मां नंदा-सुनंदा लौटी अपने ससुराल, भक्तों ने दी माता को अश्रुपूर्ण विदाई।
नैनीताल। कुमाऊं में कुलदेवी के रूप में पूजी जाने वाली मां नंद-सुनंदा अष्टमी के दिन अपने ससुराल से अपने मायके यानी कुमाऊं की धरती पर पधारी थी। 28 अगस्त शुक्रवार यानि दशमी को मां नंदा-सुनंदा फिर से अपने ससुराल को वापस लौट गए।

बाद में अतृप्त आत्माओं के रूप में दोनों बहनों ने चंद् राजा को मां नंदा देवी मंदिर स्थापित कर पूजा अर्चना करने को कहा। ताकि उनकी आत्मा को शांति मिल सके। तभी से मां नंदा-सुनंदा की पूजा-अर्चना होने लगी। धीरे-धीरे पूरी देवभूमि (कुमाऊं) में कई जगहों पर भव्य महोत्सवों का आयोजन होने लगा।
चन्द्र वंश के शासन काल से अल्मोड़ा में मनाया जाता है नंदा महोत्सव
नंदा देवी का महोत्सव चंद वंश के शासन काल से अल्मोड़ा में मनाया जाता रहा है। इसकी शुरुआत राजा बाज बहादुर चंद के शासन काल से हुई थी। राजा बाज बहादुर चंद ( सन् 1638-78 ) ही नन्दा की प्रतिमा को गढ़वाल से उठाकर अल्मोड़ा लाये थे। इस विग्रह को उस कालखंड में अल्मोड़ा कचहरी परिसर स्थित मल्ला महल में स्थापित किया गया था। सन् 1815 में ब्रिटिश हुकुमत के दौरान तत्कालीन कमिश्नर ट्रेल ने नन्दा की प्रतिमा को मल्ला महल से दीप चंदेश्वर मंदिर, अल्मोड़ा में स्थापित करवाया था।
नैतीताल में नन्दादेवी महोत्सव अपनी सम्पन्न लोक विरासत के कारण अलग ही छटा लिये हुए हैं परन्तु अल्मोड़ा नगर के मध्य में स्थित ऐतिहासिक नन्दादेवी मंदिर में प्रतिवर्ष भाद्र माह की अष्टमी को लगने वाले मेले की रौनक ही कुछ अलग ही होती है। अल्मोड़ा में मां नंदा की पूजा-अर्चना तारा शक्ति के रूप में तांत्रिक विधि से करने की परंपरा है। पहले से ही विशेष तांत्रिक पूजा चंद शासक व उनके परिवार के सदस्य करते आए हैं। वर्तमान में चंद वंशज नैनीताल के पूर्व सांसद केसी सिंह बाबा राजा के रूप में सपरिवार पूजा में बैठते हैं।
इतिहास के अनुसार नन्दा गढ़वाल के राजाओं के साथ-साथ कुमाऊं के कत्यूरी राजवंश की भी शांति देवी थी। देवीदेवी होने के कारण नन्दादेवी को राजराजेश्वरी कहकर भी सम्बोधित किया जाता है। नन्दादेवी को पार्वती की बहन के रूप में देखा जाता है लेकिन कहीं-कहीं नन्दादेवी को ही पार्वती का रूप माना गया है। नन्दा के कई नामों में प्रमुख हैं शिवा, सुनन्दा, शुभानन्दा, नन्दिनी।
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