उत्तराखंड स्वतंत्रता आन्दोलन

by Ranjeeta S
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उत्तराखंड स्वतंत्रता आन्दोलन

1857 की क्रान्ति-

1857 के आन्दोलन का असर राज्य में बहुत कम था, क्योंकि-
1. अन्याय पूर्ण गोरखा शासन की अपेक्षा लोगों को अंग्रेज शासन सुधारवादी लग रहा था।
2. कुमाऊँ कमीश्नर रैमजे काफी कुशल और उदार शासक था।
3. टिहरी नरेश की अंग्रेजों के प्रति भक्ति थी।
4. राज्य में शिक्षा, संचार जथा यातायात के साधनों की कमी थी।
5. उपरोक्त बातों के बावजूद राज्य में कुछ छिट-पुट कुछ आन्दोलन हुए थे।

• चम्पावत जिले के बिसुंग (लोहाघाट) गाँव के कालू सिंह महरा ने कुमाऊँ क्षेत्र में गुप्त संगठन (क्रांतिवीर) बनाकर अंग्रेजों के खिलाफ आन्दोलन चलाया। इन्हें उत्तराखण्ड का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने का गौरव प्राप्त हैं।
● कुमाऊँ क्षेत्र के ही हल्द्वानी में 17 सितम्बर 1857 को राज्य के लगभग एक हजार क्रांतिकारियों ने हल्द्वानी पर अधिकार किया था, जिस पर अंग्रेज बड़ी मुश्किल से पुनः कब्जा कर पायें। इस घटना में अनेक क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति दी।

1857 के बाद-

1857 के बाद राज्य में आर्य समाज तथा अन्य संगठनों द्वारा किये गये धार्मिक-सामाजिक सुधारों तथा शिक्षा के प्रसार के प्रयासों से लोगों में राजनैतिक चेतना का विस्तार हुआ।
● 1870 में अल्मोड़ा में डिबेटिंग क्लब की स्थापना तथा 1871 से अल्मोड़ा अखबार के प्रकाशन से राज्य में विशेषकर कुमाऊँ क्षेत्र में राजनीतिक चेतना का विस्तार हुआ।
● 1886 में कलकत्ता में हुए कांग्रेस के दूसरे सम्मेलन में कुमाऊँ क्षेत्र के ज्वाला दत्तजोशी सहित दो नेताओं ने भाग लिया।
● 20 वीं शती के प्रथम दशक में उत्तराखण्ड के राजनीतिक मंच पर पंडित गोविन्द बल्लभ पंत का प्रवेश हुआ। राज्य में राजनीतिक चेतना के विस्तार के लिए 1903 में उन्होंने हैपी क्लब नाम से एक संस्था बनायी

