आलू की खेती
उत्तराखंड फलों और सब्जियों के उत्पादन के लिए यहां के जलवायु को उपयुक्त बताया जाता है। जिले के पहाड़ी क्षेत्रों में करीब 20 वर्ष पहले प्रारंभ की गई आलू की खेती यहां के लोगों के लिए वरदान बन गई है। इस वर्ष के मौसम को देखते हुए बंफर उत्पादन की संभावना है। इस साल करीब 1 हजार हेक्टेयर में लगभग करोड़ों रुपए के आलू के उत्पादन हो सकती है।
कभी बंजर रहने वाली जमीन अब किसानों के लिए वरदान बन गई है। थोड़ी सी मेहनत कर किसान इस जमीन पर सोना उपजाने लगे हैं। इस वर्ष भी पहाड़ी बंजर जमीन पर आलू की बंफर फसल होने के अनुमान से किसान दिन-रात मिट्टी को सोना बनाने में लगे हुए है। जिले के पाठ क्षेत्रों में ऊंचे-नीचे पहाड़ी ढलानों पर इन दिनों आलू की फसल लहलहा रही है।
खेती के लिए जलवायु
भारत के विभिन्न भागों में उचित जलवायु की उपलब्धता के अनुसार किसी न किसी प्रदेश में सालभर आलू की खेती की जाती है। लेकिन आलू की अच्छी व मौसमानुकूल पैदावार के लिए मध्यम शीत की आवश्यकता होती है। साथ ही छोटे दिनों की आवश्यकता आवश्यक होती है। देश के मैदानी भागों में रबी सीजन के दौरान शीतकाल में आलू की खेती प्रचलित है । अक्टूबर से मार्च तक लंबी रात्रि तथा चमकीले छोटे दिन आलू बनने और बढऩे के लिए अच्छे होते है। आलू की वृद्धि एवं विकास के लिए अनुकूल तापमान 15- 25 डिग्री सेल्सियस के मध्य होना चाहिए। अंकुरण के लिए लगभग 25 डिग्री सेल्सियस, संवर्धन के लिए 20 डिग्री सेल्सियस और कन्द विकास के लिए 17 से 19 डिग्री सेल्सियस तापक्रम की आवश्यकता होती है। उच्चतर तापक्रम (30 डिग्री सेल्सियस) होने पर आलू विकास की प्रक्रिया प्रभावित होती है।
आलू खेती के लिए भूमि
आलू भूमि के अंदर तैयार होते हैं इसलिए मिट्टी का भूरभूरा होना आवश्यक है। आलू की बेहतर उपज के लिए मिट्टी का पीएच मान 5.2 से 6.5 के बीच होना चाहिए। आलू को क्षारीय मृदा के अलावा सभी प्रकार के मृदाओं में उगाया जा सकता है। जीवांश युक्त रेतीली दोमट या सिल्टी दोमट भूमि इसकी खेती के लिए सर्वोत्तम मानी गई है।
खेत की तैयारी
आलू की खेती करने से पहले किसानों को अपना खेत वैज्ञानिक विधि से तैयार करना चाहिए। सामान्यत पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए। दूसरी और तीसरी जुताई देसी हल या हैरो से करनी चाहिए। यदि खेती में धेले हो तो पाटा चलाकर मिट्टी को भुरभुरा बना लेना चाहिए। बुवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है यदि खेत में नमी कि कमी हो तो खेत में पलेवा करके जुताई करनी चाहिए।
बीज का चुनाव
आलू के खेती में बीजों का चयन सबसे महत्वपूर्ण होता है। खेत की तैयारी के बाद सही बीज का चयन सबसे जरूरी काम होता है। किसानों को अच्छी गुणवत्ता के रोगमुक्त बीज का चयन करना। हालांकि आलू के बीज का आकार और उसकी उपज से लाभ का आपस मे गहरा सम्बंध है। बडे माप के बीजों से उपज तो अधिक होती है परन्तु बीज की कीमत अधिक होने से पर्याप्त लाभ नही होता। बहुत छोटे माप का बीज सस्ता मिलेगा लेकिन रोगाणुयुक्त आलू पैदा होने का खतरा बना रहता है। किसानों को अच्छे लाभ के लिए 3 से.मी. से 3.5 से.मी.आकार या 30-40 ग्राम भार के आलू को ही बीज के रूप में बोना चाहिए।
खेत में आलू बुवाई की विधि
खेत में आलू की वैज्ञानिक तरीके से बुवाई उत्पादन को बढ़ा देती है। किसानों को ध्यान रखना चाहिए कि पौधों में कम फासला नहीं रखना चाहिए। पौधों में कम फासला रखने से रोशनी, पानी और पोषक तत्वों के लिए उनमें होड़ बढ़ जाती है। इसके फलस्वपरूप छोटे माप के आलू पैदा होते हैं। अधिक फासला रखने से प्रति हैक्टेयर में जहां पौधों की संख्या कम हो जाती है, वहीं आलू का मान बढऩे से उपज घट जाती है। इसलिए किसानों को कतारों और पौधो की दूरी में उचित संतुलन बनाना चाहिए जिससे न उपज कम हो और न आलू की माप कम हो। उचित माप के बीज के लिए पंक्तियों मे 50 सेंटीमीटर का अंतराल व पौधों के बीच 20 से 25 सेमी की दूरी रखनी चाहिए।
जाने कैसे करें आलू का भंडारण
आलू की उपज बीज की किस्म, भूमि की उर्वरा शक्ति, फसल की देखभाल, सिंचाई, मौसम आदि कारकों पर निर्भर करती है। सामान्य किस्मों से 300 से 350 क्विंटल और संकर किस्मों से 350 से 600 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पैदावार मिल जाती है। पहाड़ी इलाकों में 150 से 200 क्विंटल और ऊंचे पहाड़ों में 200 क्विंटल तक उपज मिलती है। वहीं मैदानी इलाकों में एक हेक्टेयर भूमि में अगेती व मध्य मौसमी किस्मों की 200 से 250 क्विंटल और पिछेती किस्मों की 300-400 क्विंटल तक उपज मिलती है।