पहली बार कुमाऊं शब्द का प्रयोग इतिहासकार अब्दुल्ला के ग्रंथ तारीखे-दाऊदी में मिलता है

उत्तराखण्ड के कुमाऊं मंडल को पहले कूर्मांचल नाम से जाना जाता था. इस भूभाग का कुर्मांचल नाम चम्पावत के नाग मंदिर के अभिलेखों में मिलता है. चम्पावत के नागमंदिर में राजा कल्याणचंद के काल के शिलालेख में इसे कूर्मांचल कहा गया है. इससे पहले महावीर थापा के बालेश्वर ताम्रपत्र में इसे कर्मालय और राजा रुद्रचन्द्र के नाटक ऊषारागोदय में इसे कुर्मागिरी कहा गया है. (Word Kumaon)

पौराणिक तौर पर इस नाम का सम्बन्ध काली कुमाऊं के उस पर्वत से माना जाता है जहां विष्णु ने कुर्मावतार लिया था.

इतिहासकार बताते हैं कि इस नाम का सम्बन्ध विष्णु के कुर्मावतार से न होकर कूर्म ऋषि से है. मेरु-मंदर के इस हिस्से में कूर्म ऋषि ने आश्रम बनाया था. यही कूर्म ऋषि बाद में विष्णु के अवतार के रूप में जाने गए. कूर्मांचल पर्वत का उल्लेख स्कन्द पुराण के मानसखण्ड में भी मिलता है. मानसखण्ड इसकी सीमाएं उत्तर में मानसरोवर, दक्षिण में मोटेश्वर (काशीपुर), पूर्व में छत्रेश्वर (नेपाल) तथा पश्चिम में नन्दागिरी (नन्दा पर्वत) से लगी बतायी गयी हैं.

चन्दरबरदाई ‘पृथ्वीराज रासो’ में इसका नाम कुमऊंगढ़ कहते हैं. मुहम्मद तुगलक के हिमालय अभियान में इसे कराचल या कराजल कहा गया है.

राजा विक्रमचन्द के ताम्रपत्र में बालेश्वर मंदिर को भूमिदान करते हुए ‘कुमाना वादे शुभे’ लिखा गया है. राजा ज्ञानचन्द के ताम्रपत्रों में जगत कुमांई से भी कुमाऊं शब्द के प्रचालन का बोध होता है. इसके बाद राजा बाजबहादुर चंद ताम्रपत्रों में, जिसमें राजा रुद्रचन्द द्वारा बालेश्वर मंदिर को भूदान की पुष्टि की गयी है, ‘कुमाऊं का महारुद्र को मठ दीनु’ लिखा मिलता है. राजा उद्योतचंद के रामेश्वर ताम्रपत्र में ‘बौतड़ी कुमाऊं का गरखा’ का प्रयोग मिलता है. इन सबसे इस बात की पुष्टि होती है कि उस काल में कुमाऊं के पूर्वी हिस्से के लिए कुमाऊं नाम प्रचालन में आ चुका था. इस समय तक आज के समूचे कुमाऊं मंडल के बजाय काली कुमाऊं क्षेत्र को ही कुमाऊं या इससे मिलते-जुलते नामों से कहा गया. 1563 में राजा भीष्म चंद द्वारा चंदों के प्रशासनिक केंद्र को चम्पावत से खगमराकोट (अल्मोड़ा) स्थानांतरित करने के बाद उनके अधीन आने वाले पूरे भूभाग को कुमाऊं कहा जाने लगा.

इस पर्वतीय राज्य के लिए कुमाऊं या कुमायूं शब्द का प्रयोग मुस्लिम इतिहासकार अब्दुल्ला के ग्रंथ तारीखे-दाऊदी में दिल्ली के सुलतान इस्लाम शाह के कट्टर विरोधी अफगान सरदार खवास खां को राजा कल्याणचंद द्वारा शरण दिए जाने के सम्बन्ध में किया गया.

1815 में ब्रिटिश गढ़वाल के नाम से जाने जाने वाले पूर्वी गढ़वाल के अंग्रेजों के अधीन आ जाने तथा उसे कुमाऊं कमिश्नरी का दर्जा दिए जाने से इस समूचे भूभाग को कुमाऊं कमिश्नरी कहा जाने लगा.

(उत्तराखण्ड ज्ञानकोष प्रो. डीडी शर्मा के आधार पर)

Related posts

उत्तराखंड स्वतंत्रता आन्दोलन

उत्तराखंड के आधुनिक काल का इतिहास

नैनीताल की कुछ ही दुरी पर स्थित बेहद ही खूबसूरत है सात ताल, जानिए सातताल का इतिहास और सम्पूर्ण जानकारी