ऐसा रोचक होता था बचपन डिजिटल दुनिया से पहले।

हम सभी का मन करता है कि एक बार फिर लौट चलें बचपन में। खासतौर पर तब, जब हम उम्र के उस पड़ाव में पहुँच जाते हैं, जब हम जीवन में वो सब प्राप्त कर चुके होतें हैं, जो हम प्राप्त करना चाहते थें। समय का एक बहुत बड़ा हिस्सा हम संघर्षों में ही बीता देते हैं। उस समय हमें ऐसा प्रतीत होता है कि हमें किसी की आवश्यकता नही है। हमारे अपने हमसे मिलने को तरसते हैं, ढेर सारी बातें करने के लिए तरसते हैं। परन्तु समय के अभाव के कारण  हम उन्हें पर्याप्त समय नही दे पाते। परन्तु जब हम उन्हें समय देना चाहते हैं, बात करना चाहतें हैं उनसे तब ना उनके पास समय होता है, ना बातें। हम सिर्फ उनकी तस्वीर से बातें करतें हैं, जो दीवारों में लटकी रहती हैं। तब हम एकान्त समय को व्यतीत करतें हैं अपने बचपन को याद कर और चले जाते हैं अतीत के पथ पर, यादों की सैर पर।

मेरे बचपन का अधिकांश हिस्सा उत्तराखंड के अल्मोड़ा में ही बीता था। मेरे यूँ तो कई दोस्त थें। परन्तु मेरे खास दोस्तों में एक था संजय जिसे हम। संजू  कहा करते थे। संजू भी दो थे, एक को हम बड़ा संजू कहते थे, एक को हम छोटा संजू कहते थे। इसके अलावा ज्योति, बंटी, संटी आदि भी मेले मित्र हुआ करते थे। हम लोग साथ स्कूल जाते। स्कूल जाते समय रास्ते में एक खड़क का पेड़ पड़ता था। जिसके बारे में  कई किंवदंतियां थी। जिसके बारे में हमने अपनों से बड़ों से बहुत कुछ सुना रखा था। हम। अक्सर आते-जाते पेड़ के नीचे जरूर रूकते थे। कभी पेड़ों में चढ़ी वही बातें  करते उस दिन हम स्कूल नही जातें। दूसरे दिन मास्टर जी हमारी जो पिटाई लगाते कि उसके निशान महीनों तक हमारे शरीर में  रहतें। वो तो अच्छा था निशान ऐसी जगह रहते जिसे हमारी माँ हमें नहलाने पर ही देख पाती थी। खड़क के पेड़ों अब हमारा अच्छा दोस्त बन चुका था इसलिए अब हमें उससे डर नही लगत था। खड़ी के पेड़ों पर घंटो बिताना अब हमें  अच्छा लगने लगा था।

गर्मियों की छुट्टी का आना,हमारे लिये बड़ा ही सुखद होता। पढ़ाई का पुराना बोझ हमारे कंधों से उतर जाता। हम गर्मियों की पूरी छुट्टियों का आनन्द खेल-कूद कर उठाते। सारी मित्र मंडली एकत्रित होकर रोज नए-नए खेल खेलते। इनमें से कुछ खेल निम्न प्रकार हैं।

पहला खेल है आइसपाईस,दूसरा खेल है छुअमछुआई, तीसरा खेल होता था सेवन टाइम्स इसके अलावा टायर चलाना,बैरंग गाड़ी, विष-अमृत, ऊँच-नीच, लंगड़ी टाँग भी हमारे खेल की सूची में  शामिल होते थे।

हमारे पड़ोस में एक खाली मकान होता था। हमलोगों ने उस का नाम भूतहा-मकान रखा था। हालांकि वो मकान भूतहा था नही, पर हम बच्चों की कल्पना का क्या! हम जब वहाँ आइसपाईस खेलते थे तो उसघर में कही भी अकेले छिपने से डरथे थें। सभी बच्चे एक साथ छिपा करथे थे और जिसे हमे ढूँढना होता था उहको अलग-अलग आवाजों से डराते थे। इसका परिणाम ये होता था कि वो हमें नही बल्कि हमें ही उसको ढूँढना पड़ता था और भूले- भटके अगर कभी कोई बच्चा इतना डर जाता कि बेहोश हो जाता तो उस दिन हम बच्चों की खैर नहीं।

