मिलारेपा तिब्बत का एक महान तांत्रिक

by Mukesh Kabadwal
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जब कभी तिब्बत का नाम आता है, तो याद आंखों के सामने खूबसूरत प्राकृतिक नजारे घूमने लगते हैं. कानों में गूंजती हैं ‘बुधम शरणम गच्छामि’ की गूंज!

तिब्बत की धरती में अध्यात्म और मानवीय चेतना को समर्पित रही है. इस धरती ने कई महापुरूषों को आत्मज्ञान दिया है, जिन्होंने आगे चलकर दुनियाभर में उसका प्रचार किया. इन्हीं गुरूओं में से एक हैं ‘मिलारेपा’.

मिलारेपा का नाम तिब्बत के इतिहास को और ज्यादा गौरवांवित बनाता है. उन्होंने गुरू और शिष्य की नई परिभाषा को तो गढा ही, साथ ही अकेले कैलाश पर्वत तक की चढाई की. यह वो असंभव काम था, जिसे कम से कम कलयुग में तो किसी ने अंजाम नही दिया था.

यही कारण रहा कि ​’मिलारेपा’ पूरी दुनिया के लिए किसी रहस्य से कम नहीं रहे हैं. मिलारेपा ने ज्ञान पाने के लिए तिब्बत गुरू ‘मार्पा’ को अपना गुरू बनाया था, लेकिन उनके बीच कुछ ऐसा हुआ कि बाद में ‘मार्पा’ खुद मिलारेपा के शिष्य बन गए.

तो चलिए आपको लेकर चलते हैं मिलारेपा की कैलाशयात्रा पर और जानते हैं कैसे उन्होंने अपने ही गुरू को अपना शिष्य बना लिया—

तिब्बत में करीब 850 वर्ष पहले एक सम्पन्न परिवार में ‘मिलारेपा’ का जन्म हुआ था. जब वे केवल 7 साल के थे, तभी उनके पिता का देहांत हो गया था. परिवार में मां और बहन के साथ मिलारेपा अकेले हो गए. उनके चाचा ने पूरी जायजाद हड़प ली.

इस तरह मिलारेपा का परिवार असहाय हो गया. वे अपने ही घर में नौकर बन गए. उनकी मां ने चाचा से अपनी संपत्ति वापिस लेने के अनेक प्रयास किए, लेकिन वह सफल नहीं हो पाईं. इसी तरह कुछ साल और बीत गए.

मिलारेपा की उम्र 13 साल हो चुकी थी. एक दिन वे कोई गीत गुनगुनाते हुए अपने घर पहुंचे. उनकी मां को इस गुनगुनाहट से परेशानी हुई और वे भीतर जाकर एक हाथ में डंडा और दूसरे में राख लेकर आईं. उन्होंने मिलारेपा की आंख में राख फेंककर मारी और फिर डंडे से पिटाई  शुरू कर दी.

मिलारेपा कुछ समझ पाते इसके पहले ही मां के प्रहारों से घायल हो गए.  मां भी अपने बेटे की तकलीफ देखकर बेहोश हो गईं.

होश में आने का बाद मिलारेपा की बोली कि तुम कैसे बेटे हो? तुम्हारा खून नहीं खौलता? तुम अपने पिता और माता के अपमान का बदला लेने की बजाए गीत गुनगुना रहे हो. यदि कुछ करना ही चाहते हो तो बदला लो. यह बात मिलारेपा के मन में घर कर गई और उसने बदला लेने के लिए तंत्र साधना का सहारा लेना चाहा.

इसके लिए उसने तिब्बत के तंत्र गुरूओं से  तंत्र विद्या सीखी ।  

यह विद्या सीखने में कई साल गुजर गए. तब तक चाचा और बुआ का परिवार अपने से ज्यादा संपन्न हो गया. मिलारेपा ने तंत्र साधना सीखकर उनके खेतों पर ओलावृष्टि की, जिससे एक ही साल में पूरी फसल खराब हो गई.

चाचा और बुआ दुखी हो गए, लेकिन मिलारेपा भी खुश नहीं रह सका. क्योंकि इतने सालों में उसने अपनी मां और बहन की सुध नहीं ली थी. आखिर वे बीमारी की चपेट में आकर मृत्यु को प्राप्त हो चुकी थीं.

यह जानने के बाद मिलारेपा पहले से ज्यादा गुस्से में था. उसने अपने चाचा के बेटे की शादी में ओलों की बारिश की, जिससे मेहमान व चाचा-चाची की मौत हो गई.

मिलारेपा ने अपना बदला तो पूरा कर लिया था. वह खुश था पर इसे पूरा करने की सनक में उसने अपनी मां और बहन को खो दिया था.

