झूमने लगता है, “वन थाउजेंड मोर सर, आइ नीड!”
ईसामसीह हंसता है, “बिजनेस इज कंप्रोमाइज। यू हैपी मी हैपी।” लड़का रोने लगता है, “बिग बिग पीस सर।” ईसामसीह पर असर नहीं पड़ता, वह पहलवान की ओर इशारा करता है, “देखो मेरे दोस्त, लोग तुम्हारे ऊपर हंस रहे हैं।” वह सुबकते हुए कुर्सी पर झुक जाता है, “वेरी हार्ड प्रोब्लम सर!” (मैंने निकालने में बहुत मेहनत की है)
ईसामसीह ‘आइ नो यू पीपल’ कहते हुए उठ जाता है। बाहर आकर आवाज लगाता है, “नेक्सट!”
इस बीच लड़का पांच सौ पर आ चुका है। कमरे में बैठे दोनों स्मगलर जोर से हंसते हैं। दरवाजे पर नया विक्रेता आकर खड़ा हो जाता है और लड़के को कुर्सी से उठकर जाना पड़ता है।
वह शेड में जाकर चहकने लगता है, “मैंने अंग्रेजों से खत्तरनाक अंग्रेजी में बात करी… लेकिन पैसा नहीं दे रहा। मां कसम, इन जैसे बहुत आने वाले हुए यहां तो। बाद में बेचेंगे।”
डेढ़ महीने की अखंड शांति के बाद इतनी आवाजें सुनकर नशा जैसा होने लगा है। आज गर्मी भी ज्यादा है। शायद शाम तक बारिश हो जाए। मैं अपने कमरे में आकर ऊंघने लगता हूं। भरी दोपहरी में एक आदमी दरवाजे पर फटी आवाज में लगभग गा रहा है, “मे आइ कमिन सर!”
वह भेड़ के ऊन का घिसकर चिकना हो चुका चीकट कोट पहने चौखट के अंदर-बाहर झूल रहा है। दरवाजे का कुंडा उसकी सख्त मुट्ठी में दबा हुआ चर्र चूं-चर्र चूं किए जा रहा है। मैं बगल वाले कमरे की ओर इशारा करता हूं लेकिन लगता है, वह ठीक से देख नहीं पा रहा। मैं उठता हूं, उसकी बांह पकड़कर बगल वाले कमरे के दरवाजे पर खड़ा कर देता हूं। यह जयसिंह है जो पहले कभी दऊ में ओमशांति होटल चलाता था।
वह लहराते हुए अंदर घुसकर, ऊंची आवाज में पूछता है, “यू नो मी? माई होटल। खाती डेढ़ माइल फ्राम हियर, आल्सो यू कैन गो लेहबगड़।”
पहलवान कहता है, “नो, वी डोन्ट नो यू, स्टैंड प्रापर्ली!”
ईसामसीह, प्रश्नवाचक मुद्राएं बनाने के बाद कहता है, “ड्रिंक लेस लिकर। कम दारू पियो दाजू” और उठकर उसे कमरे के बाहर निकाल देता है। जयसिंह मेरे कमरे में आकर उन्हें और मुझे सुनाता है। “मैं एमएलए का आदमी हूं। आप बोलो, अभी टमटा जी को फोन लगाता हूं। क्या मेरे पास नंबर नहीं है? अभी पुलिस को खबर करके इन्हें सही करा सकता हूं।”
वह जरा देर एकालाप करता है लेकिन मुझे ऊंघता पाकर, अपने प्रभाव का दूसरी या तीसरी बार खुद को संतुष्टि देने वाला वर्णन करते हुए टिन शेड की ओर चला जाता है। थोड़ी देर बाद एक बच्चा आकर बगल वाले कमरे के दरवाजे पर से उसके प्लास्टिक के जूते उठाकर ले जाता है।
तीसरे दिन सुंदरहूंगा के बुग्याल गया जोहार अचानक लौट आया।
