इंतजार करती थकती बूढी आँखें, और लौट कर ना आती जवां खवाहिशे

मेरा आज का विषय पलायन से जुड़ा हुआ है।

ये वर्ष 2000 की बात है मैं अपने पैतृक घर गंगोलीहाट ईष्ट की पूजा के लिए सपरिवार गया था। पहले दिन माँ कालिका की पूजा करने के लिए सपरिवार सुबह ही हाट कालिका पहूँचा। पूजा से निवृत हो, हम लोग फुरसत के कुछ क्षण निकाल कर अपने पूर्वजों के घर पठक्यूढ़ा पहूचें। वहाँ मैने अपने ईजा व बाबूजी के आँखों में खुशी की चमक देखी, दोनो अपने पुराने मित्रों से मिलकर अति प्रसन्न थे।

पहले हम लोग उस घर गये जहाँ ईजा व बाबूजी ने अपनों के साथ अपने जीवनकाल के अधिकांश सुनहरे पल बिताये थे। घर अब जीर्ण-शीर्ण अवस्था में था मानों वो अपनी अन्तिम साँसे गिन रहा था। और हमारे ही आने की प्रतीक्षा कर रहा था। कुछ अवशेष पत्थरों के रूप में उस घर के, वहाँ पड़े थे। एक -एक पत्थरों को अपने हाथों से उठाकर दोनों अतीत की मधुर स्मृतियों में विचरण करने लगें व उनके साथ हम भी अतीत की मधुर स्मृतियोंमें चले गये। जो उन्हें स्पष्ट व हमें धूमिल दिखायी दे रही थी।

वही आसपास मैनें कई आँखों को खिड़कियों से झांकते हुऐ देखा जो थकी हुई थी, चिन्ताग्रस्त थी। शरीर जीवन के अनगिनत थपेड़ों की मार सह-सहकर जीर्ण-शीर्ण हो चूका था। आँखों में भय, असुरक्षा व चिन्ता के भाव स्पष्ट नजर आ रहे थें। गाँव में दूर दूर तक कोई भी युवा नही था। पता चला सब रोजगार के चक्कर में शहर चले गये थे। पहले अस्थाई रूप में कुछ समय के लिए बाद में महानगरों की चकाचौंध में खो कर सपरिवार शहर के ही होकर रह गयें। कारण पूछा तो, उत्तर मिला साधनों का अभाव, शिक्षा की कमी, चिकित्सा सुविधा का अभाव व पहाड़ की जटिल जीवन शैली। तब अनगिनत प्रश्न मेरे मनो मस्तिष्क में उभरने लगे। प्रकृति ने असीम कृपा करी है उत्तराखण्ड पर, फिर भी हम कहते हैं यहाँ कुछ नही है।

ऐसा क्यों?

शायद या तो हम कुछ करना नही चाहते यहाँ पर, या फिर घर से दूर रहना चाहते हैं। स्वतंत्र जहाँ किसी का कोई हस्तक्षेप हमारी जीवन शैली में ना हो, या फिर हम कर्तव्यों से भागना चाहते हैं।

खैर अपने गाँव में हम लोगों ने काफी समय व्यतीत किया जो हमारे लिये सुखद यादगार पल थे। एक तो हमें हमारे वृद्धों का सानिथ्य मिला जो बहुत ही दुर्लभ होता है, परन्तु ये हमारा सौभाग्य था। दूसरा हमें उनका आशीर्वाद प्राप्त हुआ। हमनें उनसे ढेर सारी बातें की उनकी बातों से उनकी पीड़ा का अहसास हो रहा था जो उनके बच्चे उनको दे गये थे। उनकी बातों में अपनापन था, सादगी थी व स्पष्टवादिता थी,आँखों में स्नेह था। जो आजकल ना किसी की आँखों में दिखाई देता है और ना ही बातों में दिखाई देता है।

अंत में हमारी मुलाकात चम्पा काकी से हुई, सफेद बाल झूर्रियों से भरा चेहरा। पर आँखों में स्नेह की चमक व स्वागत में  सम्पूर्ण लुटाने की भावना मानों शबरी की कुटिया में जैसे राम, लक्ष्मण सहित आ गये हों। उन्होंने अपने हाथों से हमें भोजन कराया, उस भोजन का स्वाद मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ। अंत में उनसे विदा लेने का समय आया हम लोगों ने मधुर स्मृतियों के मधुर पलों को हमेशा -हमेशा के लिऐ त्स्वीरों मे कैद कर लिया। और उन्होंने एक गाने के साथ हमें दु:खी मन से विदा किया जिसके बोल कुछ इस प्रकार थे।

 “तुम्हें और क्या दूँ मैं दिल के सिवाय, तुमको हमारी उमर लग जाय।”

हम लोग  गाँव से लौट आये। और दे -तीन दिन के बाद हम वापस हल्द्वानी आ गये।

वर्ष 2012-13 में ईजा के निधन के बाद दुबारा गाँव जाने का अवसर मिला। हम लोग फुरसत के पलों में गाँव गये, चम्पा काकी से मिलने,  वहाँ जाकर पता चला उनका भी देहान्त हो चला था। तीन दिन तक उनका मृत शरीर कमरे के अन्दर ही पड़ा था। वो लम्बे अंतराल से रूग्ण थी और प्रतीक्षा कर रही थी अपनों के आने की । लोग बताते कि जब उनके मृत शरीर को अंतिम बार देखा था तो उनकी आँखे खुली थी। इस प्रतीक्षा और इस विश्वाश के साथ कि उनके अपने आयगे लौट कर।

 मेरी यादों में फिर वही गीत की वही पंक्तिया कौधने लगी

“तुम्हें और क्या दूँ मैं दिल के सिवाय, तुमको हमारी उमर लग जाय। “

और आँखों से आँसू बाहर ढुलकने लगे।


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