इससे वह दुखी भी था. जब उसका मन शांत हुआ, तो उसे अपनी गलती का एहसास हुआ. वह पछतावे से भर गया. वह इस दोष से मुक्त होना चाहता था और इसलिए उसने आध्यात्म की शरण ली.

जब मिलारेपा आध्याम के मार्ग पर चलने के लिए गुरू की तलाश कर रहे थे, तब उन्हें किसी ने भारत से योग विद्या (नालन्दा विश्विद्यालय ) सीखकर आए गुरू मार्पा के बारे में बताया. वे मशहूर गुरु नारपा के शिष्य भी थे.

मिलारेपा मार्पा की शरण में पहुंचे. उन्होंने देखा कि मार्पा खेत जोत रहे हैं. मिलारेपा ने उन्हें देखते ही खेत जोतना शुरू कर दिया. मार्पा कुछ देर में वहां से चले गए और मिलारेपा अपना काम खत्म करके उनके पास पहुंचे.

मार्पा ने उनसे कई तरह के शारीरिक श्रम करवाए. मिलारेपा सब कुछ करते गए और फिर अंत में बोले कि गुरूदेव मैं आपसे ज्ञान का आशा रखता हूं. मैं पु: जन्म के फेर से मुक्त होना चाहता हूं. मैं यहां आपको अपना शरीर, अपना दिमाग और अपनी बोली अर्पित करता हूं और बदले में खाना, कपड़े और ज्ञान की अभिलाषा रखता हूं.

मार्पा ने कहा कि मैं तुम्हें ज्ञान दे सकता हूं पर अपने रहने खाने का इंतजाम खुद करना होगा . मिलारेपा ने यह बात स्वीकार कर ली और वह खाने का इंतजाम करने के लिए भीक्षा मांगने निकल गया.

उसने एक बार में एक साल का अन्न जमा कर लिया. वह अन्न का बोरा लेकर मार्पा के घर पहुंचा और उसे जोर से पटक दिया. मार्पा अन्न के अपमान से नाराज हो गए और उसे बाहर निकाल दिया. मिलारेपा ने माफी मांगी पर मार्पा ने उससे कहा कि अब वह घर के बाहर के काम करेगा. उसे फिलहाल ज्ञान नहीं मिल सकता.

इसके बाद मिलारेपा 13 साल तक खेतों की जुताई और घर के काम करता रहा. वह कभी-कभी सत्संग में बैठने की कोशिश करता पर मार्पा उसे भगा देते.

मार्पा हर नए शिष्य को दीक्षा देते रहे और मिलारेपा के प्रति उनका व्यवहार सख्त होता गया. उन्होने इसके बाद भी कई सालों तक उससे अपने घर का काम और मेहनत करवाई. मिलारेपा बुजुर्ग हो चला था.

मार्पा की पत्नी दमेमा को उसकी हालत पर दया आई और उसने मिलारेपा को एक खत देते हुए कहा कि इसे मार्पा के शिष्य को दे दो वह तुम्हे दीक्षा दे देगा.

मिलारेपा खत लेकर शिष्य के पास पहुंचे और उसने उन्हें दीक्षित कर दिया, लेकिन आश्चर्य इस बात का था कि मिलारेपा को कोई अनुभव नहीं मिला. जब मार्पा को यह बात पता चली तो वे बहुत नाराज हुए और मिलारेपा को घर से निकाल दिया.

इसके बाद मिलारेपा इतना दुखी हुए कि उन्होंने आत्महत्या करने की सोची हालांकि, जैसे ही वे यह प्रयास करने वाले थे मार्पा वहां पहुंचे और उन्होंने मिलारेपा का गले लगाते हुए कहा कि अब असर मायनों में तुम्हें पछतावा हो रहा है और मैं तुम्हे दीक्षा देता हूं…

गुरू से दीक्षा​ मिलने के बाद भी मिलारेपा उन्हीं के सानिध्य में रहे. एक दिन मार्पा ने कहा कि यदि तुम उस ज्ञान के आधार पर ध्यान नहीं लगा पाते, जो तुम्हारे पास है तो इसका अर्थ बस यही है कि तुम नरक में पुनर्जन्म लेने वाले हो.

मार्पा ने उन्हें कैलाश पर जाकर ध्यान लगाने की सलाह दी.

1093 ईस्वी में मिलारेपा ने अपनी कैलाश यात्रा शुरू की. उनके साथ कुछ अनुयायी भी कैलाश यात्रा के लिए निकले. कैलाश पर पश्चिम की ओर से चढ़ाई करने पर सबसे पहले गुर्लासेही नाम की जगह आती है.

