अपने – अपने नज़रिये से तो हम शहर को देखते और बाते करते है। पर एक शहर कैसे सोचता होगा – इसकी कल्पना कर इस लेख की रचना की है। और इसके साथ ही लेख पर आधारित एक दिलचस्प वीडियो डॉक्टुमेंट्री भी तैयार की है, अगर आप देखते – सुनते हुए शहर को महसूस करना चाहते है तो पेज को नीचे को स्क्रॉल कर वीडियो भी देख सकते है।[divide]
[dropcap]मु[/dropcap]झे हल्द्वानी कहते हैं… दुनिया के मानचित्र में एक छोटा सा, और उत्तराखंड राज्य का एक बड़ा शहर। आज मैं अपनी कहानी सुनाता हूँ आपको। मेरी कहानी – यों तो किसी भी शहर की कहानी हो सकती है,
मैंने देखा है नए को पुराना होते हुए, पुराने को गुजरते और नए को आते। वैसे शहर या किसी गाँव तो बस कहानियां बनते और पीढ़ियों को बदलते देखते हैं।
गौला नदी के किनारे, जिसे आज आप शहर देखते हैं, एक समय यहाँ हल्दू वृक्षों का घना वन यानी Dense Forest हुआ करता था, और कितने ही पशुओं और पक्षियों का प्रवास, अब तो वह जंगल बस पुरानी यादो में, बुर्जुगों की बातों में, और इतिहास की किताबों में हैं। हल्दू के वन से ही मुझे नाम मिला हल्द्वानी।
ऐसा माना जाता रहा हैं कि पेड़, पौधे, जंगल और प्रकर्ति का मेल जोल – रोजगार देने वाले – उद्योगों, कारखानों, भवनों, सड़को की प्रगति में बाधक हैं, इसलिए जागरूक और समय के साथ चलने वाले – इंसान अपने बुद्धि चातुर्य (!) से – वन-सम्पदा के इस खतरनाक गिरोह को ख़त्म करते रहे, और उसकी जगह बनने लगे आरामदायक, सुविधाजनक भवन, उन तक पहुंचने के लिए पक्की सड़के, और तैयार हुए कंक्रीट, सीमेंट, लोहे, रेत और इन्सानों के जंगल।
चौड़ी पत्ती वाले – हल्दू वृक्षों के वन यानि, Haldu Forest से मुझे यह नाम ब्रिटिशकाल में मिला – हल्द्वानी। शहर के बीच अभी थोड़े दिख जाते हैं – आज भी, कुछ टूटे, कुछ अधूरे, अपनों से छूटे “हल्दु के वृक्ष“। हल्दू ट्री का बोटेनिकल नाम हैं – Haldina Cordifolia
मेरा इतिहास उतना ही पुराना हैं, जितनी कि ये धरती, कुछ पुस्तकों में दर्ज हुआ, कुछ उससे पहले का, हमेशा लेकिन इस रूप में नहीं था, जैसा आज दिखता हूँ.
14वी सदी यह जगह – कुमाऊँ साम्राज्य का हिस्सा बनी, उस समय चंद राजा – ज्ञान चंद का शासन था, बाद में मुगलों ने भी इस क्षेत्र पर अधिकार पाना चाहा लेकिन इस पहाड़ियों से लगे क्षेत्र को जीतना कठिन होने कारण उन्हें वापस लौटना पड़ा।
16वी सदी की शुरुआत में यहाँ बुक्सा जनजाति रहा करती थी, फिर नेपाल के गोरखा लोगो के प्रभाव में रही यह जगह।
1816 में यहाँ ब्रिटिशर्स ने गोरखाओं को युद्ध में हराकर – इस इलाके को अपने नियंत्रण में ले लिया। सन 1834 में, George William Trail कुमाऊँ के कमिश्नर बने, और ब्रिटिश रिकॉर्ड के अनुसार – 1834 में मेरा नाम पहले हल्दूवन और बाद मे हल्द्वानी किया गया। तब न तो “उत्तराखंड राज्य” अस्तित्व में था, ना ही “उत्तर प्रदेश” राज्य बना था।
1883–84 में बरैली से काठगोदाम रेलवे लाइन आयी, और 24 अप्रैल 1884 वो दिन था, जब पहली ट्रेन यहाँ पहुंची, वह ट्रेन लखनऊ से यहाँ के लिए चली थी।
सन 1947 में देश की आज़ादी के समय, 25000 लोग यहाँ रहते थे। धीरे – धीरे कुमाऊं और दूसरे जगहों स्थानों से लोगो ने, खेती और कृषि आधारित व्यापार के लिए यहाँ आना शुरू किया। व्यापार और आवाजाही बढ़ने से यहाँ लोगो की संख्या बड़नी शुरू हुई और यह क्रम निरंतर चलता रहा और अब भी जारी है। यहाँ रहने वाले ज्यादातर कुमाऊ क्षेत्र के हैं।