एक अनवाल के जरिए संदेश भेजकर उसे बुलाया गया था। लॉज में अंग्रेज आए हुए थे। घर में पढ़ा-लिखा होने के कारण उनसे खाना-पानी, बिजनेस की बात वही कर सकने वाला हुआ। बीच में कीड़ ने मुझसे रोजमर्रा के काम आने वाली अंग्रेजी के कुछ वाक्य एक कॉपी में लिखवा कर याद करना शुरू किया था लेकिन एक बार चाचा के आने के बाद फौरन छोड़ दिया। मैंने जोहार को पहली बार देखा तो वह गड़बड़झाले में फंसा हुआ था।
सुबह मैं ध्यान के लिए उठने वाला हूं लेकिन रुक जाता हूं क्योंकि जोहार बाहर झाड़ लगा रहा है। रात में बारिश हुई थी। कमरों के सामने सीमेंट उखड़ जाने से दो उथले गड्ढे बन गए हैं जिनमें पानी टिका रह जाता है। वह चाहता है अंग्रेज के जागने से पहले सबकुछ चकाचक कर दे, सवेरा होते ही कीड़ाजड़ी वाले भी मंडराने लग पड़ने वाले हुए। सिर्फ अंडरवीयर पहने ईसामसीह कमरे से बाहर निकलता है। आंखें खोलने की कोशिश करते हुए जोहार को उनींदी आवाज में रोकता है, “एवरीबॉडी इज स्लीप एंड यू आर डिस्टर्निंग देम।” जोहार उसकी ओर देखने से बचते हुए किसी पौधे के सूखे डंठलों से बनी भारी झाड़ लगाता रहता है। ईसामसीह अचानक चिल्लाने लगता है, “आइ से स्टॉप दिस।” जोहार अपने काम में लगा रहता है।
वह उसका झाड़ वाला हाथ पकड़कर हिलाता है, “आइ से स्टॉप। कमरे में पानी नहीं है। हम लोग रात भर बिना पानी के पेशाब करते रहे। हमारी ओर देखो हम तुम्हारे फकिंग कस्टमर हैं। तुम्हें हर एक आदमी को अलग से एक पाइप लाइन देनी चाहिए। जाओ, पहले पानी लेकर आओ।”
अब जोहार की समझ में आया। उसने कहा, “सॉरी सर।”
वह थककर बेसुध सोने वाला आदमी है। सोच भी नहीं सकता कि झाड़ की आवाज पर कोई गुस्से में बिस्तर से उठ खड़ा होगा। अगर थोड़ी बहुत जाग होती है तो हो। यहां कोई सोने वालों की वजह से अपना काम नहीं रोक देता। ईसा मसीह खामखाह उससे हॉस्पिटैलिटी सेक्टर का कर्मचारी होने की उम्मीद कर रहा है और जोहार उसे विचित्र आदतों वाले कड़क मिजाज अंग्रेज की तरह देख रहा है।
पिछली शाम मैं खुद ईसा मसीह के शिष्टाचार का शिकार होने वाला था लेकिन किसी तरह बच गया। मुझे देर से हिचकी आ रही थी। उसने दरवाजे पर आकर कहा, “यू माइट बी डिस्टर्निंग अदर्स।” मैंने कहा, “भाई, कोई मुझे बहुत याद कर रहा है। अगर वह मान जाए तो समझो यह तुरंत रुक जाएगी।”
इससे मामला दूसरी ओर घूम गया। वह बताने लगा, इस तरह की बातें हर संस्कृति में कही और मानी जाती हैं। पता नहीं कैसे, दुनिया भर के लोग इस मामले में एक ही तरह सोचते हैं। हमारे यहां रूस में कहते हैं, अगर बिना सांस लिए नौ घूंट बोदा (पानी) पी लो तो हिचकी ठीक हो जाएगी।