यह वह जगह है, जहां मिलारेपा पहुंचे तो देवताओं ने उनका सत्कार किया. ​इसके बाद मानसरोवर झील के पास वे अनुयाईयों के साथ रूके. वहां उनकी मुलाकात नारोवान चुंम  से हुई. नारोवन बोन धर्म के प्रचारक थे.

उन्होंने मिलारेपा से वहां आने का कारण पूछा. मिलारेपा ने उत्त्र दिया मैं कैलाश की चोटी पर जाकर ध्यान लगाना चाहता हूं. नारोवान ने कहा कि कैलाश पर केवल वही ध्यान लगा सकता है, जो बोन धर्म का अभ्यास कर रहा हो.

मिलारेपा ने कहा किआचार्य शाक्य ने कहा है कि कैलाश पर सभी बौद्ध अनुयायी योग साधना कर सकते हैं. यही कारण है कि मेरे गुरू मार्पा ने मुझे यहां साधना के लिए भेजा है. बोन धर्म और बौद्ध धर्म के कैलाश पर अधिकार को लेकर दोनों के बीच बहस शुरू हो गई. जब कोई हल न निकला तो नारोवान ने कहा कि कल सुबह, जो सबसे पहले कैलाश की चोटी पर पहुंचेगा.

कैलाश पर उसी का वर्चस्व होगा. मिलारेपा ने शर्त स्वीकार कर ली. नारोवान ने तत्काल ही कैलाश की चढ़ाई शुरू कर ​दी. जबकि, मिलारेपा आराम करने लगे. नारोवान कैलाश की चोटी तक पहुंचने ही वाले थे कि एक अनुयायी ने आकर मिलारेपा को नींद से जगाया और पूछा कि क्या हमें कैलाश छोड़ देना चाहिए.

उन्होंने कहा, नहीं!

इसके बाद मिलारेपा तेजी से कैलाश पर्वत पर चढने लगे. नारोवान चोटी के कुछ नजदीक ही पहुंचे थे कि सूर्योदय हो गया और सूरज की पहली ही किरण का प्रकाश वे बर्दास्त नहीं कर पाए . आंखों में तेज चमक लगने से वे कुछ पीछे हट गए. जबकि, मिलारेपा आसानी से कैलाश की चोटी पर पहुंचे. उन्होंने दोनों हाथ जोडकर सूर्यदेव को नमस्कार किया और उनकी रोशनी को खुद के शरीर में प्रवेश करवाया.

यह देख नारोवान को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने अपने किए की माफी मांगी. मिलारेपा ने उन्हें माफ कर दिया. इसके बाद उन्होंने उसी चोटी से कुछ बर्फ उठाकर नीचे फेंकी, जिससे एक छोटे पर्वत का निर्माण हुआ.

मिलारेपा ने वह पर्वत नारोवान को देते हुए कहा कि यह बोन धर्म के लिए है, जहां से तुम हमेशा कैलाश को देख सकते हो. आदिकाल में इस पर्वत को गैंगचुम यानि छोटे कैलाश के नाम से जाना गया. इस तरह मिलारेपा इतिहास के वो इकलौते मनुष्य है जिन्होंने कैलाश पर्वत की चढ़ाई पूरी की और फिर सालों तक वहां साधना की.

अपनी साधना पूरी करके मिलारेपा वापिस मार्पा के पास आ गए. मार्पा ने उन्हें तंत्र साधना सीखने के लिए एक अंधेरे कमरे में बंद कर दिया. जहां मिलारेपा को तंत्र विद्या की देवी डाकिनी के दर्शन हुए, जिन्होंने उसे बताया कि  ‘तुम्हारी साधना अधूरी है. अभी कुछ और ज्ञान मिलना बाकी है’.

मिलारेपा मार्पा के पास पहुंचे और यह बात बताई. मार्पा ने कहा कि ऐसा तुम्हारे साथ कैसे हुआ? वे जवाब तलाश करने के लिए वे अपने ‘गुरू नारोपा’ के पास पहुंचे.

नारोपा ने इस आश्चर्य को सुनकर कहा कि ‘अंधकार में डूबे उत्तर में आखिरकार एक छोटा सा प्रकाश चमका है.’ इसके बाद उन्होंने मिलारेपा और मार्पा को जीवन में संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करने की शिक्षा दी.

शिक्षा ग्रहण करके दोनों वापिस तिब्बत आ गए.

यहां पहुंचकर मार्पा ने मिलारेपा को प्रणाम किया और उन्हें अपना गुरू स्वीकार कर लिया. तिब्बत की संस्कृति में आने वाले सैकड़ों सालों में जो भी आद्यात्मिक विकास हुआ  वह मिलारेपा के ज्ञान का ही नतीजा रहा.

माना जाता है कि मिलारेपा आज भी कैलाश की किसी गुफा में ध्यान मग्न  हैं।



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