कुसुम दी- कितने ही युवाओं के भविष्य को स॔वारने में उन्होंने योगदान दिया

by Himanshu Pathak
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village boys

सुबह का समय था, मैं बैठक में बैठकर अखबार पढ़ रहा था और चाय की चुस्की का आनंद ले रहा था। अचानक फोन (लैंडलाइन) घनघना उठा, फोन मैनें ही उठाया

“हैलो”!

“हाँ हैलो! मैं राजू बोल रहा हूँ।”

“राजू! कौन राजू”?

“अरे दाज्यू मै अल्माड़ बटी बुलाण्यू राजेन्द्र”।

“अरे,अरे समझ ग्यू। हाँ भुला याँ सब ठीक-ठाक छन”?

“अरे, ऊ कुसुमा दी छी नी। अब नी रैइ।”

“तू य कै कुणो छ भुला? पोरू ही त बात हूण छी उनर दगण! कब भो? कसी भो यो?”

“बस दाज्यू सब ईश्वर क इच्छा”। फोन कट गया और मैं चले  गया कही अतीत में। जब पहली बार उनसे मिला था मैं।

तब मेरा बारहवी की परीक्षा का परिणाम आया था। गाँव में बारहवी से आगे की शिक्षा उपलब्ध नही थी इसलिए आगे की शिक्षा के लिए मुझे अल्मोड़ा आना पड़ा।

एक दिन मैं अल्मोड़ा के लाला बाजार  में, अकेला घर की याद में बैठ नीचे की ओर देख रहा था तभी मुझे ऐसा लगा कि कोई मुझे  पुकार रहा है, “बोबी “मैने पीछे मुड़कर देखा तो मैं चौंक गया क्योंकि सामने कुसमीदी थी सामान्य कद-काठी, गेंहुआ रंग, छोटी सी बिंदी माथे पर व करीने से बँधी हुई साड़ी हँस मुख व प्रभावशाली व्यक्तित्व। मैं उनको अचानक अपने सामने देख चौंका। “कुसुमीदी आप” और मैंने  उनको पैलाग किया। उन्होंने मुझे आशीर्वाद देते हुए पूछा।

“या क्ये करणो छे?”

“कब आछे याँ”?

उन्होंने तो मानो प्रश्नो की झड़ी की सी लगा दी। मैनें उनको बताया कि मैं यहाँ आगे की पढ़ाई के लिए आया हूँ। तो वो मुझ पर नाराज हुई कि मैं उनके वहाँ क्यों नही गया? वही रहकर ही पढ़ाई करता। कही और रहने की क्या आवश्यकता थी? आदि और वो जिद करने लगी कि अब मैं उनके ही घर से अपनी पढ़ाई को नियमित करूँ। मैं उनके मातृत्व से भरे आग्रह को टाल नही सका और चले गया उनके घर।

कुसुमी दी यूँ तो उनका नाम कुसुम था लेकिन उनका व्यवहार सब के प्रति इतना  मृदु था कि लोग उन्हें अपने पन के अधिकार से कुसुमीदी कहते थे। मातृत्व से परिर्पूण, ममतामयी, करूणामयी व सबों के सुख-दुःख में शामिल होने वाली ऐसी थी मेरी कुसुमी दी। वे अविवाहित थी। सात भाई-बहनों में सबसे छोटी, हाँ उनसे छोटा एक भाई था जिसे सब प्यार से नानु कहते थे। वैसे उनका नाम कुछ और था। यूँ तो वो घर की छोटी सदस्या थी परन्तु पूरे परिवार को साथ लेकर चलती थी। वे ना केवल सफल गृहणी थी बल्कि वैसे ही सफल महिला भी थी। गाँधी आश्रम में नौकरी करती थी।  कार्यालय में अधिकारी से लेकर चपरासी तक सबों के साथ उनका व्यवहार सदभावना पूर्ण था। किसी के साथ गलत हो उनको सहन नही होता था।और हर काम में पारंगत ऐसी थी मेरी कुसमीदी।