“और हमारे यहां केवल सात घूंट पीना पड़ता है। अगर बीच में ही हुच्च हो जाए तो पैर के तलवे की मिट्टी गले पर लगाई जाती है या कोई और टोटका आजमाया जाता है।” आज सुबह से ही खटराग शुरू हो गया है। जोहार के झाड़ लगाने के बाद से माहौल में तनाव है। मैं ध्यान लगाने की कोशिश कर रहा हूं और मेरे दरवाजे पर बैठा जातोली का एक लड़का मोहन, ईसा मसीह से तराजू लेकर अपने गांव चलने की जिद कर रहा है।
वह उससे कहता है, “पांच दिन बाद एक विदेशी खरीदार खाती आएगा। उससे मेरा नाम लेकर मिल लेना। तुम्हारा काम हो जाएगा।” लड़का अड़ा हुआ है, नहीं पहले मेरे गांव चलो। वह मुझसे लड़के को समझाने के लिए कहता है। मैं खीझकर कहता हूं, ईसा मसीह भाई, अपना धंधा खुद संभालो। एक कीड़ाजड़ी खिलाकर कितना काम करवाओगे।
लड़के के जाते ही कीड़ आता है। मेरा कंधा छूकर कहता है, आपसे एक आदमी मिलने आया है। मैं पूछता हूं, इतनी सुबह मेरा मिलने वाला कौन आ गया! वह बताता है, गांव का पतरौल है। मैं टालता हूं, बोल दो अभी पूजा कर रहे हैं। शेड में बैठकर उससे गप करो। एक घंटे में आता हूं।
पांच-सात मिनट बाद ही एक मोटा, अधेड़ आदमी मेरे सामने आ खड़ा होता है। पूछता है, क्या आप व्यायाम कर रहे हो? मुझे उसके ट्रेकसूट की फैली हुई चेन से झांकती तोंद दिखाई देती है। उसका चेहरा देखने के लिए कंबल पर पीछे की ओर सरकता हूं। वह दूसरा सवाल पूछता है, क्या आप पिंडारी जा रहे हो?
मेरा ध्यान जाता है, वह बात तो मुझसे कर रहा है लेकिन बगल वाले कमरे की खुली खिड़की से भीतर झांकने की कोशिश कर रहा है। वहां से कोई रुसी गाना गुनगुनाने की आवाज आ रही है। दरवाजा बंद है। पतरौल की आवाज में अतिरिक्त खुशी की वैसी लहक है जो पहली बार किसी बाहरी से बात करते हुए इस घाटी के लोगों के कंठ में थोड़ी देर के लिए आती है और लुप्त हो जाती है। मैं पूछता हूं, “कैसे आए, क्या आप मुझे जानते हो?”
“जानने को सभी जानने वाले हुए यहां, आप यहां टीचर लगे हो।” “फिर!”
“मैंने कहा, हालचाल लेते हैं गुरुजी का हमारे बच्चों को पढ़ाने वाले हुए,” उसने खिड़की पर नजरें जमाए हुए ढिठाई से कहा। इतने में बगल का दरवाजा खुला। नंगू पहलवान, हेल्थड्रिंक बनाने के सरंजाम के साथ प्रकट होकर स्टोव जलाने लगा।
टिन शेड की तरफ से एक दुबला आदमी चला आ रहा है। वह अपने डीलडौल के हिसाब से बड़ी जैकेट पहने है और ज्यादा ही ताकत से पैर पटक रहा है। उसके साथ एक लड़का है जिसे मैंने पहचान लिया, कल वह शेड में कीड़ा बेचने वालों के साथ लूडो खेल रहा था। उसे जंगलात महकमें के स्थानीय दफ्तर में बाहरी लोगों की आमद दर्ज करने वाला रजिस्टर भरने के लिए ठेके पर रखा गया है। दफ्तर अफसरों के आने पर ही खुलता है इसलिए आमद शायद ही किसी की दर्ज हो पाती है लेकिन वह दिन में एक बार वहां जाता जरूर है। लड़के ने पतरौल को देखकर हाथ उठाया, “हिम्मतदा नमस्ते!”
