काफल का पेड़, जो मेरे घर के पीछे स्थित था।मैं तब छोटा था, अल्मोड़ा में, पनियाँउडार मुहल्ले में रहता था। वहीं था ये काफल का पेड़, बिल्कुल अकेला। इसका कोई भी दोस्त नहीं था। ये पेड़ यहाँ कब से था ये तो मैं नहीं जानता, परन्तु जब मैंने उसे देखा था, तब ये पेड़ युवा था, आप सोच सकतें हैं कि पेड़, वो भी युवा और वो भी अकेला, हम नही मानते,परन्तु ये सच था, वो कि पेड़ अकेला था।
मैं जब पाण्डेखोला से पनियाँउडार आया, तो मेरी उम्र तब एक-दो साल रही होगी। शुरू-शुरू तो में मैं उस पेड़ को देखकर डरता था, परन्तु जैसे-जैसे समय गुजरता गया उस पेड़ से मेरा डर कम होता गया। अब वो मेरा अच्छा दोस्त बन गया था। मैं भी अपना अधिकांश समय काफल के पेड़ के साथ ही गुजारता।
धीरे-धीरे पेड़ एवं मैं, दोनों ही बड़े होने लगे थें और साथ ही साथ प्रगाढ़ हो रही थी हमारी दोस्ती। मैं पेड़ की जड़ में पानी डालता और पेड़ ठंडी हवाओं के झोकों से अपनी खुशी का इजहार करता। मैं पेड़ों के नीचे खड़े होकर उससे घंटों तक बतियाता और वो अपनी डालियों को हिलाते हुऐ मेरी बातों का उत्तर देता। उसके पत्ते भी हिलते हुऐ मेरी बातों का उत्तर देते थे। कभी-कभी शान्त होकर मेरी बातों को बड़ी तल्लीनता से सुनता। काफल का पेड़ गर्मियों में मुझे लाल-लाल व मीठे काफल खाने को देता। जब काफल के पेड़ की डालियाँ जोर-जोर से हिल कर व पत्तियां शोर मचाती, तो मैं समझ जाता कि काफल का पेड़ मुझें बुला रहा है, और मैं भागकर पेड़ के पास जाता तो नीचे जमीन में ढेर सारे काफल गिरे पड़े होते मेरे लिऐ और मैं बड़े चाव से काफल खाता और खाते-खाते जब पेड़ को देखता तो काफल के पेड़ में आत्मसन्तुष्टी का भाव होता। थोड़ा सा बड़ा हुआ तो कद बढ़ गया था। अब मैं काफल के पेड़ की शाखाओं में चढ़कर घंटो तक पेड़ पर बैठा रहता। जाड़ों का मौसम होता काफल का पेड़ सफेद हो जाता, क्योंकि हिमपात जो हो जाता अल्मोड़ा में। हम लोगों का काम ही क्या? थाली बाहर रख देते,जब बर्फ थाली मे इक्कठा हो जाती तो हम लोग गुड़ के साथ बर्फ खाते, बर्फ के गोले बना-बना कर एक दूसरे को मारतें। लेकिन जाड़ों में कठिनाईयों से भरा हुआ जीवन-संघर्ष भी था पहाड़ो में। खैर जाड़ों के मौसम में, मुझे काफल के पेड़ की चिन्ता सताने लगती थी, खास तौर में रात के समय मुझे लगता कि पेड़ को भी ठंड लगती होगी। मैं ईजा से जिद करते हुये,” कहता ओई ईजा यों पेड़ों क जाड़ों लागड़ लागड़ों यकै काँमल या खातड़ उड़ा उनु”। पहले तो ईजा मुझे समझाती, फिर मेरे बाल सुलभ मन को सन्तुष्टी प्रदान करने के लिए मुस्कुराते हुए कुछ पिरूल इक्कठा कर पेड़ से थोड़ा सा हटकर आग जला देती और मुस्कुराते हुऐ कहती कि सित जा अब पेड़ क नी लागल जाड़। और मेरे बाल सुलभ मन को भी सन्तुष्टी मिल जाती और मैं सो जाता। सुबह उठता और पेड़ को देखता और उसे सही सलामत देख, ईजा को धन्यवाद देकर, सन्तुष्ट होता। इस तरह काफल का पेड़ एवं मेरे मध्य मित्रता का क्रम अनवरत चलता रहा।
