पिथौरागढ़ में मिशनरी का इतिहास

by Deepak Joshi
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History of Missionary in Pithoragarh

एक सौ पचास साल हो चुके हैं जब पिथौरागढ़ के सिलथाम में एक प्राथमिक स्कूल खुला था और उसमें सिर्फ एक बच्ची का प्रवेश हुआ था. लड़कियों की पढ़ाई लिखाई की यह शुरुवात थी.एक ऐसी लहर जो सोर घाटी में धीमे धीमे फैलती गई और फिर दूसरी कई लहरों के साथ तरंग बन गई. ये सिलसिला 1870 से शुरू हुआ.पिथौरागढ़ से दूरस्थ, सीमांत कठिन पहुँच वाली हरी भरी धरती पर जिसने एक नई शुरुवात की जागरूक किया, चेतना जगाई. एक ऐसा प्रयास हुआ जो लोगों की भावनाओं से जुड़ उनकी कल्पनाओं को साकार करने की पहल बना, पहचान बना.

यह सोर घाटी का पहला मिशनरी प्रयास था जो लिखाई पढ़ाई कला साहित्य विज्ञान के नये झरोखे खोलता गया.सबसे पहले एक स्कूल का खुलना जिसमें अगले ही साल लड़कों और लड़कियों के लिए कक्षा एक और कक्षा दो शुरू कर दी गईं.फिर यह फैलाव निरन्तर होता रहा और शिक्षा की उत्प्रेरक वह संस्था अस्तित्व में आई जिसे एल. डब्लू. एस. कन्या इंटर कॉलेज भाटकोट के नाम से जाना जाता है.

पहले के दो सालों में कक्षा दो के बाद लड़कों को आगे पढ़ने के लिए “पेटर्सन स्कूल ” में भेजा जाने लगा.जहां कक्षा तीन से पांच तक की पढ़ाई होने लगी. इसे बाद में मिशन इंटर कॉलेज कहा गया.उसके बाद लड़कों के लिए हॉस्टल भी बना.

आगे की सोच भी साफ और स्पष्ट थी.आगे पढ़ने के लिए अल्मोड़े का रामजे इंटर कॉलेज लड़कों के लिए था तो लड़कियों के लिए एडम्स कन्या इंटर कॉलेज. द्वाराहाट में भी लड़कों और लड़कियों के लिए प्राथमिक स्कूल खुल चुके थे. इन सबके पीछे मिशनरी सोच थी.पिथौरागढ़ में लड़कियों की पहली पाठशाला और महिलाओं के लिए लिखने पढ़ने के दरवाजे खोलने वाला यह केंद्र एल. डब्लू. एस. कन्या इंटर कॉलेज के नाम से जाना गया जो 1871 से मिस बहन अमेरिकन मिशनरी के अधीन कार्यरत हुआ. 1872 से मिस्टर ग्रे के प्रयासों से मिशन बॉयज स्कूल बनाया गया. सन 1935 में ए. वी. स्कूल, भाटकोट जूनियर हाई स्कूल तक उच्चीकृत हो गया तो 1965 में हाई स्कूल बन गया.1985 में यह इंटर कॉलेज हो गया.

पिथौरागढ़ में मिशन संस्था का केंद्र बना भाटकोट. जहां मिशनरी अपने साथ लाये लोक कल्याण का त्रि आयामी सूत्र. इसमें स्कूल और अनाथालय, विधवा आश्रम, डिस्पेंसरी और अस्पताल मुख्य कार्यकारी चर रहे. भाटकोट में अस्पताल और डिस्पेंसरी खोली गई जिसमें पहले पहल एक डॉक्टर, नर्स और कम्पाउण्डर नियुक्त किए गये. धीरे-धीरे पिथौरागढ़ के सुदूरवर्ती इलाकों से भी यहाँ मरीज आने लगे. मरीजों को निःशुल्क उपचार, दवा और भोजन मिलता था. समय समय पर थलकेदार, हिमपानी चंडाक, थल, देवलथल, गंगोलीहाट, झूलाघाट, पुगोर, मिलम व भोट में चिकित्सा शिविर लगाए जाते.

हिमपानी चंडाक में अपनी जमीन, कोठी तथा चारों ओर का जंगल  मिस मकोटनी और मिस्टर सी. एस. ख़याली ने बाद में डॉ चंद को दे दिया. डॉ चंद ने वहाँ एक छोटा अस्पताल बनाया जिसमें मामूली फीस पर वह सेवा भाव से इलाज करते थे. चंडाक के विस्तृत इलाके के गांवों से जो मरीज पिथौरागढ़ न जा पाते उनके लिए बेहतर सुविधा डॉ चंद के अस्पताल में मिलने लगी. डॉ चंद बहुत सरल दूसरों की मदद को हर समय तैयार रहने वाले व्यक्ति थे. उनकी योग्यता, ज्ञान और सेवा भावना को देख मिशन ने हिमपानी में उन्हें अस्पताल बनाने की भूमि व भवन दिया जिसका आभार डॉ चंद आजीवन मरीजों को स्वस्थ कर चुकाते रहे.