दुबले आदमी ने रूसियों के कमरे के सामने अपनी जैकेट उतार कर गोला बनाया और बायीं कांख में दबा लिया। वह अंदर खाकी वर्दी पहने है जिस पर काले रंग की नेमप्लेट लगी है। वह इलाके का वन दारोगा है। उसने दरवाजे को छुआ जो फौरन खुल गया। उसने चौखट पर एड़ियां बजाते हुए दूसरे हाथ से जोरदार सैल्यूट मारा। पतरौल और लड़का मुस्तैदी से उसके दाएं-बाएं खड़े हो गए। अब तक सूरज मल्ला जैकुनी के ऊपर आ चुका था और उन सभी के सिरों के बाल और कानों के रोएं चमक रहे थे।
कमरे के अंदर ईसा मसीह सिर्फ अंडरवीयर पहने बिस्तर के बीचोंबीच उकडूं बैठा कंघी से अपने लंबे बाल सुलझा रहा था। उसके बगल में कंबलों की टेक लगाए यूक्रेनी भयभीत लग रहा था। उसने धीरे से तस्बीह वाली थैली और हैंडबैग गले में लटका लिया। वन दारोगा ने लड़के से लगभग आलाप की तरह कहा, “भुला, देखता क्या है श्याले! मेरी पिस्टल निकाल। अंदर जाकर देखो, (बहिन की गाली) ने कहां माल छुपा रखा है।”
पतरौल लपक कर दरवाजे पर रखे रूसियों के जूते-चप्पल खेत में फेंकने लगा। पहलवान अपना स्टोव जलता छोड़कर तेजी से कमरे के अंदर गया और सीने पर हाथ बांधकर दारोगा के सामने चौकन्ना खड़ा हो गया। ईसा मसीह ने मुझे खिड़की के सामने खड़ा पाकर हैरानी का अभिनय करते हुए अपना साबुत हाथ नचाया, “दे डोन्ट लुक लाइक पोलीसमेन!”
मैंने धीमे से कहा, “आइ कांट आइडेन्टिफाइ ए पुलिसमैन फ्रॉम फॉरेस्टगार्ड।”
ईसा मसीह ने वन दारोगा से कोई आइकार्ड या पहचान का ‘दाकूमेन्त’ दिखाने के लिए कहा जिससे जान सके कि वह वास्तव में पुलिस वाला है या कोई और। जवाब में उसने पैंट की जेब से एक लंबी सीटी निकाल कर बजाई। ऑपरेशन की औपचारिक शुरुआत करते हुए कहा, “यहां आके दानपुर की शान लूटते हो।”
दारोगा कमरे के अंदर घुसकर उनके बैग उलटने लगा। उसने एक काले रंग का डफल बैग बिस्तर के नीचे से घसीट कर बाहर फेंका जिसे मुस्तैदी से लड़के ने कंधे पर लटका लिया। दूसरा बैग उठाने के लिए वापस मुड़ा तो पहलवान ने उसका कॉलर पकड़ लिया। आंखों से जाहिर था, वह कोई दस सेकेंड डर और अनिश्चय से जूझता रहा फिर उसने दरवाजे की ओर ठेलते हुए वन दारोगा के मुंह पर दो करारे चमाट मारे और हाफ पैंट की जेब से एक छोटा चाकू निकाल लिया। तीनों सहम कर पीछे हटते हुए बाहर आ गए।
अब तक खिड़कियों के सामने बच्चों के सिर दिखने लगे हैं। टिन शेड और रास्ते पर मर्द-औरतों का मजमा लग चुका है। इस भीड़ में कीड़ा बेचने वाले, उनके साथ पीने और पत्ते खेलने की जुगत करने वाले, दूसरे ठेकेदारों के बिचौलिए, खच्चर हांकने वाले, खरकिया से भराड़ी जाने वाली लेट हो रही गाड़ियों के ड्राइवर सभी शामिल हैं। सब बौखलाए हुए हैं। एक दूसरे को चिल्लाकर बता रहे हैं, “किसी लोकल श्याले ने ही फोन किया होगा। कहो, कल जिनका माल नहीं लिया? उन्हीं में से किसी ने अपनी मां …”
अचानक वन दारोगा को कुछ याद आया। उसने झपट कर दरवाजे का कुंडा चढ़ा दिया है। वह चिल्लाता है, “ताला लाओ रे। बंद करो सबको। अभी फोर्स आएगी तब इन्हें पता चलेगा।”
