एक्जाम की कॉपियाँ

आज अचानक से नजर पड़ी एक गट्ठर पर, सफ़ेद-कापियां पैरेलल रूल वाली- जिनमें लिखा होता है ‘उत्तर-पुस्तिका’। भाईसाब अपने हाई-स्कूल और इंटर के दिन याद आ गए तुरंत। अच्छा एक मित्र थे, जो लगभग ७-८ कापियां भर देते थे, चाहे एग्जाम गणित का हो या हिंदी का। जोशी मासाब हमेशा कहते थे, देखो उपाध्याय ने कितनी कापियां भर दी, कितना होनहार है ये। बहरहाल मैं कभी भी दो कॉपियों से ज्यादा नहीं भर पाया।

बोर्ड की परीक्षाएं तब जीवन-मृत्यु का सवाल बन जाती थी। अक्सर रिजल्ट वाले दिन कोई न कोई नुवान की शीशी गटक लेता था। काफी पीड़ादायक और अफसोसजनक टाइप होता था ये सब। अगर फर्स्ट डिवीज़न आई तो ३० रुपये, सेकंड में बीस, थर्ड में दस, और फेल में कोई पैसे नहीं (असफल होने वालों के लिए सिर्फ एक वजह हो सकती थी तसल्ली की, चलो कुछ पैसे तो बचे)। तो ऐसे आता था रिजल्ट- इन्टरनेट नहीं होता था तब (अब भी नहीं होता अगर राजीव जी कम्प्युटर भारत नहीं लाये होते, कोंग्रेसी मित्र ऐसे भी क्रेडिट ले सकते हैं।)।

बरेली से अखबार आता था, और शहर में २-३ ही आते थे। सुबह तड़के 2- 3 बजे से ही लगभग चक्काजाम टाइप माहौल होता था उस दिन। फिर शाम को किसी को बधाईयाँ और किसी को सांत्वना- बेटा/ बेटी कोई बात नहीं- सफलता/ असफलता तो लगी रहती है, तिवारी जी बेटी भी फ़ेल हो गयी, किस्मत के आगे किसका ज़ोर, अगले साल ज्यादा मन लगा के पढना,… टाइप की बातें। साथ में चौक की पान की दुकानों, किराना स्टोर आदि में भी लोग आपस में मिलते तो चर्चा यही होती कि – अरे भट्ट जी के लड़के ने तो कमाल कर दिया- यू.पी. बोर्ड की मेरिट में आया है नाम- जरूर आई.आई.टी./सी.पी,.एम्.टी. निकाल लेगा। अरे हाँ अधिकारी जी की लड़की ने भी गजब कर दिया हो। खैर हटाईये ये सब…, लेकिन अब बात आ ही गयी है, तो बता दूं- आज भट्ट जी का लड़का और अधिकारी जी की लड़की दोनों नॉएडा में हैं- सुबह ८ बजे जाते हैं एच.सी.एल. में नौकरी करने- शाम लगभग ८ बजे वापस लौटते हैं। और फेसबुक पे अक्सर लिखते हैं- पहाड़ बहुत याद आता है। यार. पता नहीं भूले क्योँ!

उत्तराखंड/उत्तर-प्रदेश की लगभग सारी जनता जो ८० के दशक में पैदा हुयी और बाबरी-मस्जिद, पाकीजा, नीम-का-पेड़, हम-लोग टाइप की चीजें टेलीविज़न पे देख के बढ़ी हुई, बड़ी परेशान टाइप जनरेशन है। ग्लोबलाइजेशन नहीं था, ग्लोबल-वार्मिंग नहीं थी, ग्लोबल-न्यूज़ वाला हव्वा भी नहीं था- बस जियोग्राफी की क्लास में ग्लोब जरूर होता था। अधिकाँश देश और उनकी राजधानी याद करनी होती थी। ग्लोब शब्द का महत्व ज्यादा और इस्तेमाल कम होता था। खैर अब तो लगता है वो कापियां भी मेड-इन-चाइना होंगी, जो आज देखी- पता नहीं अब लोग कितनी भरते होंगे, और कितना महत्वपूर्ण होता होगा दोस्तों का आपस में पूछना एग्जाम के बाद ‘कितनी-भरी?’!


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