वो बचपन की यादें और शरारतें

बात है उस समय की जब मैं प्राइमरी स्कूल में पढ़ती थी जो कि सिर्फ प्री नर्सरी से फिफ्थ क्लास तक था और मेरे घर से कुछ ही दूरी पर लगभग 1 किलोमीटर दूर होगा।

मां बताती है कि मैं पहले दिन स्कूल जाने से पहले घर पर रोई नहीं थी बहुत खुश होकर स्कूल गई थी। मां ने भी घर से बहुत समझा कर भेजा था कि वहां जाकर में रोऊं ना।

टिफिन में अच्छा-अच्छा स्वादिष्ट लंच भी मिला था मां के हाथों का बना हुआ, मेरे छोटे भैया और मेरा एडमिशन साथ में ही हुआ था हम दोनों एक ही साथ स्कूल पढ़ने गए थे, लेकिन 6 महीने बाद ही मुझे एक कक्षा आगे बढ़ा दिया गया, क्योंकि मैं अपने भैया से बड़ी थी।

हम पढ़ते गए और बचपन बीतता गया, और इसी बचपन में धीरे-धीरे बचपन की शैतानियां भी सिमट सी गई।

हमारे स्कूल के पीछे वाले गेट के रास्ते के बाहर एक बड़ा सा बरगद का पेड़ था जिसके किनारे-किनारे गोल चबूतरा बना हुआ था। छुट्टी के बाद हम पीछे वाले गेट से ही निकलते थे और भागते हुए अपनी दादी मां के पास पहुंच जाते थे, जो कि चबूतरे पर बैठ कर हमारा इंतजार करती थी, हमारी छुट्टी का।

दादी तो नहीं रही अब बस यादों में है, लेकिन इस स्कूल के उस रास्ते से जहां बरगद का पेड़ और उसके किनारे चबूतरा बना है, वहां से मैं जब भी गुजरती हूं तो मुझे मेरी दादी याद आती है जो छुट्टी के बाद वहीं बैठा करती थी और हमारा इंतजार करती थी।

हम भाई बहनों को जब भी वह लेने के लिए आती थी तो छुट्टी में तो हमेशा अपने साथ खाने के लिए कोई चीज खरीद कर लाती थी, और हम पूरे रास्ते खाते हुए जाते थे।

कभी-कभी मम्मी भी आती थी लेने, लेकिन जैसे जैसे हम बड़े हुए तो कभी कभी कोई लेने नहीं आता था घर से, और उस दिन हम रास्ते भर शैतानियां करते हुए घर वापस जाते थे।

शैतानियां भी ऐसी जिनके बारे में आज भी सोच कर हंसी आती है, छुट्टी के बाद हम दोनों भाई बहन एक- एक पत्थर चुनते, आकार में थोड़े बड़े साइज के, और उसको पैर से मारना स्कूल से शुरू करते थे, और पैर से मारते मारते हम घर तक ले आते थे, ऐसा करके उस दिन इतनी खुशी होती कि जैसे कोई बहुत बड़ा मुकाम हासिल कर लिया हो।

दूसरी शैतानी थी स्कूल के बाहर से बर्फ का गोला खरीदना, जो कि बहुत रंग-बिरंगा, ठंडा और मीठा होता था, और कोशिश यह रहती थी कि घर आने से पहले-पहले बर्फ का गोला खत्म हो जाए जिससे घर पर डांट ना पड़े। कक्षा 4-5 में आने पर ऐसी शैतानियां हमने कई बार दोहराई है।

एक बार कि मेरी और मेरे भैया के साथ की शैतानी तो बहुत बड़ी थी जोकि घर पर बताने लायक नहीं थी, और आज तक किसी को नहीं पता है। लेकिन आज सोचा कि बता दे क्योंकि अब डांट पड़ने की संभावना बहुत कम है।

वह भयंकर शैतानी थी, मैं और मेरे भैया ने सलाह मशवरा करके आपस में, लंच ब्रेक के बाद स्कूल बंक करके घर वापस चले गए थे, स्कूल की चहारदीवारी की बाउंड्री टूटी थी, जिससे हम यह काम आसानी से कर पाए और  घर जाकर बोला कि आज स्कूल से जल्दी छुट्टी हो गई, हमारा आज हाफ डे था।

शैतानियां तो अभी भी होती है लेकिन वह बचपन वाली शैतानियां ,बचपन वाला दादी मां का प्यार और उनका हमें स्कूल में लेने आना और साथ में कोई चीज खिलाने के लिए लाना, वह बीता हुआ बचपन कभी लौट कर नहीं आए लेकिन हमेशा बहुत याद आएगा।

उम्मीद है कि आपको मेरी बचपन की कहानी अच्छी लगी होगी, आप भी बचपन में शरारते करते होंगे, अपने बच्चों को भी ज्यादा ना रोके शरारते करने से लेकिन मेरी तरह स्कूल बंक ना करें।

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