दिल की धड़कन सामान्य होने लगती है। मेरा अनुमान है कि कुंडा लग जाने के बाद लंबा विराम होगा। खरकिया से घंटे, दो घंटे में फोर्स आएगी। स्मगलरों को ले जाएगी या दारोगा ही खिड़की से लेन देन करेगा। मैं अपना नाश्ता बनाने और दूध गर्म करने टिन शेड में चला गया लेकिन वहां जगह कहां है, चूल्हे में लगी लकड़ियों और बर्तनों तक पर लौंडे-मोड़े बैठे हुए हैं। तभी खिड़की के पास खड़े बच्चे चिल्लाते हुए दौड़े, “कीडूं अंग्रेज तेरी जाली नोच रहा है बल। देख लेना शीशा भी तोड़ेगा।”
मैं समझ गया, आज नाश्ता और दोपहर का खाना दोनों नहीं मिलने वाला। ‘कमरे में क्या हुआ ठैरा!’ पर पांच मिनट का संक्षिप्त बुलेटिन सुनाने के बीच में मुझे अपने दोस्त केशव भट्ट की मिठाइयों की याद आई जो उसने बीती शाम को ही एक लोकल टैक्सी वाले के हाथ बागेश्वर से भेजी थीं। मैं अपने कमरे की ओर लपका। रास्ते में देखा, बगल के कमरे का दरवाजा कंपकंपा रहा है। लंबी चरमराहट के बाद भड़ाक की आवाज के साथ अंदर की सिटकनी ने चौखट की लकड़ी को फाड़ दिया।
पहलवान सामने खड़ा है। उसकी आंखें बाहर लटक आई हैं। गर्दन की नसें फूल गई हैं। उसने जोर की सांस छोड़ी और कोई अज्ञात गाली देते हुए हाथ झटकने लगा। उसके पीछे मिर्च के स्प्रे की बोतल लिए ईसा मसीह निकला, दौड़ते हुए वन दारोगा के पास पहुंचा जो फोर्स बुलाने के लिए फोन लगा रहा था। उसकी आंखों में दो बार स्प्रे कर दिया। आंखें मलता वन दारोगा रास्ते की ओर भागा और चिल्लाने लगा, “जल्दी आओ। यहां मैंने दो थप्पड़ खा रखे हैं। आंख में तेजाब भी डाल दिया है श्यालों ने।”
लौंडे-मोड़े हैरानी में अपने मोबाइल उलट-पलट रहे हैं, “इसका फोन कैसे लग रहा। टॉवर तो है नहीं!”
ईसा मसीह पतरौल की ओर घूमा। वह बेअंदाज फुर्ती से डगमगाते हुए टिन शेड के बगल में बहता गधेरा फलांग कर दूसरी ओर के खेत में चढ़ जाता है। जंगलात के दफ्तर में इंदराज करने वाला लड़का भीड़ में बैग लिए ऐसे खड़ा है जैसे टूरिस्ट हो जो मजमा देखकर जरा देर के लिए रुक गया है। वन दारोगा आंखें झपकाते हुए लोगों से कह रहा है, “ये विदेशी हमारे दानपुर की शान लूटकर ले जा रहे हैं और तुम लोग कुछ बोलते नहीं हो।”
लोग मुंह फेर कर दूसरी ओर देखने लगते हैं। उसकी आंखों से धाराधार आंसू बह रहे हैं, मेरी तरफ घूमता है, “आप भी तो अपने ही हुए, साथ नहीं दे रहे हो।”
“क्या करूं, मास्टर हूं। पहलवान से कुश्ती लड़ जाऊं,” मैं कहता हूं। वह दूसरी तरफ मुड़कर नया नंबर लगाने लगता है।
ईसा मसीह दो मिनट के अंदर जूते और जैकेट पहनकर तैयार है। उसके साबुत हाथ में कसकर लपेटा गया एक फूला हुआ स्लिंग बैग है जिसमें कीड़ाजड़ी और रुपए ठूंसे हुए हैं। वह मेरे कमरे के सामने पत्थर की पुश्त से खेत में कूदता है। ढलान पर नदी की ओर भागने लगता है। खिलाफ और जोहार मेरे बगल में खड़े हैं। वे जितना तेज हाथ हिलाते हैं उतने ही धीमे से कहते हैं, “गो गो!”
