गीत को लय में ढालना शेष था (कविता)

by Rajesh Budhalakoti
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जब मन ने विचारों के समुद्र में गोते लगाये,
गहरे पानी पैठ शब्दों के दो मोती पाए।
फिर कल्पना के आकाश में ऊँची उडान भरी,
सुंदर भावो के धागे में वो मोती पिराये।

मन तब सुंदर विषय के लिए भटका,
सुंदर एक विषय पर मन अटका।
विषय को कल्पना से सुंदर भावो मे पिरोया,
एस तरह कविता का एक छ्न्द  पाया।

अब मन विषय के विभिन रंगों में भटकने लगा,
सोच समझ कर दिल दिमाग का सामंजस्य बना।
मन की  विचार शीलता मस्तिस्क के गहनता काम आयी,
दोनों के मधुर मिलन से ही कविता बन पाई।

अब उस कविता में रंग भरने के बारी थी,
हवा के वेग नदी की कल कल को समझने की पारी थी।
हवा के वेग नदी की कल कल को शब्दों का रूप देना था,
प्रेयसी की व्यथा कवी हिरदय की कथा प्रेमी की सिहरन विरहनी के विहरन।

एन सब भावो को लय में बाँधना था, एक गीत बनाना था,
अंततः गीत को लय में ढालना शेष था,
लय का तारतम्य ताल से बैठाना शेष था,
सुर को सुरम्य बनाने को आवाज का पाना शेष था।

लय ताल सुर आवाज के समिश्रण में कुछ कमी पाई,
सब कुछ पाया पर आवाज दिल से न आयी।
तब कही दूर एक तनहा इंसान पाया,
सारे जहा को छोड जिसने दर्द को गले लगाया।
मेरा ये गीत जब उसने गुनगुनाया,
जिसने सुना आवक रहा आँखों के आंसू न रोक पाया।


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