विलुप्त होते त्यौहार!

शारदीय नवरात्र  है आजकल; सुनाई तो दे रहा है ;परन्तु दिखाई नही दे रहा है। ना तो मौसम में वो उत्साह है और ना ही लोगों में। पहाड़ों का तो नही पता;परन्तु हल्द्वानी में तो दूर-दूर तक कोई उत्साह ही नही है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि पूरा शहर ही  उत्साह विहीन हो गया।

आदमियों को देखकर तो मुझे पुरानी पिक्चर की दो पंक्तियाँ याद आतीं है।

“सीने में जलन, आँखों में तुफान सा क्यों है?

इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यों हैं ?

क्या कोई नई बात नजर आती है हममें,

आईना हमें देखकर हैरान सा क्यों है?”

ना ही आदमी के चेहरे पर रंग है और ना ही उसके जीवन में । ऐसा प्रतीत होता है कि मानों आदमी  नही, कोई रोबोट हो या फिर मशीन। उफ् सी होती है।

आदमी तो निहायत ही कंजूस होते जा रहा है; हँसने में कंजूसी, बातों में कंजूसी,व्यवहार में कंजूसी, किसी के घर जाने में कंजूसी,किसी के आने में कंजूसी,रोने में कंजूसी; अब तो त्यौहार मनाने में भी कंजूसी।

आदमी ने बस एक ही ध्येय बना लिया। बस किसी तरह से ही सही! रूपया कमाना है। रुपयों से आगे उसकी सोच विकसित हो ही नही पाती। क्यों इतना धन का अर्जन! कल भी खाली हाथ आए,और कल खाली ही जाओगे।क्या दे जाओगे,अपने भविष्य को। मैं ये कतई नहीं कहता कि धन मत कमाइए,पर जीवन का भी तो आनन्द उठाइये।

हमारे पूर्वजों ने उत्सव का सृजन किया ,त्यौहार बनाए ,आखिर क्यों? ताकि धनार्जन के साथ जीवन रूपी केनवस में खुशियों के रंग भरे जा सकें,कुछ पल अपनों के लिए,अपनों के साथ जिए जा सकें,समाज के साथ घुलामिला जा सकें; परन्तु क्या हमनें सब कुछ छोड़ दिया।

मैंने तो सुना था कि शिक्षा मनुष्य के चरित्र का व मस्तिष्क का विकास करती है; परन्तु ऐसा विकास जिसमें अहंकार का भाव विकसित हो। मनुष्य-मनुष्य में अंतर उत्पन्न हो,अमीरी-गरीबी की दीवार खड़ी हो। सभ्यता और असभ्यता का भेद उत्पन्न हो।

इसी विभाजन ने आदमी-आदमी के मध्य एक गहरी खाई उत्पन्न कर दी और ऐसी खाई कि जिसमें हमें, अपने त्यौहार बोझ से प्रतीत होने लगें हैं। अपने उत्सव बबाल लगने लगें हैं; समाज कष्टप्रद लगने लगा है। खुलकर जिन्दगी जीना भी फुहड़ लगने लगा है।

हर रिश्तों में औपचारिकता, मेहमान बनकर जाने में औपचारिकता, मेहमान का आना औपचारिकता।

यही कारण है कि हमारे त्यौहार भी शनैः-शनैः विलुप्त होने लगें हैं ।

मुझे याद है अपना बचपन नवरात्र का उत्साह वर्षपर्यन्त रहता। दस दिन भी कम लगतें थें  रामलीला देखने के लिए। दस दिन का विद्यालय अवकाश। दिनभर रामलीला जाने का उत्साह,ना केवल मुझे, बल्कि पूरे मुहल्ले को होता। वही हाल दीपावली व होली का ।हम तो छोटे से छोटे त्यौहार को भी एक पर्व जैसा मनातें थें ।

कल मैं अपने विद्यालय में बच्चों से रामलीला के बारे में पूछ रहा था, तो उन्होंने जो उत्तर दिया वो हतप्रभ करने वाला था,उन्हें ना रामलीला की कोई जानकारी थी ,ना रामायण की।

हमनें स्वयं के साथ-साथ उनको भी मशीन बना दिया।

मुझे तो संशय है कि हम आने वाले समय में अपने त्यौहारों व उत्सवों से विहीन हो जाएं और शनैः-शनैः हमारे त्यौहार  विलुप्त ना हो जायें।

रही सही कसर नेताओं ने पूरी कर रखी है।सामाजिक त्यौहार के अवकाश पर कटौती कर उसे व्यक्ति की जयंती में  शामिल कर।

मेरा तो व्यक्तिगत मत है कि त्यौहार के अवकाश में वृद्धि  की जानी चाहिए,जिससे आम आदमी अपने परिवार के साथ ,अपने रिश्तेदारों के साथ अपनें समाज के साथ उत्साह से,उल्लास से त्यौहार मना सके बल्कि अपने नौनिहालों को भी आपनी संस्कृति, संस्कार, त्यौहार व उत्सवों से जोड़ सके। और जीवन को ना केवल वास्तविक अर्थ में समझ सके बल्कि जी भी सकें

हिमांशु पाठक

“पारिजात”

ए-36,जज-फार्म ।

 

 

 

 

 

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