प्रथम पर्यावरण मित्र गोरा देवी

0
126

पेड़-पोंधो के बीन जीवन असंभव है और इसी की वजह से हम सभी जीव- जीवित हैं, और पर्यावरण पर ही निर्भर हैं लेकिन भविष्य की अंधी होड़ में कुछ लालची मानव भविष्य की चिंता न करते हुए अपने निजी स्वार्थ के लिए पेड़ पोंधो को अँधा धुंध काटने में लगे हुए हैं, जिससे इको सिस्टम बिगड़ गया है और आये दिन उत्तराखंड में हमें प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है, जैसे भूस्खलन, बाढ़, भूकंप, जल संकट इत्यादि। पेड़ पौधों को बचाने के लिए समय- समय में कई आंदोलन भी हुए, उनमे से एक था, सन 1947 का चिपको आंदोलन।
चिपको आंदोलन की नायिका गोरा देवी और 21 अन्य महिलाएं भी थी, जिन्होंने अपने साहस और दृढ़ निस्चय से जंगलों से पेड़ों को काटने से रोका।
आईये कुछ रोचक तथ्ये उनके बारे में जाने

गोरा देवी जी का जन्म सन 1925 में चमोली जिले के लाटा गाँव में श्री नारायण सिंह के घर में हुआ, इन्होंने कक्षा 5वीं तक की शिक्षा अपने गांव में ही प्राप्त की, गोरा देवी की मात्र 11 वर्ष कि आयु में ही शादी मेहरबान सिंह के साथ कर दी गयी। जो पास के ही गांव ऋणी के निवासी थे, जो एक किसान थे और भेड़ों को पालते और उनके ऊँन का व्यपार करते थे। शादी के 10 वर्ष बाद मेहरबान सिंह की मृत्यु हो जाने के पश्च्यात गोरा देवी जी के कन्धों में ही बच्चों के लालन – पालन वृद्ध सास ससुर की सेवा और खेती बाड़ी करने की सारी जिम्मेदारियां थी, जिसमे उन्हें बहुत समस्याओं का सामना भी करना पड़ा। इन परस्थितियों ने उन्हें काफी सहनशील और परिश्रमी बना दिया। इसी बीच सन 1970 में अलकनंदा में प्रलयकारी बाढ़ आयी, जिससे यहाँ के लोगों का जीवन अस्त वयस्त हो गया, जिसके कारण गोरा देवी जी ने वहाँ की महिला मंडल की अध्यक्ष बना दिया, जहाँ से शुरू होती है चिपको आंदोलन की कहानी।
चिपको आंदोलन 23 मार्च 1974 को पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए शुरू हुआ था, यह आंदोलन तब प्रारम्भ हुआ, जब उत्तराखंड के ऋणी के 2500 पेड़ों को काटने की नीलामी शुरू हुई थी।  गोरा देवी और अन्य 21 महिलाओं सहित इस नीलामी का विरोध किया गया था परन्तु इनके विरोध के पश्च्यात भी सरकार और ठेकेदार के निर्णय में कोई परिवर्तन नहीं आया, ठेकेदार के आदमी जब पेड़ काटने पहुँचे तो गोरा देवी और उनके अन्य 21 साथियों ने उनको समझने की कोशिश की, लेकिन जब ठेकेदार के आदमियों ने पेड़ काटने की जिद की तो महिलाओं ने पेड़ों से चिपक कर उनको ललकारा और कहा “भाइयों ये जंगल हमारा माइका है, इससे हमने जड़ी- बूटी, फल, सब्जी और लकड़ी मिलती है जंगल काटोगे तो बाढ़ आएगी और हमारे बगड़ (घर) बह जायेंगे, इन पेड़ों को काटने से पहले हमें काटना होगा” अंततः ठेकेदार को उनसे हार मानकर जाना पड़ा।

women clung to the tree

इसके बाद महिलाओं ने अपने क्षेत्र के वन विभाग के अधिक्कारी के सामने अपनी बात रखी और ऋणी गाँव के जंगल को नहीं काटा गया और यहीँ से चिपको आंदोलन की शुरआत हुई। इस प्रकार से पर्यावरण के प्रति अपार प्रेम का प्रदर्शन करने और उनकी रक्षा के लिए अपनी जान को खतरे में डाल कर गोरा देवी जी ने जो साहस भरा कार्य किया, उसके लिए उनको चिपको वीमेन के नाम से सम्बोधित किया गया “ गोरा देवी पेड़ों के कटान को रोकने के साथ ही वृक्षारोपण के कार्यों में भी जुटी रही, उन्होंने नारी उत्थान और समाज को जागरूख करने का काम भी किया ” सन 1986 में चिपको आंदोलन के लिए उन्हें प्रथम वृक्ष मित्र का पुरस्कार भी प्रदान किया गया इस महान नारी का निधन 4 जुलाई 1991 में हुआ।
हालंकि आज गोरा देवी संसार में नहीं है, लेकिन उत्तराखंड के हर व्यक्ति और महिला में वह अपने साहसी कार्य और विचारों से विद्यमान हैं, दोस्तों आज फिर हम इसी समस्या से झुंझ रहे हैं और आज फिर हमें वृक्षारोपण की आवश्यकता है, जिससे हम ग्लोबलवार्मिंग को रोक सकें।


उत्तरापीडिया के अपडेट पाने के लिए फ़ेसबुक पेज से जुड़ें।