पहाड़ी होली कैसे मनाई जाती हैं?

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पहाड़ी होली कैसे मनाई जाती हैं?

होली का पर्व हमारे देश का एक प्रमुख त्योहार है। इसको अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग तरह से इस पर्व को हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। ऐसे ही होली के त्यौहार को उत्तराखंड राज्य के कुमाऊं व गढ़वाल क्षेत्र में भी हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता हैं। जिसे पहाड़ी होली कहते हैं।

कुमाऊँनी होली –

होली त्यौहार कुमाऊं क्षेत्र के लोगों के लिए काफी महत्वपूर्ण है और उसका काफी ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्व भी है। पहाड़ों के क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिए यह काफी महत्वपूर्ण पर्व है क्योंकि इस दिन सर्दियों का अंत व बुवाई के मौसम की शुरुआत भी मानी जाती है। यह त्यौहार बसंत पंचमी के दिन शुरू होता है। कुमाऊ होली के तीन प्रकार हैं- खड़ी होली, बैठ की होली व महिला होली। इस होली के अंतर्गत सिर्फ अबीर गुलाल का टीका ही नहीं होता बल्कि बैठकी होली एवं खड़ी होली में गायन होता है। जिसके अंतर्गत लोकगीत गाने की भी शास्त्रीय परंपरा है। बसंत पंचमी के दिन घर-घर जाकर होली के गीत गाए जाते हैं वह यह उत्सव 2 माह तक हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता हैं।

कुमाऊँनी बैठकी होली –

बैठकी होली कुमाऊं के बड़े नगरों में मनाई जाती है। यह खासकर अल्मोड़ा और नैनीताल में खूब हर्षोल्लास के साथ बसंत पंचमी के दिन से शुरू होती है व इसमें गीत घर की बैठक में राग रागनीओं के साथ मनाई जाती है। लोग इस दिन मीराबाई से लेकर बहादुर शाह जफर तक की रचनाएं सुनते हैं। इसमें शामिल होती हैं मुबारक हो मंजरी फूलों भरी या ऐसी होली खेले जनाब अली जैसी ठुमरियाँ गाई जाती हैं।

कुमाऊँनी खड़ी होली –

कुमाऊँनी खड़ी होली बैठकी होली के कुछ दिनों बाद मनाई जाती है। यह होली खासकर कुमाऊं क्षेत्र के ग्रामीण क्षेत्रों में मनाई जाती है। इस दिन गांव के लोग नुकीली टोपी, कुर्ता और चूड़ीदार पजामा पहनते हैं व एक जगह मिलकर गाने गाते हैं, साथ ही ढोल दमाऊ और हुड़के की धुनों पर नाचते हैं। यह गाने कुमाऊनी भाषा में होते हैं व जो लोग यह गाने गाते हैं उन्हें होल्यार कहते हैं। कुमाऊनी खड़ी होली में हर घर पर जाकर होली के गीत गाए जाते हैं जंहा खुशियों को बांटा जाता है।

गढ़वाली होली –

गढ़वाली होली के लिए कहा जाता है कि पहले गढ़वाल में होलिकोत्सव की परम्परा नहीं थी। वहां पर कुमाऊं के समान इसका आयोजन नहीं किया जाता था। परंतु गढ़वाल अब कहीं-कहीं नागरिक क्षेत्रों में इसे मनाया जाने लगा है, किन्तु इसका रूप वैसा नहीं होता है जैसा कि कुमाऊं में है, एतदर्थ एकादशी को चीर स्तम्भ के रूप में जंगल से पैय्यां ( पदम ) वृक्ष की एक लम्बी शाखा / तने को लाकर गांव के पंचायती आंगन में गाड़ दिया जाता है। इसके बाद पौर्णमासी के दिन वहां पर एकत्र किये गये लकड़ी, झाड़ – झंकाड़ के ढेर को अग्नि को समर्पित करके छलड़ी / छरड़ी के दिन रंग खेलते हैं। होलिका दहन की राख को माथे पर लगाते हैं। ढोल, धमऊ व शंख बजाते हुए गांव की टोलियां घर – घर घूमती हैं और दूसरे गांवों में भी जाती हैं।

गढ़वाल में होली को होरी कहा जाता है, इस नृत्यगीत में ब्रजमंडल के ही गीतों का गढ़वालीकरण किया हुआ लगता है। प्रायः सभी होरी (होली) गीतों में कहीं-कहीं ही गढ़वाली शब्द मिलते हैं, शेष पदावली ब्रजभाषा या खड़ीबोली की रहती है। गढ़वाल में होली नृत्य बड़े उत्साह और नियमबद्ध तरीके से किया जाता है। वैसे गढ़वाल में दीपावली (बग्वाल) को सर्वोच्च स्थान मिला है क्योंकि समस्त गढ़वाल में ‘बग्वाल’ जिस उल्लास और निष्ठा से मनायी जाती है उतने उमंग से होली नहीं मनायी जाती फिर भी, होरी का अपना विशिष्ट स्थान है, जिसे गढ़वाल के अधिकांश भागों में बड़े कौशल और रूचि के साथ सम्पन्न किया जाता है।

होली के शुभारम्भ करने से पूर्व उस गांव के इष्टदेवता, भूमिदेवता, क्षेत्रदेवता, गणेश तथा हनुमान की भी पूजा की जाती है ताकि इस पर्व को मनाने में कोई विघ्न न पड़े।

प्रतिदिन गांव के होली के नर्तक उस स्थान पर जाते हैं, फूल चढ़ाते हैं, लकड़ियों का अम्बार लगाते जाते हैं, जब तक होली के प्रतीक उस मेहल की डाली पर पूजा नहीं होती, तब तक होली खेलने वाले कहीं भी जाकर होली नृत्यगीतों को नहीं गा सकते। होली के नर्तकों की टोली बनती है, होलिका के स्थान से टोली के नर्तक ढोलक, बांसुरी और आजकल हारमोनियम लेकर पड़ोस के गांवों में होली नृत्यगीत गाने और नाचने के लिए जाते हैं, नर्तकों के पास प्रहृलाद रूपी सफेद झंडा रहता है, जिसके नीचे बड़े प्रहृलाद के साथ वे गाते और नाचते हुए चलते हैं।

होली का नृत्य राह चलते हुए भी किया जाता है, पहाड़ी संकरे मार्गो पर नर्तक एक पंक्ति में चलकर गीत गाते है और उसी तरह नृत्य करते हैं जिस तरह घेरे में नाचते हैं, कहीं-कहीं नर्तकों की दो टोलियाँ बन जाती हैं, यह केवल स्थान पर निर्भर करता है। होली के नर्तकों को भेंट मिलती है, जब होली के गीत और नृत्य किसी घर के सामने गाये और नाचे जाते हैं तो परिवार अपनी शक्ति के अनुसार नर्तकों को रूपया या भेली देता है, जब किसी रिश्तेदार के घर पर होली नृत्य किया जाता है या रिश्तेदारी के गांव में होली नृत्य करने कोई पार्टी (टोली) जाती है, उसे पहले की प्रथा के अनुसार बकरा भेंट किया जाता है, आजकल लोग बकरे की कीमत दे देते हैं, कभी-कभी हर परिवार के घर के आगे नाचने बजाय गांव के सम्मिलित एवं पंचायती चौक में होली नृत्य नाचा जाता है, ऐसी स्थिति में नाचनेवालों को गांव की ओर से बकरा, भेली या उनके मूल्य के अनुसार रूपया देने की प्रथा है।