उत्तराखंड के सुदूर पहाड़ी क्षेत्र में ऐतिहासिक विष्णु मंदिर जो है राष्ट्रीय धरोहर

Kotli Bhattigaun Pithoragarh Uttarakhand:  उत्तराखंड को देवों की भूमि के नाम से जाना जाता है। यहाँ आपको कुछ ही दूर चलने पर मंदिर दिख जाएंगे। अगर उत्तराखंड के इतिहास की बात की जाए तो ये बहुत पुराना है, हमें कई पुराणों में समस्त उत्तराखंड के बारे में जानकारी मिलती है। जिसमें उत्तराखंड को दो भागों केदारखंड और मानसखंड के रूप में दर्शाया गया है। जिसमें केदारखंड वर्तमान का गढ़वाल क्षेत्र और मानसखंड वर्तमान का कुमाऊँ क्षेत्र है।

आज हम इसी मानसखंड यानि कुमाऊँ क्षेत्र के एक पौराणिक मंदिर की बात करेंगे। जिसका अस्तित्व तो पुराना है, लेकिन  कुछ समय पहले ही भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने नवीं शताब्दी में बने ऐतिहासिक मंदिर को राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया है।

यह ऐतिहासिक विष्णु मंदिर पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट (gangolihat) विकासखंड के कोटली भट्टीगांव में स्थित है।

इन मंदिरों का निर्माण विभिन्न चरणों में किया गया है। केंद्र में भगवान विष्णु के मंदिर के चारों ओर सात अन्य लघु मंदिर निर्मित है। आठ मंदिरों के समूह में यह मुख्य मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है।

फंसाणा शैली में धूसर रंग के बलुए पत्थर से निर्मित मुख्य मंदिर पश्चिमाभिमुखी है तथा योजना में वेदीबंध, जंघा एक्स आयताकार छत तथा शिखर पर आमलक के साथ निर्मित है। मंदिर की बाह्य दीवारें सादी तथा अलंकरण विहीन है। गर्भगृह में विष्णु प्रतिमा के साथ शेषशायी विष्णु व गणेश की प्रतिमाएं भी है। गर्भगृह में स्थित कृष्ण और बलराम की दुर्लभ प्रतिमाओं के कारण यह उत्तराखंड का अकेला ऐसा मंदिर है जिसमें कृष्ण और बलराम की स्वतंत्र प्रतिमाएं हैं।

लघु मंदिरों का निर्माण भी फंसाणा शैली में धूसर रंग के बलुए पत्थर से किया गया है जिनका गर्भगृह वर्गाकार है। इन मंदिरों में महिषासुरमर्दिनी, गंगा, यमुना, बारह, बलराम, आदि की प्रतिमाएं विद्यमान है।

पुरातत्व विभाग के अनुसार दक्षिण भारतीय शैली में निर्मित इस मंदिर की स्थापना नौवीं शताब्दी में कत्यूरी शासकों ने की थी। हालांकि मंदिर परिसर की प्रतिमाएं 9वीं – 13वीं शती ई. के मध्य की हैं। भारत सरकार के पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने अब इस मंदिर को राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया है। इससे पूर्व यह मंदिर पुरातत्व विभाग अल्मोड़ा के संरक्षण में था।

इस मन्दिर की पूजा उच्च कुल के भट्ट ब्राह्मण करते थे। जिस कारण इस गाँव का नाम भट्टीगाँव पड़ा। किन्तु शेर के आतंक के कारण ब्राह्मणों ने ये गाँव छोड़ दिया। भट्ट ब्राह्मणो के कारण इस गाँव का नाम भट्टीगाँव पड़ गया।

इस मन्दिर मे कुछ शिलालेख भी मिले थे। जिसे अभी पूर्ण रूप से कोई समझ नही पाया है किन्तु उस शिलालेख को अम्बादत्त पाण्डे जी (पाटिया, अल्मोड़ा) ने करीब 100  वर्ष पहले पढ़ने के बाद ये सुनिश्चित किया की यह मन्दिर लगभग कत्यूरी शासन काल मे बना था।

इसके साथ पूर्व मे एक नौला (कुँआ) है जिसे दियारियानौला कहा जाता है, जो की अब नष्ट हो चुका है और इसके साथ दक्षिण मे कालसण का मन्दिर है।

इस मंदिर परिसर मे पहले उत्तराखंड का  वाद्य यंत्र ढोल लाना भी वर्जित था। इसके साथ ही महिलाओं की छाया गर्भग्रह में न पड़ने देने के कारण महिलाओं का गर्भग्रह के सामने आना भी वर्जित था।

एक रोचक बात यह है की आज से करीब 40-50 साल पहले अगर इस मन्दिर के परिसर के आस पास कुछ अपवित्रता होती थी तो इसके निकट पानी के स्रोत के आस पास नाग प्रकट हो जाते थे। कभी कभी वो नाग भट्टीगाँव के लोगो के पानी के गागरो मे उनके घरो तक पहुँच जाते थे। फिर लोग उन्हे वही वापस छोड़ जाते थे। यहाँ एक दूध के समान सफेद सर्प भी है।  जो सिर्फ भाग्यशाली लोगो को ही दिखता है। लेकिन आजकल समाज मे फैली बुराईयो के कारण और बढती हुई समाजिक गन्दगी के चलते यह शक्ति विलुप्त हो गयी है। 

मंदिर परिसर से लगभग 1किलोमीटर दूर निकटवर्ती ग्राम बनकोट से वर्ष 1989 में आठ ताम्र मानवाकृतियां प्राप्त होना भी इस क्षेत्र की एक महत्वपूर्ण खोज है।

 

 

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