आहा से ओह तक

by Atul A
588 views


डायरी के पन्नो से
मित्र के साथ स्कूल से तीसरे period के बाद भाग के घर को चले आना, बरसातों के मौसम में, अलग अलग घरों से, रास्ते में आयी बेलो में लगी लौकी, ककड़ी, कद्दू को तोड़ कर फेंक देना (यहाँ साफ़ कर दूँ मकसद, चोरी का या किसी को परेशान करने का तो बिलकुल नहीं होता था, उसका उस उम्र में अपना एक थ्रिल और adventure था)…
घर से मिली चवन्नी, अट्ठनी या एक रूपया मिलने में वो बात होती थी जो अब हजारों में नहीं, …

Exams में viva में अच्छे मार्क्स के लिए tuition उन्ही मासाब के वहां जाना जो practical subject पढाते हों, सुबह सुबह tuition से लौटते हुए, जब रास्तो में ज्यादा चहल पहल नहीं होती थी, नयी बनी हुई सीढियों से रोज 1-2 ईटे बड़ी मेहनत कर के तोड़ देना… (आहा)

समय बदला…

अभी कल शाम ही व्यस्त शहर के व्यस्त इलाके के एकमात्र खेल मैदान में (जिसके तीन तरफ मकान/दुकानें आदि और सामने सड़क है), 10-12 साल के कुछ लड़को को चार- पांच बड़े व्यक्ति डांटते हुए दिखाई दिए – “ये कोई खेलने की जगह है, खेलना है तो घर पर खेलो, यहाँ तुम्हारी गेंद दुकान में आ रही है, रास्ते में किसी को लग जायेगी, कौन जिम्मेवार होगा… ” उसी जगह पर (शायद) यही 4-5 लोग पिछले हफ्ते कुछ और ही कहते सुनाई दिए थे – “अब के बच्चो में कहाँ शारीरिक विकास होता है साहब, अब तो वो कंप्यूटर गेम, मोबाइल, फेसबुक, इन्टरनेट में व्यस्त रहते है…” (ओह)

(Note
– ये कुछ समय, कुछ समय क्या… तब लिखा था जब social distancing जैसी कोई चीज रियल वर्ल्ड में नहीं होती थी, social/ physical distance तब सिर्फ virtual world यानि इंटरनेट की दुनिया में ही होती थी।)

 


(उत्तरापीडिया के अपडेट पाने के लिए फेसबुक ग्रुप से जुड़ें! आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर  और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं।)



Related Articles

Leave a Comment

-
00:00
00:00
Update Required Flash plugin
-
00:00
00:00

Adblock Detected

Please support us by disabling your AdBlocker extension from your browsers for our website.