मिशनरी यहाँ की सुन्दर पहाड़ियों के सौंदर्य से अभिभूत थे तो यहाँ के निवासियों के कष्ट देख इसके समाधान की ओर हमेशा अग्रसर. वह नेपाल और तिब्बत की सीमा तक घूमे और उन्होंने पाया कि यहाँ बहुतों को कोढ़ है.पादरी खीड़क ने इसके निवारण के लिए पिथौरागढ़ शहर की ऊँची चोटी चंडाक में एक कोलोनी ही बसा डाली जिसका नाम उन्होंने “बैतेल” रखा.

सन 1891 में बैतेल अस्पताल का प्रबंध लेप्रोसी मिशन ने अपने हाथों में ले लिया. यह ऐसा संयोग था कि प्रभु कृपा से मिस मैरी रीड इस अस्पताल की पहली अधीक्षक बन कर आईं तो प्रकृति ने अपना वरद हस्त उनके सर माथे रख दिया. मिस मैरी ने यहाँ समीप की जमीन खरीदी और उसमें देवदार की असंख्य पौंध लगा दी. वह जितने भी मरीज पता लगते, उन्हें यहाँ लातीं और उन्हें अस्पताल में भरती करतीं. उनके रहने को कमरे थे. उनके खान पान की पूरी व्यवस्था की गई. इन असहाय निराश्रित लोगों को जिन्हें उनके घर परिवार और समाज ने कोढ़ी कह दुत्कार दिया था अब अपनी बहन अपनी माँ अपनी सगी सब कुछ मैरी रीड के हाथ दवा लगवाते खाना खाते. वह अब निठल्ले और किसी के ऊपर बोझ भी न थे. वह यहाँ रहते कई हुनर सीख गये. आत्म निर्भर बन गये. मिस मैरी रीड चंडाक में सन 1891 से 1943 तक रहीं और कुष्ट रोगियों की सेवा करते करते तिरानवे वर्ष की आयु में चंडाक में ही उन्होंने सदगति पाई. उनकी अंतिम इच्छा थी कि यहीं उनकी क़ब्र बने और उस पर अंकित हो

 

Mary Reed Friend Of The Lepers

प्राथमिक स्कूल के साथ ही भाटकोट के विस्तृत मिशनरी इलाके में एक अनाथालय स्थापित किया गया था. मैरी रीड ने इस अनाथालय को रोगी मरीजों के निराश्रित बच्चों के लिए खोला. जब वह बच्चे तीन साल के हो जाते तब उन्हें इसी परिसर में बने लूसी सलेवन कन्या एंग्लो वर्नाकुलर स्कूल के हॉस्टल में भरती कर दिया जाता था. उनकी पढ़ाई लिखाई का पूरा ध्यान रखा जाता था.तब कक्षा पांच के बाद की पढ़ाई मिशन बॉयज स्कूल में होती थी.लड़कियां जब दर्जा आठ पास कर लेतीं थीं तब उन्हें जे. टी. सी. टीचर ट्रेनिंग, नर्सिंग प्रशिक्षण या आगे की पढ़ाई के लिए मिशन द्वारा स्थापित बाहर के संस्थानों में भेजा जाता था. भाटकोट में एक अस्पताल भी खोला गया था.गरीब बच्चों के लिए हॉस्टल भी था. लड़कियों को समुचित पढ़ाने लिखाने के साथ मिशन ने अनेक कन्याओं का विवाह भी करवाया. प्रायः अधिकांश विद्यार्थी मिशनरी संस्थाओं और सरकारी कार्यालयों में नौकरी में भी लगे.

आज जहां एल डब्ल्यू एस गर्ल्स इंटर कॉलेज है वहाँ के परिसर में पहले विधवा आश्रम भी बनाया गया था. इसमें सौ के करीब निराश्रित महिलाओं के रहने व सभी आधारभूत सुविधाओं के इंतज़ाम थे. कई महिलाओं के साथ उनके बच्चे भी थे. आत्मनिर्भर बनाने के लिए उन्हें खेती बाड़ी और दुग्ध व्यवसाय से संलग्न किया गया. इसके साथ ही उनकी पढ़ाई लिखाई, पोषण, स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखा जाता था और सिलाई बुनाई भी सिखाई जाती थी. डब्ल्यू.एस.सी.एस. संस्था ने पिथौरागढ़ के गावों में निराश्रित महिलाओं को साक्षरता, स्वास्थ्य, चिकित्सा, औषधि के साथ प्रसूति व स्वास्थ्य सम्बन्धी ट्रेनिंग प्रदान करी.आश्रम और अनाथालय के जो बच्चे पढ़ाई व हुनर में आगे रहते उन्हें मिशनरियों द्वारा वजीफे और अन्य सुविधाएं भी दी गईं. इन सब सेवाओं की बदौलत इन बच्चों में कइयों ने अपना भविष्य संवारा. अध्यापक, नर्स, डॉक्टर, सेना के उच्च पदों को हासिल किया. इन्हीं निराश्रित बच्चों में राजा रॉय सिंह भी था जो अपनी लगन से जापान में भारत का राजदूत रहे .

