पहाड़ी लोकगीत : पहाड़ी परम्पराओं का समग्र परिचय

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लोक संस्कृति यानि किसी क्षेत्र विशेष के समाजों का समग्र परिचय। इससे लोगों का आपसी व्यव्हार परम्परा खेती किसानी के तोर-तरीके खान-पान, बोली, तीज त्यौहार ,संस्कार,परम्पराओ की स्पष्ट झलक मिलती है। पहाड़ो पर विभिन्न सांस्कृतिक मौकों पर गए जाने वाले लोकगीतों को सुने और समझे बगैर यहां की संस्कृति को नहीं समझा जा सकता है। अक्सर जंगलो से गुजरते पहाड़ी जथो के बीच गुनगुनाये जाने वाले यो डाली नी काटा दीदी या फिर नी काटो नी काटो हरयाली बांज , बंज्याड़ी धुरो ठंडो पाणी , जैसे  गीतों को सुनकर अंदाजा लगाया जा सकता है की यहां उल्लास ही नहीं , बल्कि दर्द को बयां करने का भी साधन है, लोकगीत। गीत गाकर जहाँ के लोग कटते जंगलो के प्रति अपना  दर्द जाहिर करते है।

पहाड़ों पर गाये जाने वाले विभिन्न प्रकार के गीत –

न्योली – विरह , बिछोह के मिले जुले स्वरों से बनी न्योली। न वाद्य न यंत्र न किसी आयोजन की जरुरत। कोई सुने या न सुने , दर्शक दीर्घा से भरी कतारे भी नहीं चाहिए। ताली की गडग़ड़ाहट की भी मोहताज नहीं है न्योली। बैशाख में किसी ग्वाले से ,घास काटती किसी घसियारिन से। कहि भी कभी भी सुनी जा सकती है न्योली।

                               मोकूं  भोटिया  घोड़ों  दूब  लागो  चरना ,

                              तू पुरबा में पश्चिमा धो है गो छो मिलना। 

न्योली से निकले बिछोह और वेदना के स्वर किसी भी राहगीर को रोकने में सक्षम है।

छपेली – हुड़का और बिन बाजे के साथ गया जाने वाला गीत। एक मुख्य गीत और बीच -बीच में कई तरह के जोड़ (तुकबंदी) गीत  का दोहराव भी होता रहता है। जोड़ बदले जाते है।

                               रूम झूमा जोग्याड़ा तीले धारों बोला, 

                              म्यर भिना मोहना तीले धारो बोला। 

उल्लास और ख़ुशी का भाव प्रकट करती छपेली में प्रेम प्रसंग व सौंदर्य का वर्णन सुनने को मिलता है।

झोड़ा – रंगोड़ – दारुण पट्टी में झोड़ा कहते है तो चम्पावत में चांचरी। नाम अलग अलग हो सकते है , पर भाव तो एक सा है।  इसे होले होले गाते है। शास्त्रीय अंदाज है झोड़ा गायन का।  बारात मेलों होली में झोड़े गाने का रिवाज है महिलाएँ गोल घेरे में हाथ से हाथ की मजबूत पकड़ बना झुककर ठेठ कुमाउँनी लटेक के साथ गाती है झोड़ा। घेरे के बीच एक गायक हुड़का बजाता हुआ , झोड़े की पंक्तियों का ऊँची आवाज में दोहराव भी करता है।  महिलाओ के साथ पुरुष भी गाते है।

                              हिमुली हियु पड़ो हिमाला ,डाना ठण्ड लागौलो कस ,

                               मोहना त्यर दगड़ा मिलें ऊंछी भल मानीलो कस। 

चैती गीत – ऋतु सुनाने और चेती गाकर मंगल कामना व्यक्त करने वाले खास वर्ग को ‘बादी’ कहते है। नाचना गाना और बजन इनका पेशा होता था। यह गेट रहे और लोक संगीत पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों तक पहुँचता रहा। अब चेती सुनाने और सुनने का रिवाज यहां के ठेठ पहाड़ी गाँवों में ही बचा है। चेत के महीने में ही भाई-बहम का त्यौहार ‘भिटोली’ मनाया जाता है। इसमें भाई अपनी बहन के ससुराल उसी भिटोली (उपहार) देने जाता है।

                   ओ रुण -भुण दिन आयो लागो चैत म्हणा, 

                        बाजणो ढोल लागो यो पधान आँगणा ,

                       ओ रंगीलो बसंत ऐगो यो  लाडिलो चैता। …………

बैर – शास्त्रार्थ करने का अपना तरीका। यहां संस्कृत के भारी श्लोको को गाकर भी शास्त्रार्थ किया जाता है। बैर गायकी मेलो में अधिक होती है। दो दल आमने-सामने बैठते है। एक सवाल करता है दूसरा दल जवाब देता है। सवाल जवाब दोनों ही गायन शैली में होते है।

हुड़की बौल – खेती से जुडी गायन शैली और संगीतात्मक विधा – हुड़की बौल। कभी किसी परिवार का काम पिछड़ जाए , तो सब लोग उसके खेत में इकट्ठा होकर हुड़की बौल लगाते है ,ताकि सब एक साथ मिलकर चल सकें। जिस किसी की भी खेती का काम पिछड़ जाता है , वहां जाकर गाँव की अन्य महिला पुरुष जाकर रोपाई गुड़ाई का काम करते है।


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