एक दिन ऐसा भी आया जब मुझें पनियाँउडार छोड़ कर पोखरखाली आना पड़ा। अब काफल के पेड़ से मेरा मिलना यदा-कदा ही हो पाता। फिर समय ने करवट बदली मुझे अपने परिवार के साथ अल्मोड़ा छोड़, हल्द्वानी आना पड़ा। मैं जब कभी भी दोगाँव जाता और काफल देखता तो मुझे काफल का पेड़ याद आ जाता, तब मेरा मन अल्मोड़ा चला जाता। कहतें हैं ना कि ईश्वर मन की बात सुन ही लेते हैं। एक दिन अकस्मात मुझे अल्मोड़ा जानें का सौभाग्य प्राप्त हुआ और अल्मोड़ा पहुँचते ही सामान सहित पनियाँउडार पहुँचा, काफल के पेड़ से मिलने, परंतु उस जगह जाकर मुझे निराशा हाथ लगी, क्योंकि वहाँ पर काफल का पेड़ नही था। मैंने आसपास के लोगों से काफल के पेड़ के बारे मे पूछा तो वहां पर किसी को भी काफल के पेड़ की जानकारी नहीं थी। उनकी भी गलती नहीं थी। इस वर्तमान पीढ़ी के सामने तो कंकरीट का जंगल वाला विकसित अल्मोड़ा था। ये बेचारे तो सिटोली व बिंसर के जंगलों को पुरानी पिक्चर में ही देख पाते होंगें, या फिर पुरानी पीढ़ी से ही जंगलों से भरपूर खुबसूरत अल्मोड़ा के बारें में सुन पाते होंगें शायद। खैर जी मुझे एक बुजुर्ग दिखाई दिये थोड़ी ही दूरी पर। मैं उनके पास गया, और मैंने उनसे पनियाँउडार के उस स्थान पर स्थित काफल के। पेड़ के बारे में जानकारी लेनी चाही तो पहले तो वो थोड़ा सा आश्चर्य में पड़ गये फिर उन्होंने मेरा परिचय प्राप्त किया। मैंने उन्हें अपना परिचय दिया, तो वो मुझे पहचान गये असल में वो सज्जन तिवाड़ी जी थे। उन्होंने मुझे जो कुछ भी बताया वो अत्यधिक पीड़़ादायक था मेरे लिये ।उनके अनुसार, ना जाने वो काफल का पेड़ किसी के विछोह का गम बरदास्त नही कर पाया और धीरे-धीरे सूखने लगा और अंत में जो एक सुखे पेड़ की गति होती है, वही गति उसी पेड़ के साथ भी हुई। पेड़ भी बड़े परोपकारी होते हैं जीवन के साथ भी और जीवन के बाद भी ,अपना सुखा बदन के अवशेष को भी ईधन के लिये उपयोग हेतु छोड़ जाते हैं। मैं काफी देर तक उस स्थान में बैठा रहा और मेरे आँखों से आँसू छलक रहे थें,क्योंकि मैं समझ चुका था कि पेड़ मेरा विछोह सहन नही कर सका और जैसे राम के वियोग में दशरथ ने प्राण त्याग दिये थे,वैसे ही इस काफल के पेड़ ने मेरे वियोग में अपनें प्राण त्याग दिये थे। हालांकि मैं दूसरे दिन काफल का एक पौधा बाजार से लाकर, उस स्थान पर ही, उस जमीन के मालिक से अनुमति लेकर,लगा आया था। और काफल के पेड़ के साथ मेरी मित्रता और मित्रता के विछोह में काफल के पेड़ द्वारा अपने प्राण त्याग देने की बात सुन कर पनियाँउडार के लोगों ने काफल के पेड़ की देखभाल की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी। आज भी काफल के पेड़ की खबर मुझे वहां के लोग अक्सर देते रहते हैं ।
आज भी जब में काफल देखता हूँ तो मुझे याद आता है काफल का पेड़।
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