 

मद्रास से आए एक युवा लारा बेकर और उनकी डॉक्टर पत्नी को सोर घाटी ऐसी पसंद आई कि चंडाक से भी आगे के छेड़ा गाँव में उन्होंने एक छोटा चिकित्सालय खोल दिया.पहले इलाज के लिए गाँव वाले बहुत भटकते, उन्हें दूर जाना पड़ता और इलाज के लिए पैसा भी न होता. यातायात का अभाव था आने जाने की परेशानी जिससे मरीजों की हालत बिगड़ती चली जाती. बेकर दंपत्ति ने यह सारे मसले देखे और इसके समाधान के लिए चंडाक में “बेकर स्पॉट” पर कुछ शय्याओं का हॉस्पिटल खोल डाला और आवासीय भवन भी बनाया.यहां वह 1960 तक रहे. श्रीमती बेकर बहुत अच्छी सर्जन भी थीं. स्थानीय बुजुर्ग भावुक हो बताते हैं कि इनके हाथ में तो जस था.

पिथौरागढ़ जब जिला बना तब सरकारी नियमों के कारण विवश हो कर बेकर दंपत्ति को पिथौरागढ़ छोड़ना पड़ा. स्थानीय जनता ने उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की पर सरकार के स्थान छोड़ो अभियान से उनका पिथौरागढ़ रुक पाना संभव ही न हुआ. बेकर दंपत्ति ने स्थानीय जनता को कई असाध्य बीमारियों से बचाया था. यहाँ के बच्चों को पढ़ा लिखा कर आत्मनिर्भर बनाने में अपना प्रभावी योगदान दिया था. श्रीमती बेकर एक कुशल डॉक्टर होने के साथ ही महिलाओं की समस्याओं को समझ उनके समाधान का हर संभव प्रयास करने में संलग्न रहीं. वहीं लारी बेकर ऐसे वास्तु शिल्पी थे जिन्होंने निम्न और मध्यम आय वर्ग के लिए किफायती मकानों के डिज़ाइन तैयार किए. भारत सरकार ने इसके लिए उन्हें सम्मानित भी किया.

पिथौरागढ़ में आज जहां ऑफिसर्स कोलोनी है उसे जामिर खेत के नाम से जाना जाता था. यह भू भाग मिशन संस्था की थी.1960 में जिलाधिकारी के अनुरोध पर जिला कार्यालय के विस्तार के लिए मिशन ने यह जमीन सरकार को दे दी.इसके साथ ही डी. जी. बी. आर और एस. एस बी के लिए भी मिशन द्वारा भूमि दी गई. पिथौरागढ़ की पेय जल व्यवस्था के लिए मिशन इंटर कॉलेज और बालिका स्कूल के पास टैंक निर्माण के साथ ही पाइप लाइन बिछाने के लिए मिशन ने भूमि व्यवस्था की. जिला अस्पताल के चिकित्सकों के लिए आवासीय भवन बनाने के लिए इनके द्वारा जो भूमि दी गई वह मिशन बॉयज स्कूल की थी.

भाटकोट मिशन का अपना ग्राम रहा जिसका रेवेन्यू संस्था के द्वारा दिया जाता रहा. यहाँ निर्धन ईसाई समुदाय को आवास हेतु जमीन दे बसाया गया. स्थानीय श्री सरस्वती देव सिंह स्कूल के विस्तार हेतु भी तत्कालीन प्राचार्य सर बी. सी. ग्रीन वल्ड ने भूमि दी. स्थानीय इंदिरा चौक और उससे जुड़ी सड़क को चौड़ा करने के लिए मिशन द्वारा भूमि दी गई जिससे स्थल सुन्दरीकरण संभव बना. पर टनकपुर -तवाघाट मोटर मार्ग को चौड़ा करते समय किए गये डायनामाइट के विस्फोटों से स्थानीय चर्च की दीवारों में जब भारी दरारें पड़ीं तो एक सौ पचीस साल पुरानी इस ईमारत को बचाने की कोई प्रभावी पहल नहीं की गई.



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