रात, पंक्चर साइकल में वजन और 15 किलोमीटर दूर थी मंजिल

साल 1996
मैं 12th का एग्जाम देकर एक डोर टू डोर मार्केटिंग कंपनी में सेल्समैन था। दरअसल रिजल्ट आने लगभग 2 महीने का समय था। इस तरह की छुट्टियों में मैं कुछ काम कर लिया करता था। जिससे मुझे कुछ आमदनी हो जाती थी, और मैं कुछ सीख भी लेता था। एक डोर टू डोर मार्केटिंग की कंपनी का एडवर्टाइजमेंट आई हुई थी अखबार में, मैं चला गया इंटरव्यू के लिए और सेलेक्ट हो गया।
ट्रेनिंग उनकी अच्छी थी, और मैं थोड़ा बहुत सामान बेचने लगा था। थोड़े पैसे भी कमाने लगा था, लगभग सौ – पचास रुपए। डेली रूटीन इस तरह शुरू होती थी  – कि सुबह 9:00 बजे ऑफिस पहुंच जाता था, 9:00 बजे से 10:00 बजे तक हमें ऑफिस में प्रोडक्टस बेचने की ट्रेनिंग दी जाती थी, और उसके बाद हमें गिन कर सामान दे दिया जाता था। उसे लेकर हम किसी भी मोहल्ले में पहुंच जाते थे। हर एक घर को नॉक करते थे, उन्हें अपने प्रोडक्टस के बारे में बताते थे। उन्हें खरीदने के लिए कन्वींस करने की कोशिश करते थे। कुछ लोग खरीद लेते थे, कुछ लोग नहीं खरीदते थे, और कुछ तो हमें डांट कर भी भगा देते थे। शाम को वापस पहुंचकर जो सामान नहीं बिका, उसे वापस कर देते थे। जो बिक गया उससे अपनी कमीशन काटकर पैसे जमा कर देते थे।
जून का महीना था, आठ तारीख के आसपास किसी ने बताया बीआईटी ( रांची के पास एक इंजीनियरिंग कॉलेज है ) में सात तारीख को सैलरी आती है, वहां अच्छा माल बिक सकता है। बीआईटी मेरे ऑफिस से लगभग 16 किलोमीटर की दूरी पर थी, और उस समय मेरे पास में प्रोडक्ट था कैसरोल का डब्बा। 12 कैश रोल होता था 1 कार्टन में। साइकिल के कैरियर में कार्टन बांधा, 10:00 बजे साइकिल से निकल पड़ा बीआईटी के लिए।
चिलचिलाती धूप, रांची एक पठारी इलाका है। कभी कठिन चढ़ाई फिर अचानक ढलान। लगभग 1:00 बजे मैं बीआईटी पहुंच गया। एक छोटे से दुकान से पारले का बिस्किट खरीद कर थोड़ा पानी पिया। 1:00 बजे से लेकर 4:00 बजे तक पेड़ के नीचे पडा रहा। 4:00 बजे उठकर डोर टू डोर नॉक करना शुरू किया। दिन कुछ खास अच्छा नहीं था। लगभग 7:00 बजे तक चार डब्बे बिके थे, और मैं ₹80 कमाया था। भूख भी लग चुकी थी। अंधेरा हो चुका था। एक ठेले वाले से दो समोसा खा कर मैं वापस निकल पड़ा।
हाइवे तक पहुंचने के लिए लगभग 3 किलोमीटर की दूरी थी। जो लाल मिट्टी का कच्चा रास्ता था। जाते वक्त दिन मे दिखाई पड़ रहा था। लेकिन रात में अंधेरा था। अचानक कोई गड्ढा आया, मेरा साइकिल का हैंडल बाई तरफ मुड़ा, और साइकिल के साथ मैं जमीन पर। पीछे का कार्टून खुल कर बिखर गया। कोहनी और घुटने छिल गई, चोट भी आई। खैर उठकर कार्टन संभाला। साइकिल उठाने का कोशिश किया। पता चला हैंडल टेढा हो गया था। हैंडल सीधा करने की तो महसूस हुआ, रिम भी टेढी हो गयी है। घने अंधेरे में थोड़ी दूर आगे मुझे एक दुकान की बत्ती जलती दिखाई दी। साइकिल को घसीटते वहां पर पहुंचा। रिम को सीधा करने की कोशिश की।  रिम को पत्थर मारकर सीधा करने की कोशिश मे टायर और ट्यूब अलग फट गए।
साइकल बैठकर आने लायक ना रहा, रात के 9:00 बज गए थे। 15 किलोमीटर की दूरी तय करनी थी, कुहनी और घुटने अलग छीले पड़े थे। खैर साइकिल घसीट कर चलना शुरू किया। हाईवे पर पहुंचा, ट्रकों की आवाजाही शुरू हो चुकी थी। सड़क के किनारे फुटपाथ पर, जो लाल मिट्टी की बनी हुई थी, और बीच-बीच में गड्ढे थे, चलता रहा। आते जाते वाहनों का लाइट सीधा आंखों पर पढ़ती थी, मैं बढ़ता रहा, रास्ते में दो बार और भी गिरा लेकिन उठ कर चल दिया। … रात लगभग 2:00 बजे घर पहुंचा।
और इस तरह एक थका देने और संघर्ष भरे दिन का अंत हुआ और एक गहरी सांस लें ईश्वर का धन्यवाद किया

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