लिट्टी चोखा, समान मंगाया, घर में बनाया, पसंद भी आया पर फिर कभी दोबारा नहीं आजमाया।

जनाब, सात आठ माह से पुत्र से न मिल पाने की विवशता, श्रीमतीजी का पुत्र मोह, पुत्र के रहन सहन, खाने पीने की व्यवस्था को देखने की उत्सुकता लिये जाड़ों के सीमित अवकाश में जाने का कार्य क्रम बना और तमाम टिकट आरक्षित कर पुत्र ने आधुनिक संचार तकनीक से हम तक पहुचा भी दिए।

नया जमाना नये यातायत के साधन, दो ढाई घंटे मे दिल्ली से गन्तव्य तक पहुचाने वाली व्यवस्था का अधिक अनुभव न हो पाने के कारण आनन्द से अधिक कभी कोहरे से उडान रद्द होने, लेट होने की खबरो पर ही ज्यादा ध्यान जा रहा था, और फिर सामान सीमित मात्रा मे ले जा पाने का नियम…

मुझे तो रेल यात्रा का आनन्द, रास्ते की आलू पूरी, आम का अचार, सहयात्रियो से गप शप, ज्यादा भाती है…. श्रीमती जी व्यस्त थी के कौन कौन से कपड़े ले जाऊं… पांच सूट और तीन साड़ी या पांच साड़ी और तीन सूट…. साडी हरी या ब्लेक बोडर, शिफ़्फ़ोन या कोट्न।

जनाब यात्रा जितनी सुखद थी शुरुआत उतनी दुखद… हमारी ट्रेन मे हमारा डिब्बा दुर्घटना ग्रस्त होने से हमारे टिकट को निरस्त कर दिया गया और हमे दूसरे दिन टेक्सी से भरे कोहरे मे दिल्ली जाना पडा…

फिर पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार गन्तव्य तक पहुचे, पुत्र स्वागतार्थ हवाई अड्डे पर उपस्थित था और उसके साथ करीब दो घंटे टैक्सी के सफ़र के बाद उसके घर, फोन से खाना हाजिर, खाया और आराम, मुझे तो ये सोच कर ही रोमान्च हो रहा था कि बारहवे माले पर सो रहा हू।

दूसरे दिन सुबह सवेरे बालकनी से नजारा आकर्षक लगा, कठघरिया से पेड पहाड दिखाई देते थे। यहा से दिख रही थी अट्टलिका बहु मन्जिली इमारते, क्लब, जिम, स्विमिन्ग पूल, लिफ़्ट… खट्ट ऊपर, खट्ट नीचे, नकारात्मक सोच… बीच मे बन्द हो गयी तो क्या होगा…

ओला, उबर पता डालो, निर्धारित जगह तक कम किराये मे पहुचो, बहसबाजी किराया निर्धारण, मीटर का कोई झन्झट ही नही, मैं तो समझा यह भी मोदी की ही देन है, पर अब तक पता नही चला के इस व्यवस्था का जनक कौन है।

खैर जनाब पुत्र के सौजन्य और ओला ऊबर वालो की सुव्यव्स्था से खूब घूमे, खूब तस्वीरे खीची और पल पल की खबर दुनिया वलो को फ़ेस बूक के माध्यम से दी कि उन्हे भी तो पता चले कि हम कठघरिया से बाहर भी निकलते है, हमने भी दुनिया  देखी है, हवाई जहाज मे बैठे है, फाइव स्टार मे खाना भी खाया है, वर्ना दुनिया क्या जाने वो तो हमे कोटाबाग का भुस्स ही समझेगी।

अब मित्रो मे विषय से भटक रहा हू, बात हो रही थी लिटिटी चोखा की और मैं फ़सक मारने लग गया। बंगलौर में  मुकेश के साथ एक प्राचीन मन्दिर, जो आन्ध्र प्रदेश मे था जाना हुआ। वहां से लौट उसके निवास के समीप एक बिहारी के ढाबे मे खाने के साथ लिट्टी चोखे का आनन्द लेते लेते श्रीमतीजी का पाक ज्ञान जागा और वही पर यह उदघोषित कर दिया गया कि कठघरिया वापसी पर लिटिटि चोखा घर पर बनेगा और अवश्य बनेगा

कहाँ से क्या जुगाड होगा, ingredients कहा से आयेंगे इसकी परिकल्पना उन्होने कर ली थी। सबसे पहले व्यवस्था करनी थी सत्तू की, अथक प्रयासो के बाद सत्तू मेने खोज डाला, अन्गीठी लोहार से ऑर्डर पर बनवाई गयी, उपलो का इंतजाम जमुना काम वाली ने कर दिया, बैगन, टमाटर आलू घोल डाल, प्याज, हरे धनिये के साथ सरसो के तेल मे चोखा बना और छत पर उपलो की आग मे लिट्टी, रामदेव बाबा के गाय के घी मे डूबा कर जब लिट्टी चोखे का आनन्द लिया उसका वर्णन करने को शब्द ही नही मिल पा रहे है…

हा अंग्रेजी मे ऐसी स्थिति मे आज – कल के बच्चे कहते है awesome… जी हां बिल्कुल awesome…..यम्मी…यहा यह बताना भी जरूरी है कि अब वो अन्गीठी और उपले छत पर धूल खा रहे है और स्वादिष्ट लिट्टी चोखा फिर बनने को तरस रहा है।

यहा पर यह भी बताना गलत नही होगा के हमने गरीबो के प्रिय लिट्टी चोखे का स्वाद तो घर पर लिया लेकिन उसके निर्माण पर व्यय श्रम तथा धन का आकलन किया जाय तो दाम पांच सितारा होटल वाले पड़े।

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1 comment

Vaishali August 13, 2020 - 7:26 pm
रोचक संस्मरण। ?
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