जगह के साथ अपनी जड़ों से भी दूर होते लोग

[dropcap]म[/dropcap]हानगरों की चमक से आकर्षित हो, हम चले आते हैं छोड़ कर, अपनी जगह को और हो जाते हैं जड़ों से दूर। और इस कदर, खो जाते हैं, आधुनिकता में, ओड़ लेते हैं आधुनिकता का दुशाला, और भूल जाते हैं, हम कि हम हैं कौन?

समय के अनुसार चलना गलत नही हैं, ना ही गलत है आधुनिक होना,परन्तु हम अपनी संस्कृति व संस्कारों को भी ना छोड़ें। हमारी पहचान है कि हम पहाड़ी हैं कुमाऊँनी हैं । हमें कुमाऊँनी होने पर गर्व होना चाहिये। कुमाऊँनी भाषा को ना केवल हम आत्मसात करें ,बल्कि विभिन्न माध्यमों का प्रयोग कर से हमें कुमाऊँनी भाषा को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहूँचाना चाहिये।

परन्तु ये बड़ा ही खेद का विषय है हम लोगों के लिये कि हम अपनी जगह के साथ-साथ अपनी जड़ों से भी दूर होते जा रहे हैं।

कितने अच्छे थे हमारे संस्कार प्रातःकाल बड़े-बुजुर्गों के  दर्शन बड़े शुभ माने जाते थे। दादाजी, दादीजी ईजा, बाबूजी एवं ददा व दीदी को पैलाग कर हम दिन की शुरूआत करते थे। किसी भी कार्य का शुभारम्भ  करने से पूर्व घर के सबसे बड़े सदस्य की आज्ञा व आशीर्वाद लिया जाता था। घर का हर बड़ा सदस्य छोटों से स्नेह करता था एवं छोटे सदस्य बड़ों का सम्मान करते थे। सच्चाई व ईमानदारी हर रिश्तों में थी। परिवार के हर सदस्य एक दूसरे के साथ प्रेमभाव, सदाशयता व विश्वास के साथ रहते थे,  संयुक्त परिवार में।

परन्तु  हम संयुक्त परिवार की परम्परा का परित्याग कर एकल परिवार को अपना कर कहीं ना कहीं अपने बड़ों का अपमान ही किया है। आज रिश्तों में औपचारिकताऐं भर हैं।

जब संयुक्त परिवार की परम्परा ही खत्म हो गयी, तो संस्कृति का पतन भी स्वाभाविक है। त्यौहारों में अपने संस्कारों की झलक दिखाई देती है,जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होता है। परन्तु आज जब बड़ों-बुर्जुगों का ही सम्मान नही तो त्यौहारों व संस्कारों के हस्तांतरण कहाँ से हो। आज नई पीढ़ी  काले कौवा के रूप में मनाये जाने वाले त्यौहार घुघुती को नही जानती है वो इस त्यौहार को मकर संक्रान्ति के नाम से शायद जानती हों। बसंत पंचमी तो खैर विलुप्त हो चुकी है। होली में शराब का आधिपत्य हो चुका है तो संस्कार कहाँ से बचेगें। फूलदेई, घृत संक्रान्ति, बिरूढ़ पंचमी, सातु-आठू, खतड़वा आदि कितने ऐसे त्यौहार हैं जो बड़े-बुर्जुगों की विदाई के साथ ही विदा हो चुके हैं। आज कुमाँऊनी महिलाओं ने वटसावित्री को त्याग कर करवाचौथ को अपनाना शुरू दिया। ये तो भला हो सोशल मिडिया का वरना तो इनके नाम भी शायद विलुप्त हो जाते।