उसके पीछे कोई नहीं दौड़ा। अचानक शांति छा गई। बचे दो सदस्यीय गिरोह का चार्ज पहलवान ने संभाल लिया। उसने सुबह से पहली बार मेरे पास आकर पूछा, “व्हाट दे से?”
पुलिस तो नहीं आई लेकिन गांव का चौकीदार हुकुम सिंह आ गया है जिसने एक दिन मुझे रास्ते में पुलम खाने को दिए थे। बाबा रामदेव को लोग घेरे हुए हैं। वह सबसे यही कहता है, सब रामजी की कृपा से हो रहा है। वन दारोगा फिर एक बार दानपुर की शान का भाषण देता है। लोग थोड़ी दूर हटकर चिंतित होने लगते हैं- बवाल के बाद अब इधर कोई ठेकेदार नहीं आएगा। इतनी मेहनत से निकाला गया कीड़ा घर में ही खराब हो जाएगा।
इतनी देर में रूसियों के कमरे का सारा सामान बैगों में पैक किया जा चुका है। पहलवान बाहर निकल कर सबकी ओर देखते हुए कहता है, “व्हाट इज गोइंग ऑन हियर?” उसके चेहरे पर भाव है, ‘यहां क्या नचनिया नाच रही है जो भीड़ लगाए खड़े हो!”
बैग बाहर जमाने के बाद पहलवान कमरे से एक सेब, एक डायरी और पेन लेकर बाहर निकलता है। बीच रास्ते में रुककर चाकू से सेब काटता है। खाते हुए वन दारोगा के सामने घुटने पर पैड रखकर बैठ जाता है। वह आंखें इस तरह बाहर निकालता है जैसे पेंटर स्केच बनाने की शुरुआत में करते हैं। मुझे लगा, वह दारोगा का चेहरा बनाएगा लेकिन अब तक इस घटना को एक फिल्म के रूप में देखने के आदी हो चुके दिमाग में यह नहीं आता कि मोबाइल कैमरे के होते हुए इसकी क्या जरूरत है।
शायद उसकी आंखें खराब हैं और उसके पास चश्मा नहीं है। वह बड़ी मेहनत से नेमप्लेट पर लिखे अक्षरों का चित्र बनाकर उठ जाता है। दारोगा के सीने पर अंग्रेजी में लिखा नाम घिस चुका है लेकिन जात बची हुई है। चतुर्वेदी।
अंततः पहलवान आगे-पीछे अपना और ईसा मसीह का बैग लादकर निकलता है। पीछे भयभीत लेकिन चौकन्ना यूक्रेनी अपने बैग लिए उससे सटकर खड़ा है। वह जोहार को गिनकर कमरे का किराया और खाने के पैसे देता है। दोनों आंखें चुराते हुए सबको गुडलक बोलते हैं। बच्चे बाय की मुद्रा में हाथ हिलाते हुए, खुशी से कहते हैं, ‘थैंक्यू।’ पहलवान वन दारोगा से कहता है, “यू कैन फॉलो अस। वी आर गोइंग टु पुलिस स्टेशन।” उनके पीछे तत्परता से वन दारोगा, पतरौल और बैग उठाए लड़का खरकिया के उबड़-खाबड़ रास्ते लग लेते हैं।
चढ़ाई पर सीधी लाइन में चलते जुलूस को देखते हुए मैं सोच रहा हूं, इन रूसियों में एक अनजान देश के दुर्गम इलाके में पुलिस को पीटने और छकाकर भाग जाने की हिम्मत कहां से आई। मुझे याद आता है एक बार पोलैंड-जर्मनी की सीमा पर रात में कागजों की लंबी जांच और एक बार इटली के मेलपांसा एयरपोर्ट पर पासपोर्ट नकली होने के शक में डेढ़ घंटे की पुलिसिया पूछताछ के समय मैं कैसे आज्ञाकारिता की मेड इन इंडिया ऑटोमैटिक मशीन बना रहा।