बरसात का मौसम आ जाता मतलब जुलाई तब स्कूल का नया सत्र अप्रैल से नहीं बल्कि जुलाई से शुरू होता था। नए-नए कपड़े नयी काँपी-किताबे होती नये जूते होतें और होती नई-नई कक्षा। हम स्कूल में  जाते हाँ साथ में  मेंढक को पकड़ कर साथ स्कूल ले जाना ना भूलतें और फिर डाल देते किसी बच्चे के बस्ते में। यहाँ मासाब कक्षा में  आगे पढ़ा रहें होते और कक्षा में मेंढक बाहर खुले में घुमना चाहता और अपनी आजादी के लिए अपनी आवाज बुलंद कर जोर से टर-टर करता। मासाब को गुस्सा  आता और हर बच्चे का बस्ता तलाशा जाता और अंत में जिसके बस्ते से मेंढक चिल्लाते हुऐ बाहर कूदता उस बच्चे को पिटाई और सजा साथ-साथ मिलती क्योकि मेंढक से ना केवल बच्चे डर कर चिल्लाते बल्कि मास्टर जी भी डर कर लड़खड़ाते हुऐ कुर्सी में बच्चे के ऊपर गिरते। कक्षा में  शोर मचता फिर प्रधानाचार्य जी मास्टर जी को डाँटते और मास्टर जी फिर हफ्ते भर तक अपना गुस्सा उस बच्चे पर उतारते।

स्कूल से लौटते समय हम खूब शरारतें करते व रास्ते में यदि कोई पानी का गड्ढा मिल जाता तो हम कागज की नाव बनाकर पानी में तैराते और तैरते हुऐ नावों को देखकर ताली बजा-बजाकर आन्नदित होतें। हम लोग बाँस के डंडी से बंदूक बनाते व छोटो-छोटी कागज की गोलिया बनाते व एक दूसरे को मारते थे।

बरसात का मौसम व्यतीत होने के पश्चात शरद का मौसम आता और रामलीला की शुरूआत होती। हम लोग रामलीला देखने के लिऐ जाखनदेवी जातें। जाखनदेवी की रामलीला अल्मोडा की फेमश रामलीला होती थी। हम लोग दिन में सो जाते ताकि रातभर जगकर रामलीला देख पाएं। शाम होते ही दरी मतलब बोरी लेकर जगह घेरने चले जातेंव वही बैठे रहते। हमलोग मूँगफली वाले से ढेर सारी मूँगफली ले लेते। अच्छा मूँगफली वाला भी हमें मूँगफली दे देता शायद उसे भी पता था कि पैसे तो मिल ही जाना है।

बरसात के ही मौसम में आता रक्षाबंधन का त्यौहार जब दीदी एवं छोटीदी हम भाइयों को राखी बांधती फिर बाबूजी हमारे हाथ मेंं रक्षा-सूत्र बांधते हुए एक मंत्र पढ़ते जो इस प्रकार होता।

येन बद्धो बली राजा,दानवेन्द्रो महाबलः। तेन तवामनुबध्नामि रक्षा मा चल मा चल।।

इसके बाद फिर हम सब लोग पूरी, पापड़ ,अरबी(पिनालू) के पत्ते को पापड़ भी कहते हैं मूली, गडेरी की मिली-जुली सब्ज़ी ककड़ी का रायता जो नाक में  लगता, भात दाल, बड़े सिंघल व पुए खाते राखी भी बड़ी व चंमकिली  होती। मिठाई खाते वो अलग व सिंगोड़ी व मलाई के लड्डू।

फिर आता खतड़वा, जिसमें  हम खतड़वा का पुतला बनाते व बुराँश के चंमकिली झाड़ भांग के डंडे हजारी के फूलों से मिलकर एक हथियार बनाकर पुतले को आग लगाकर फिर पीटते साथ ही साथ ककड़ी काटकर खाते इस कार्यक्रम में पूरा मुहल्ला शामिल होता।

रामलीला में जब सीता हरण प्रसंग चल रहा होता और जब रावण सीता माता का हरण कर रही होता तो हमारे बाल-सुलभ मन राम पर क्रोधित होता कि क्यों नही राम आकर सीता माता को बचा ले जातें? खैर सीताजी का हरण हो जाता और मैं खूब रोता। खैर थोड़ी देर मेंं जब राम,लक्ष्मण के साथ वापस आते तो मैं चिल्लाता कि सीता माता को रावण अभी-अभी उठाकर ले गया है जाओ उसे बचाओ। पर माईक के शोर में मेरी आवाज दब कर रह जाती। रामलीला यूँ  तो दस दिन में समाप्त हो जाती पर मेरी रामलीला तो चलती रहती। दीपावली को भी हम आनन्द के साथ मनातें। दीप जलाते, मोमबत्ती जलाते,बम-पटाखे फोड़ते। फिर पूजा करने के बाद हम खुब मिठाई खातें, पुए सिंगल खाते, खिल-खिलौने खाते खास-तौर में खिल को दूध में डालकर खाते। रात में हम बाजार दीपावली देखने जातें।

यूँ तो बचपन की बहुत सारी यादें हैं मेरे पास मैं  सोच रहा हूँ कि क्यों ना इसकी एक श्रृंखला ही तैयार करलूँ।

चलिए मेरी कोशिश होगी कि मैं जल्द ही एक श्रृंखला के साथ  आपके सामने प्रस्तुत होऊँ।

तब तक के लिए आज्ञा दें ।

नमस्कार

धन्यवाद ।

 

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