दो कमरों का ही सही मगर, खुद का मकान चाहिए (कविता)

दो कमरों का ही सही लेकिन, खुद का मकान चाहिए।
भेड़ चाल चलती दुनिया में, खुद की पहचान चाहिए।
निराशा में डूबे भी मन को, आशा की किरण दिखा सकूं।
बस कट रही है जिंदगी वाले जुमले पर, जीत का प्रहार चाहिए।

उम्मीदों के फूल जो मुरझा से गए थे, फिर से मैं उन्हें खिला सकूं।
जो सारे गुलिस्ता को हरा भरा कर दे, बारिश की ऐसी फुहार चाहिए।
खिड़कियों से आने वाली ठंडी हवा के झोंकों से बातें करूं।
नई उमंग की किरणें आए जहां से, वो एक ऐसा रोशनदान चाहिए।

बहुत अरसे से बंद पड़े हैं एहसासो के खाली कमरे।
मायूसी से लिपटी सीलन को उम्मीदों की धूप चाहिए।
जहां सुकून से सांस ले सकूं, चार लोग क्या कहेंगे का डर ना हो।
नारी होने पर मुझे अभिमान हो, और विचारों की स्वतंत्रता चाहिए।

ना हो दिखावटी व्यक्तित्व का गुणगान, और ना ही झूठ फरेब हो।
शीशे का साफ मन, और सीधा सरल व्यवहार चाहिए।
मन में हो संतुष्टि का भाव राग द्वेष का साथ ना हो।
लोगों की भीड़ नहीं बस, रिश्तों का सम्मान चाहिए।

खुशियाँ दस्तक दे जहां से, मधुर संबंध हो जहाँ।
अवसर आए तो मैं पहचान जाऊं, घर में एक ऐसा द्वारा चाहिए।

दो कमरों का ही सही मगर, खुद का मकान चाहिए।

 


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