बचपन में जब मेरा जन्मदिवस मनाया जाता था, ‘जो मेरे लिए विशेष महत्व रखता था’,  सुबह उठकर स्नान करने के पश्चात मुझे नये वस्त्र पहना जाते थे। उसके पश्चात मुझे घर में स्थित मन्दिर में बैठाकर पहले दीप जलाकर गणेशजी का आर्शीवाद दिलवाया जाता था। मारकण्डेय जी की पूजा होती थी। हाथ में कंकढ़ बाँधा जाता था फिर मैं ईश्वर की आरती करता। माँ व दीदी मिलकर मोदक, पूऐ व अन्य पकवान बनाकर पहले प्रसाद स्वरूप ईश्वर को चढ़ता, फिर पड़ोस की महिलाओं के साथ घर में भजन – गीत का कार्यक्रम होता तत्पश्चात चायपानी का कार्यक्म होता इस प्रकार से जन्म दिवस के कार्यक्रम का ये अन्तिम सोपान होता। जिसमें दीप प्रज्जवलित कर शुभता का आशीष दिया जाता व मंगल गीत गाकर मंगल की कामना की जाती। परन्तु आधुनिक समय में जन्म दिवस का स्थान बर्थडे ने ले लिया है और दीप प्रज्जवलन का स्थान कैंडिलबुझाने ने ले लिया है। पुओं मोदकों, व कुमाऊँनी व्यजंनों का स्थान केक व आधुनिक  पाश्चात्य व्यजंनों ने ले लिया है। मंगल गीत का स्थान डीजे, पाश्चात्य संगीत व डांस ने ले लिया है।

आज विवाह कार्यक्रमों में भी चलचित्रों ने अपना प्रभाव जमाना शुरू कर दिया है। विवाह की शुरूआत धूलिअर्ग से होती थी। धूलिअर्ग दो शब्दों का समन्वय है। धूलि व अर्ग जहाँ धूलि का तात्पर्य होता हैं दिन व शाम का मिलन (इससे ही एक शब्द और बना “गौधूलि” यानी शाम के समय जब गाय अपने घरों को वापस आती थी।) अर्ग का अर्थ होता है जल धारा के साथ आगंतुक का स्वागत करना।  इस तरह से धूलिअर्ग का अर्थ होता था दिन व शाम के मिलन के साथ दूल्हे व बारात का स्वागत करना आज धूलि अर्ग का स्थान दूल्ह-अर्ग ने ले लिया ।आधी रात में दूल्हे व बारात  का स्वागत होता हैं ।सारी मर्यादाओं का उल्लंघन कर बाराती शराब के मद मे चूर हो, घर की महिलाओं को अपमानित करते हैं, जिसे हंसी-ठिठोली का आवरण उड़ाकर आधुनिकीकरण के रंग मे डूबो कर शान्त कर दिया जाता है।

मंत्रोचार व पुरोहित वर्ग से ज्यादा उच्च स्थान विडियोग्राफर व फोटोग्राफर का होता है। पहले से विवाह के समय दूल्हन के घर में जहाँ विवाह कार्यक्रम जैसे फेरे की रस्म कन्यादान की रस्म भोर का तारा दिखाने की रस्म होती थी वहीं दूल्हे के घर में  रत्याली का कार्यक्रम घर की व पड़ोस की महिलाओं के द्वारा संपन्न किया जाता था केवल एक महिला बारात के साथ जाती थी वो भी विदाई के बाद दुल्हन के साथ देने को। बाकि सारी महिलायें घर में रह कर रत्याली कार्यक्रम करती थीं । महिलायें रंगोली पिछौड़ा ओढ़ती थी व’ शगूनागर’ गीत गाती थी। आज बारात में क्या महिलायें,क्या पुरूष सारी मर्यादाओं का उल्लघंन कर  जाते है।

घर की सजावट में भी न अब पताकाऐं लगती हैं ना तोरण द्वार।ना ही हम जमीन में बैठकर कभी पूरी, सब्जी रायता, चटनी दाल आदि आने के आने की प्रतीक्षा नही करते। क्योंकि अब हम समझदार व पढ़े-लिखे जो हो गये हैं। हम विवाह व त्यौहारों में ‘सहभागिता व सहयोग के सिद्धान्त ‘को नही अपनाते हैं क्योंकि हम पढ़े-लिखे हैं, सभ्य हैं, आधुनिक हैं।

परन्तु बच्चे जब हमसे पूछते हैं, सहभागिता व सहयोग के सिद्धान्त के बारे में  तो हम पुस्तकों में ढूढते हैं सहभागिता व सहयोग के सिद्धान्त को और बच्चे हमारे (अ) ज्ञान पर हँसते हैं और हम खिसिया कर उन्हें डाँट देते हैं क्योंकि हम पढ़े-लिखे जो हैं।


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