घर जो छोड़ना पड़ा

by Rajesh Budhalakoti
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almora patal bazar

चम्पानौला का तिमंजिला मकान, मेरी दिल्ली वाली बुआ के ससुराल वालों का था, और हम लोग उस मकान के पाँच कमरों मे साठ रुपये महीने के किरायेदार थे। बीच वाली मंजिल मे देबी बुआ, सबसे ऊप्पर सांगुड़ी जी मास्टर साहब और बगल में ख्याली राम पांडे जी का परिवार रहता था। आलीशान भव्य मकान दोनो तरफ़ आगन, बडा सा प्रवेश द्वार और दो दो खेत, एक गेट के पास जिस पर हम लोग साग सब्जी बोते थे, दूसरा कैजा के आधिपत्य मे जहा वो खेती करती थी। कैंजा वाले खेत में निम्बू का पेड़ तो हमारे कीचन गार्डन मे आडू का पेड़ था।

जनाब क्या दिन थे बचपन के, मौज मस्ती खेल कूद आईस पाईस, क्रिकेट, सेवन टाइम…। ऊप्पर बड़े घर में मिट्ठू दाजू रहते, पीछे दिनेश घन्चव्वा, बगल मे के सी, पी के, भय्या, नीचे निर्मल, सुदामा, सीटी और बहुत सारे संगी साथी। तब माता पिता बच्चों की पढ़ाई लिखाई की ज्यादा टेंशन नहीं लेते थे, ट्यूशन पढ़ना जो आज कल आम बात है, तब बहुत कम लोग पढ़ते थे और इसकी जरूरत कम बुद्धि वाले बच्चों को होती थी। बस स्कूल से आये, सब मित्रों का जमावडा, खेल कूद और मौज मस्ती, बचपन बड़े प्यार से गुजरा।

हमारे घर का आंगन, वहाँ पर उप्लब्ध स्लेट पत्थर का बना था, और अलग अलग समय पर वहां अलग अलग क्रिया कलाप होते थे। जहां वो आंगन जाड़ों में धूप सेकने का अड्डा हुआ करता था, वहा बड़ी मुन्गोडी बना कर सारे घर वाले वही सुखाते थे, बच्चों के खेल का मैदान, बड़ों के गप्प मारने की जगह, शादी विवाह के समय कनात लगा कर खाना खाने का व्यव्स्थित डायनिंग रुम बन जाता था। इसी आँगन से मेरी बहन अपने ससुराल गयी, हमारे घर मे छोटे भाई की बहू आयी, और मेरी धर्मपत्नी का घर में प्रवेश इसी के आंगन से होते हुए सम्पन्न हुआ। इसके अलावा हमारे प्यारे बाबूजी की अन्तिम विदाई का गवाह भी यह आँगन बना। मित्रो, मुझे तो अब तक यह याद है कि इस आंगन में कहा पर किस रग का पत्थर लगा है, और इसके हर कोने से मेरी खट्टी मीठी यादे जुडी हैं। मुझे याद है, होली मे होलियारो की टोली जब हमारे घर आती, ढोल ताशे बजते, खडी होली गायी जाती, सूजी गुजिया और जम्बू जखीया वाले आलू खिलाये जाते, तब इसी आँगन में सारे लोग समा जाते और खूब हुड़दंग मचता। इस आगन में होली का गुलाल बिखरता तो दिवाली के दिये भी जलते।

धीरे धीरे हम सब भाई आजीविका कमाने अल्मोडा से बाहर निकले, बाबुजी का देहान्त हो गया और ये मकान छूट गया। सबने अपनी अपनी गृहस्थी बसा ली। इजा भी अल्मोड़ा छोड लखनऊ रहने लगीं, और वो घर का सारा सामान, मेरी किताबें, अजय के जीते कप ट्रॉफीया, नेहा के खिलोने, पुराने फोटो सब वहीं बन्द हो गये, बस रह गयी वो यादें, जो इन चीजो से जुडी थी, कभी सुखद तो कभी आंखे नम कर देने वाली।

घर का बड़ा बेटा होने के नाते कभी अच्छे कामों में तो मुझे आगे आने का अवसर न मिला और न दिया गया, लेकिन जब भी कोई ऐसा काम करना होता जो मुझे कदापि नहीं भाता, तो मुझे ये अहसास करा कर कि मैं बड़ा हूँ, वो काम करवाये जाते। तो जनाब अल्मोड़ा के इस मकान को खाली करने का कार्य भी मेरे नसीब में ही आया। एक एक कर उस गृहस्थी को तिनका तिनका होते देखा, जिसे हमारे बाबुजी जी ने बड़ी मेहनत से जोड़ा था। ये तू ले जा, ये उसे दे देना, कह कर बाबुजी द्वारा जोड़ा गया एक एक सामान बाटा। घर खाली किया। चन्द तस्वीरें मैंने भी अपनी श्रीमतिजी से आँख बचा कर रखी, पर उन्होने वो तस्वीरें भी देख ली और देख लिये मेरी आंखो के आँसू, जिन्हें मैं किसी को दिखाना नही चाह रहा था। खैर जनाब, जब सब कुछ खाली कर जब चम्पानौला की सीढ़िया चढ़ रहा था, तब एक एक कदम रखना बहुत ही भी भारी पड़ रहा था, और मुझे सुमन के कन्धो का सहारा लेना पडा।


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