उत्तराखण्ड में पृथक राज्य की मांग के लिए जब व्यापक जन-आंदोलन चल रहा था तब उस समय यह नारा सर्वाधिक चर्चित रहा था – ’मडुआ बाड़ी खायंगे उत्तराखण्ड राज्य बनायेंगे’ |

उत्तराखण्ड में मडुआ की खेती का इतिहास गेंहू की खेती से भी पुराना माना जाता है. मडुआ का वानस्पतिक नाम एल्युसिन कोरेकाना है जिसे भारत में रागी नाम से जाना जाता है |

पर्वतीय जलवायु, मिट्टी के गुण व जैविक खादों की वजह से पहाड़ का मडुवा स्वाद व पौष्टिकता दोनों में लाजबाब माना जाता है, वैज्ञानिक विश्लेषणों से सिद्ध हुआ है कि मडुआ में कैल्शियम, फास्फोरस, आयरन, विटामिन ए, कैरोटिन की मात्रा प्रचुरता से रहती है|

उत्तराखण्ड में सबसे अधिक मडुआ पैदा होता है | मडुआ के आटे का मुख्य उपयोग रोटी बनाने में होता है जिसे साबुत तौर पर अथवा गेहूं के आटे के साथ मिलाकर बनाया जाता है| 

घी, गुड़, छांछ अथवा हरी सब्जियों के साथ खाने से इसकी रोटियों का स्वाद और बढ़ जाता है, मडुआ के आटे से सीड़े, डिंडके, पल्यो और लेटुवा जैसे कई पारम्परिक व्यंजन भी बनते हैं|

उत्तराखण्ड के कुछ सीमान्त इलाकों में सामाजिक-सांस्कृतिक परम्परा के निर्वहन के तौर पर मडुआ के दानों से स्वादिष्ट ‘सूर’ यानि शुद्ध शराब भी बनायी जाती है. ग्रामीण लोग पालतू मवेशियों, विशेषकर कमजोर अथवा बीमार भैंसों को इसके आटे का घोल पकाकर खिलाते हैं|

प्रसूता महिलाओं और छोटे बच्चों में दूध की कमी दूर करने के लिए इसके आटे की बाड़ी (तरल हलवा) का उपयोग खास तौर पर किया जाता है|

मडुआ में मौजूद पोषक तत्वों की अधिकता को देखते हुए विगत कुछ सालों से देश-विदेश से पहाड़ी जैविक मडुआ की मांग निरन्तर बढ़ रही है|

भारत में खाद्य सामग्री का उत्पाद करने वाली कई नामी कम्पनियां रागी ओट्स, नूडल्स, पास्ता ,बिस्किट्स फ्लैक्स, चाकोज सहित रागी डोसा ,रवा-इडली मिक्स सहित बच्चों के लिए कई तरह के स्नैक्स बाजार में बेच रही हैं |