उनके कार्यालय में एक महिला कार्यरत थी, बड़ी मुश्किल से उनका घर चलता था, वर्षों  पहले उस महिला के पति का देहान्त हो गया था। घर में उसके सास-ससुर व दो बच्चे थे, जिनके लालन-पालन का दायित्व उसके ही कंधों पर था। एक बार वो महिला काफी परेशान लग रही थी। कुसुमी दी ने उस महिला से बात कर उसकी परेशानी का कारण पूछा तो उसने बताया कि उसको यहाँ काम करते हुए तीन साल से ज्यादा हो  गये परन्तु उसे अभी तक स्थायी नही किया गया है ,ऐसा कहकर उस महिला ने कुसुमीदी को अपनी सारी कथा बता दी । फिर क्या था? किसी के साथ गलत हो, वो कुसुमीदी को कहाँ सहन हो? उन्होंने उस महिला के लिए लम्बी कानुनी लड़ाई लड़, न  केवल उसे नौकरी  में स्थाई करवाया बल्कि पूरा वेतनमान भी दिलवाया। ऐसी थी मेरी कुसमीदी।

मैं उनके घर रहने लगा। घर वास्तव में  मन्दिर था। उनका घर और कुसुमी दी साक्षात अन्नपूर्णा थी। मेहमानों का आना जाना लगा रहता घर में रात-दिन।  परन्तु ना उनके घर में अन्न की कमी रहती थी ना ही मुस्कान की। मेरे अतिरिक्त न जाने  कितने युवाओं के भविष्य को स॔वारने में उन्होंने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था उनको अपने घर में आश्रय देकर।

उनके बारे में एक बात की चर्चा अक्सर उनके खास परिचित करते हैं जो उनका व्यक्तित्व को और महान बना देता है। उनके पड़ोस में एक परिवार रहता था जो सामान्य था। जैसा कि हमारे समाज में एक मानसिकता घर चुका है कि पुत्र प्राप्ति  बड़ा ही सौभाग्य का विषय होता है।ऐसे में उनके पड़ोसी के घर में  कन्या रत्न का जन्म हुआ बड़ी ही प्यारी बिटिया थी ,परन्तु उसका शायद ये दुर्भाग्य था कि वो पुत्री थी। जिसके होने से उसके घर के सदस्य अप्रसन्न थे।उन्होंने उसका परित्याग कर दिया था । तब वो कुसुमीदी ही थी जिन्होंने ना केवल उस परिवार के विचारों का पुरजोर विरोध किया बल्कि उसकी खुद परवरिश करने लगी ।आज वो बिटिया बड़ी हो गयी हैं और आज सरकारी विभाग में उच्च पद पर कार्यरत है। तो ऐसी थी मेरी कुसुमी दी।

मैं उनके साथ करीब पाँच साल रहा बिल्कुल अपने घर की तरह फिर मेरी शिक्षा पूर्ण होने के बाद मुझे अल्मोड़ा छोड़ना पड़ा और मैं दिल्ली चला गया। हालांकि उनसे मेरा व्यवहार नियमित बना रहा, जब कभी नौकरी से छुट्टी लेकर मैं घर जाता तो आते जाते उनके घर एक-दो दिन ठहरता जरूर और उनसे घंटो बतियाता रहता। वो भी मेरी तरक्की के बारे में सुन उत्साहित होती।

क्या कहूँ मैं कुसुमी दी के बारे में जितना कहूँ उतना कम । ऐसी थी मेरी कुसुमी दी।

और आज अचानक उनके निधन का समाचार।

अचानक मुझे मेरी श्रीमती ने पुकारा। “क्या हुआ ?” “किसका फोन था? ”

मैं कुर्सी पर निढाल हो बोला “कुसुमी दी अब नही रही।”

कमरे में अजीब सी खामोशी थी। क्योंकि दोनों ही निःशब्द थे।



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