मेरा ध्यान बार-बार वन दारोगा के प्रथम दर्शन पर अटक जाता है। उसने सैल्यूट किसको मारा। स्मगलरों को! उसने अपनी पिस्तौल साथ वाले लड़के से निकालने के लिए क्यों कहा! अगर उसके पास पिस्तौल नहीं थी तो भला यह कहने की क्या जरूरत थी। इन दोनों हरकतों से ईसा मसीह पक्का हो गया होगा कि वह पुलिस वाला नहीं, कोई बहुरूपिया कलाकार है जो माल और पैसा ऐंठने आया है।
मैंने जोहार से पूछा, क्या उसके पैर में कोई दिक्कत है जो सुबह पैर पटक कर चल रहा था? उसने कहा, वह इतनी देर खड़ा रह गया और इतने अच्छे से बोलता रहा। “उसने बहुत किया सर! वह तो भोर में चार बजे से ही ऊपर बैठा पीते हुए अंग्रेज को चिल्ला कर गालियां दे रहा था। जब यहां आया तो फुलटॉस था।”
शाम हो रही है। जंगल से गाय लाने वाले लड़कों और घास काटने वाली औरतों के जरिए खबरें आ रही हैं। उनका कुछ देर तक मिलान करने के बाद तय पाया गया कि अंग्रेज थोड़ी देर भागा। फिर नदी पार कर रिटंग गया। वहां से उसने एक गाइड को साथ लिया जो सुंदरढूंगा भी गया था। वह उसके साथ मल्ला गांव के पीछे का पहाड़ चढ़कर ग्वालदम की तरफ की पिंडर घाटी में उतर गया। वहां से टैक्सी लेकर गढ़वाल में रुद्रप्रयाग पहुंचा और दिल्ली की सड़क पर निकल गया। खरकिया में एक दो स्टार वाला अफसर आया जो अंग्रेजी नहीं जानता था इसलिए पहलवान से कुछ पूछ नहीं पाया। जंगलात वाले दोनों को जीप से लेकर कपकोट गए तब जाकर थोड़ी-सी अंग्रेजी बोलने वाला एक अफसर मिला। पहलवान के पास सिर्फ पचास ग्राम कीड़ा था, उसने कह दिया उसकी मां की दवाई है, कोई केस नहीं बना।
(यह किताब कीड़ाजड़ी निकालने वाले जन्मजात पर्वतारोही ग्रामीणों के जीवन को चित्रित करने के अलावा इस बिडंबना को सामने लाती है कि एक दुर्गम पहाड़ी इलाके के अल्प विकास के पीछे लोकतंत्र नहीं, दुनिया भर के संपन्न लोगों की कामपिपासा है। हिंद पॉकेट बुक्स (पेंग्विन) से प्रकाशित।
अनिल यादव एक नामवर यायावर, संवेदनशील लेखक और गंभीर पत्रकार हैं। अब तक उनकी चार किताबें प्रकाशित हैं। उनका कहानी संग्रह नगर वधुएँ अखबार नहीं पढ़तीं और उत्तर-पूर्व पर आधारित यात्रा वृतांत वह भी कोई देस है महराज काफी चर्चा में रहा है। 2018 में उनकी कथेतर किताब सोनम गुप्ता बेवफा नहीं है को “अमर उजाला शब्द सम्मान” मिल चुका है। लंबी कहानी गौसेवक लिए उन्हें “हंस कथा सम्मान” (2019) से सम्मानित किया गया। अनिल को उनके बेलीक जीवन और कथा-शिल्प के लिए जाना जाता है। नई पीढ़ी के लेखकों में संभवत: वे बिरले हैं जिन्होंने दृश्य के अंदर का ‘अदृश्य’ देखने की क्षमता अर्जित कर ली है।

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