मैं हर रोज पहले दिन से कुछ ज्यादा बोझ उठाता, बेतरतीब, बेहिसाब, बेपरवाह दवाब लोग बढ़ाते, और तंज मुझ पर कसा जाता। मैंने वर्षो से पुरानी पीढ़ियों को जाते और नए को आते देखा, और उनको ये कहते देखा – यह शहर बहुत बदल गया हैं – अब वो पुरानी बात नहीं।
कभी फिर कोई पहाड़ के मुश्किल जीवन से आगे बड़, बड़ी हसरतों से इस शहर में आकर अपना एक आशियाना बनाता है।
कभी यहाँ की गलियों में खेलते/ टहलते हुए बड़ी होती जनरेशन, को आगे पढ़ने या कुछ करने की जद्दोजहद में शहर छोड़ निकल दूर जाते देखा।
कोई बरसो पहले यहाँ से गया, कोई अपना पुराना सुकून ढूढ़ने यहाँ फिर लौट के आते देखा।
कभी कोई छोड़ अपना गाँव, यहाँ आता हैं अपने सपने तलाशने, … और खो जाता हैं, शहर की भीड़ में।
मुझे कुमाऊँ के सबसे बडे शहर के रूप में भी जानते हैं लोग, मुझे कुमाऊँ का प्रवेशद्वार भी कहा जाता है। मैं देश के सभी हिस्सों से रोड्स, रेलवे से वेल कनेक्टेड हूँ, और पंतनगर हवाई अड्डे से कुछ २६-२७ किलोमीटर की दुरी पर हूँ।
पढ़ने / पढ़ाने के लिए, यहाँ कई राजकीय और निजी शिक्षण संसथान हैं। एंटरटेनमेंट के लिए मल्टीप्लेक्स के साथ, कुछ दशकों पहले शुरू हुए सिनेमाघर भी हैं।
मेडिकल सुविधाओं के लिए हैं, कई बड़े सरकारी चिकित्सालय और बहुत से प्राइवेट मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पिटल।
कालाढुंगी चौराहा, शहर का केंद्र माना जाता है। यहाँ चार मुख्य सड़कें मिलती हैं, जो शहर को देश के अन्य हिस्सों से कनेक्ट करती हैं, ये रोड्स हैं नैनीताल रोड, बरेली रोड, कालाढूंगी रोड और रामपुर रोड। और ये सब रोड्स मिलती हैं, कालाढुंगी चौराहे पर कालू सिद्ध मंदिर के समीप, ये जगह शहर का केंद्र मानी जाती है।
कालाढूंगी चौराहे के पास यहाँ की सबसे बड़ी बाजार हैं। इस बाजार में कई गलियां हैं, कपडे, ज्वेलेरी, बर्तन, इलेक्ट्रॉनिक्स और लभभग हर तरह दुकानें और विभिन्न मार्किट में दुकानों तक पहुंचने के लिए गलीनुमा रास्ते।
कार/ ऑटोमोबाइल कम्पनीज के ज्यादातर शोरूम बरैली रोड और रामपुर रोड में हैं।
नैनीताल रोड – बड़े शोरूम्स, माल्स आदि के लिए जानी जाती हैं।
कालाढुंगी रोड मे सबसे घनी आबादी है।
इसके अलावा इन रोड्स के बीच मे कई कोननेकटिंग रोड्स हैं, जो लेकर जाती हैं – शहर के मोहल्लों और गलियों में।
शहर का एक हिस्सा गौला नदी के दूसरी ओर भी तेजी से विस्तार लेता जा रहा हैं, जिसे गौलापार हल्द्वानी कहा जाता हैं, यहाँ एक अंतर्राष्ट्रीय स्टेडियम हैं, और चिड़ियाघर (Zoo), हवाई अड्डा (Airport) और अंतरराज्यीय बस अड्डा प्रस्तावित है।
मैं यहाँ बिना किसी भेदभाव, ऊंच नीच, के सभी के साथ सामान भाव से रहता हूँ, जैसे ठीक मुझमें रहने वाले भी, सर्व धर्म सम भाव के साथ, जो देश के लगभग सभी प्रांतो, धर्मो और जातियों के लोग हैं। जो यहाँ एक – दूसरे के साथ प्रेम और सद्भाव से रहते आये हैं।
2011 जनगणना के अनुसार यहाँ तक़रीबन 1.56 लाख लोग रह रहे थे, करोडो लोग लोग मुझसे कभी न कभी गुजरे होंगे या कुछ पल यहाँ बिताये होंगे। मुझे सुनने के लिए,और अपने – अपने वक्त पर मेरे साथ चलने के लिए आप सब का आभार।
कहानी मेरी, देखनी हो थोड़ा, जो निकालिये फुर्सत से कुछ साल।
बदलते देखा मैंने, कितनी सल्तनतों को, और गुजरे कितने काल।
इस लेख पर आधारित विडियो देखें। ?
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बहुत सुन्दर तथा ग्यान वर्धक……