स्वामी जी ने ऐसे पढ़ी एक जर्मन फिलोसोफर की किताब

by Mukesh Kabadwal
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[dropcap]स्वामी[/dropcap] विवेकानंद एक योगी थे, एक बार वह 1893 में अमेरिका की यात्रा पर गए थे। जब वह यात्रा के अंतिम दिनों में भारत लौटने वाले थे, तब वहा के एक महान दार्शनिक और विद्वान पॉल जैकब ड्यूसेन  ने उन्हें रात्रि भोज पर बुलाया था। स्वामी उनके घर पहुंचे और भोज के बाद जैकब ड्यूसेन के अध्यन कक्ष में गए, उस कमरे में बहुत सारी किताबे थी। स्वामी जी स्टडी टेबल की ओर जाकर वहां रखी कुर्सी पर बैठ गए और टेबल पर पड़ी एक 700 पेज की किताब को देखने लगे, तभी वहां जैकब ड्यूसेन भी आ गए  और स्वामी जी से बोले यह किताब वह पिछले एक हफ्ते से पढ़ रहे है,लेकिन उन्हें इस किताब का कुछ भी समझ नहीं आ रहा है।

स्वामी जी ने कहा एक बार वो यह किताब देखना चाहते है।

जैकब ड्यूसेन ने कहा – यह किताब जर्मन भाषा में है। आपको ये भाषा आती भी नहीं, आप इसे कैसे पढ़ पायंगे, आपके पास इतना समय भी नहीं है।

स्वामी जी बोले  – आप ये किताब दीजिये तो हम अभी आपको इसका सार बतायंगे (जैकब ड्यूसेन ने किताब स्वामी जी को दी )

स्वामी जी किताब को बंद करके हाथो के बीच रखकर ध्यान मुद्रा में एक घंटे तक बैठ गए, एक घंटे बाद स्वामी जी फिलोसोफर को बोले इस किताब में ऐसा खास कुछ भी नहीं है। फिलोसोफर सोचने लगा ये व्यक्ति बहुत घमंडी लगता है जो किताब में इतने दिन में नहीं समझ पाया ये उसे एक घंटे में समझने की बात करता है।

जैकब ड्यूसेन  स्वामी जी से किताब लेकर हर एक पृष्ठ से पूछने लगा, स्वामी जी ने उसके हर एक सवाल का विस्तृत उतर दिया, फिलोसोफर स्वामी जी को देखकर काफी आश्चर्यचकित हो गया। उनसे बोला ये कैसे हो सकता है आपको जो भाषा आती नहीं वो किताब भी आपको बिना पढ़े समझ आ गयी मुझे यकीन नहीं होता ।

स्वामी जी बोले – इसीलिए आपको जैकब ड्यूसेन और मुझे विवेकानंद कहते है। (स्वामी जी ने विनोद करते हुए कहा )

उन्होने पॉल ड्यूसेन को ब्रह्मचर्य, त्याग और संयम के पालन से मिलने वाली शक्ति के बारे में बताया और कहा कि यदि मनुष्य एक संयमित जीवन जिये तो उसके मन की मेधा, स्मरण और अन्य शक्तियाँ जागृत हो सकती हैं। बाद में पॉल ड्यूसेन ने सनातन संस्कृति अपना कर अपना नाम देव-सेन रख लिया था।

आजकल दिन-प्रतिदिन नई पीढ़ी और युवावर्ग जाने-अनजाने में विदेशी रहन सहन और पाश्चात विचारों को अंधाधुंध अपनाती जा रही है। इतना ही नहीं उन्हे ऐसा करने में प्रतिष्ठा नजर आती है। भले ही वो रहन-सहन हमारे शरीर और मानसिक स्वस्थ्य के लिए हानिकारक ही क्यों न हो।

हमारी युवा पीढ़ी इस बात को भूल सी गयी है कि भारत की संस्कृति, परंपरा और अध्यात्म में जीवन के ऐसे बहुमूल्य अनुभव छुपे हैं जो किसी अन्य देश अथवा संस्कृति के पास नहीं हैं। मन की एकाग्रता, संयम, और त्याग से प्राप्त होने वाली उपलब्धियों के विषय में उनकी कोई इच्छा नहीं है।

किन्तु बार-बार हमारे देश के महान दार्शनिकों और योगियों के ज्ञान और श्रेष्ठता से पश्चिमी देशों के लोग अत्यंत प्रभावित हुए हैं और उन्हे भी यह मानना पड़ा है कि भारतीय जीवन शैली और वैदिक ज्ञान श्रेष्ठ है।

स्वामी विवेकानंद का जीवन हमें निर्भीक, साहसी, संयमी और परिश्रमी बनने की शिक्षा देता है। एक ओर वेदान्त, ब्रह्मसूत्र और गीता जैसे ग्रंथ ज्ञान-विज्ञान के उच्चतम अनुभवों की शिक्षा देते हैं तो दूसरी ओर हमारे अन्य ग्रंथ दैनिक जीवन को मर्यादित और अनुशासित जीने की सलाह देते हैं।

ईशोपनिषद में भी कहा गया है:

ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।

अर्थात: इस ब्रह्मांड के भीतर की प्रत्येक जड़ अथवा चेतन वस्तु भगवान् द्वारा नियंत्रित है और उन्हीं की संपत्ति है । अतएव मनुष्य को चाहिये कि अपने लिए केवल उन्हीं वस्तुओं को स्वीकार करे जो उसके लिए आवश्यक हैं, और जो उसके भाग के रूप में नियत कर दी गयी हैं । मनुष्य को यह भलीभांति जानते हुए कि अन्य वस्तुएं किसकी हैं, उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए।

 


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