● बंगाल विभाजन (1905) के बाद देश भर में चलने वाले बहिस्कार और स्वदेशी आन्दोलन का राज्य में व्यापक असर रहा।
● सरकार की वन नीति के विरोध में नैनीताल और गढ़वाल जनपदों में 1911 से 1917 के बीच व्यापक जन आन्दोलन चला। इस क्षेत्र के नेताओं ने इस आन्दोलन को स्वतंत्रता आन्दोलन से जोड़कर इसको और व्यापक बना दिया।
● राज्य में राजनीतिक चेतना के प्रसार तथा आन्दोलन को संगठित ढंग से चलाने के लिए कुमाऊँ क्षेत्र में अल्मोड़ा कांग्रेस (1912 में) की स्थापना की गयी।
● तिलक और बेसेन्ट द्वारा 1914 में शुरु किये गये होम रुल (स्वशासन) लीग आन्दोलन से प्रेरित होकर विक्टर मोहन जोशी, बद्रीनाथ पांडेय, चिरंजीलाल और हेमचंद आदि ने मिलकर राज्य में होमरूल लीग आन्दोलन चलाया।
● द. अफ्रीका से लौटने के बाद 1916 में गांधी जी देहरादून की भी यात्रा पर गये थे।
● राज्य की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा शैक्षणिक समस्याओं पर विचार करने के लिए गोविन्द बल्लभ पंत, हरगोविन्द पंत, बद्रीदत्त पाण्डेय आदि नेताओं के प्रयासो से 1916 में कुमाऊँ परिषद का गठन हुआ। आगे चलकर यह परिषद कुली बेगार, कुली उतार, जंगलात कानून, बन्दोबस्त प्रणाली आदि स्थानीय समस्याओं के साथ ही स्वतंत्रता आन्दोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगा। रोटेल एक्ट के विरोध में परिषद ने विरोध प्रदर्शन और सभाएं आयोजित की। 1926 में इसका विलय कांग्रेस में हो गया।
● जैसा कि ऊपर बताया गया है कि गड़वाल क्षेत्र में स्वतंत्रता आन्दोलन अपेक्षाकृत बाद में शुरू हुए। 1918 में बैरिस्टर मुकुन्दी लाल और अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के प्रयासों से गढ़वाल कांग्रेस कमेटी का गठन हुआ। इन दोनों नेताओं ने 1919 के अमृतसर कांग्रेस में भी भाग लिया था।
● सन् 1920 में गांधीजी द्वारा शुरू किये गये असहयोग आन्दोलन में राज्य के लोगों ने बढ़ चढ़कर भाग लिया। इस आन्दोलन के दौरान ही 1921 में बद्रीदत्त पाण्डेय, हरगोविन्द पंत और चिरंजीलाल, के नेतृत्व में कुमाऊँ मण्डल के 40 हजार स्वतंत्रता सेनानियों ने बागेश्वर में सरयू के तट पर कुली बेगार न करने की शपत ली और इससे सम्बंधित सभी रजिस्टर नदी में बहा दिये गये।
● 14 जून से 2 जुलाई 1929 तक गांधी जी और नेहरू ने कुमाऊँ क्षेत्र के हल्द्वानी, भवाली, ताड़ीखेत, अल्मोड़ा, बागेश्वर व कौसानी आदि स्थानों पर कई सभाएं की कौसानी में अपने प्रवास (12 दिन) के दौरान गांधी जी ने अनाशक्ति योग नाम से गीता की भूमिका लिखी। कौसानी को उन्होंने भारत का स्विटजरलैण्ड कहा।
● 16 से 24 अक्टूबर 1929 तक गांधीजी ने गढ़वाल क्षेत्र में कई सभाएं की।
● 26 जनवरी, 1930 को टिहरी रियासत को छोड़कर पूरे उत्तराखंड में जगह-जगह पर तिरंगा फहराया गया और कई स्थानों पर नमक बनाया गया। साबरमती से डांडी तक महात्मा गाँधी के साथ गए 78 सत्याग्रहियों में तीन (ज्योतिराम कांडपाल, भैरव दत्त जोशी और गोरखावीर खड़क बहादुर) उत्तराखण्ड के थे।
● ब्रिटिश गढ़वाल में पहला राजनीतिक सम्मेलन 1930 में दुगड्डा में हुआ था। आजादी के तमाम आंदोलनों को गढ़वाल के कोने-कोने तक पहुंचाने में ऐतिहासिक नगरी दुगड्डा की अहम भूमिका रही है। दुगड्डा में आंदोलनों की रूपरेखा स्वतंत्रता सेनानी पं. धनीराम मिश्र के राष्ट्रीय होटल में तय की जाती थी। यह होटल 1942 तक आंदोलनकारियों का मुख्य स्थल था लेकिन अब यह अमूल्य धरोहर खंडहर में तब्दील हो चुका है।
● 23 अप्रैल 1930 को पेशावर में 2/18 गढ़वाल राइफल्स के सैनिकों ने चन्द्रसिंह गढ़वाली के नेतृत्व में निहत्थे अफगान स्वतंत्रता सेनानियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया था। इतिहास में यह घटना ‘पेशावर काण्ड’ के नाम से प्रसिद्ध है।
● पेशावर काण्ड से प्रभावित होकर मोतीलाल नेहरू ने सम्पूर्ण देश में गढ़वाल दिवस मनाने की घोषणा की।
● उग्र राष्ट्रवादी आन्दोलन में भी राज्य के अनेक युवकों ने सक्रिय योगदान दिया। 1930 के गाड़ोदिया स्टोर डकैती काण्ड में भवानी सिंह सहित राज्य के कई युवक थे।
● सोमेश्वर (अल्मोड़ा) के नजदीक चनौदा में 1937 में शांतिलाल त्रिवेदी के प्रयास से गांधी आश्रम की स्थापना हुई जिससे तह स्थान राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया। 2 सितम्बर, 1942 को कमिश्नर ने वहां मौजूद कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर गांधी आश्रम पर ताला लगा दिया।



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