विदेशी धरती, अपहरणकर्ताओं के चंगुल में…

by Yashwant Pandey
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साल 2010
मैं 1 सप्ताह के लिए दार ए सलाम, तंजानिया गया हुआ था। मेरे डिस्ट्रीब्यूटर का ऑफिस इंडिया स्ट्रीट में था, लगभग 2:00 बजे तक उसके साथ व्यस्त था। उसके डिफेक्टिव सेटेलमेंट और कुछ पेंडिंग क्रेडिट नोट्स को लेकर। दार ए सलाम एक कॉस्टल शहर है। वर्ष भर गर्मी पडती हैं। 2:00 बजे से लेकर 3:30, अधिकांश दुकानें बंद हो जाती हैं।
 
मैं अपना काम निपटा कर निकल पड़ा। टेंपल स्ट्रीट में एक इंडियन रेस्टोरेंट था, वहां खाना खाकर होटल चला जाऊंगा, ऐसा मेरा प्लान था। वर्क प्लेस से इस इंडियन restaurant की दूरी लगभग 300 मीटर के आसपास थी। मैं पैदल निकल पड़ा, टेंपल स्ट्रीट के ठीक टर्निंग पर, एक ब्लैक कलर की लैंड क्रूजर लगी हुई थी। मिलिट्री यूनिफॉर्म में दो लोग खड़े थे। 6 फुट से अधिक लंबे और तगड़े भी। अचानक एक बंदा मेरे सामने पहुंचा, उसने एक कार्ड मुझे दिखाया और बोला – “मैं इमीग्रेशन डिपार्टमेंट से हूं, आपसे बात करनी है।” मैं खड़ा हो गया, उन्होंने मुझे गाड़ी के पास चलने को कहा। मैं गाड़ी के पास पहुंचा, गाड़ो का पिछला गेट खुला था। एक मिलिट्री यूनिफॉर्म में बंदा पीछे बैठा हुआ था। मैंने कहा – “यस सर….”; अचानक मैंने अपने नाक और मुंह पर किसी के हाथ का दबाव महसूस किया, और खुद को हवा में झूलता पाया। अगले ही पल मैं गाड़ी के अंदर पड़ा हुआ था।
पलक झपकते ही गाड़ी ने रफ्तार ले ली। मैं चीखा, “व्हाट आर यू डूइंग…. “, एक जबरदस्त घूंसा, मेरे बायें जबड़े पर पडा … खून के खारे स्वाद से मेरा मुंह कसैला हो गया। एक पिस्टल मेरे बायें पसली से लगी, और मुझे कहा गया – “अगर तुमने अपना मुंह बंद नहीं रखा तो तुम्हारी लाश फेंक देंगे सड़क पर….”। सेकंडस में मुझे समझ में आ गया कि मेरा अपहरण हो चुका है….।
लैंड क्रूजर, मोरोगोरो रोड पर 80 से 100 की स्पीड पर भाग रही थी। खिड़कियों के शीशे काले रंग का थे। मैं तो बाहर देख पा रहा था, लेकिन मुझे उम्मीद नहीं थी … बाहर से भी मुझे कोई देख पा रहा होगा। घर परिवार के चेहरे याद आने लगे… सिर्फ 3 साल पहले शादी हुई थी, घर में भाई बहन और मां, उनका क्या होगा….। मैं दहशत में था। गाड़ी अपने रफ्तार से जा रही थी…, लगभग 1:30 घंटे के बाद गाड़ी दाहिनी ओर मुड़ी, कच्चा रास्ता था, हिचकोले खाते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। मुंह में खून आना बंद हो गया था। धीरे धीरे मैं सोचने समझने की कोशिश कर रहा था। उस मनहूस घड़ी को कोस रहा था, जब मैं दारे सलाम आया था। मुझे खुद पर गुस्सा आ रहा था, … कि क्यों मैं 300 मीटर पैदल चला … मुझे टैक्सी ले लेनी चाहिए थी … लेकिन… लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था।
लगभग एक घंटे के बाद गाड़ी रुकी। उन्होंने खींच कर मुझे बाहर निकाला, गन लगाकर मुझे आगे बढ़ने को कहा। एक छोटा सा गांव था झाड़ियों से घिरा हुआ। मेरे आगे गाड़ी का ड्राइवर चल रहा था, मैं उसके पीछे पीछे चलने लगा, मेरे पीछे पीछे गन लेकर वही था, जिसने मुझे घुसा मारा था। एक सीमेंट का बना हुआ घर, जिसके बाहर एक खुला बरामदा, और पीछे कोई कमरा था, मुझे लेकर वहां पहुंचे। बरामदे में स्थित कमरे के दरवाजे को खोला, मुझे कमरे में धक्का दिया, मैं लड़खड़ाया और गिरते-गिरते बचा। एक और घुसा ने मेरे दिमाग को जड कर दिया, मेरा पर्स, बेल्ट, घड़ी, जूते सब कुछ ले लिया। मेरे पास में लगभग $1000 और $500 के आसपास तंजानियन सीलिंग थे। अगर तुम ज्यादा स्मार्ट बनोगे तो तुम्हारी लाश भी नहीं मिलेगी। और तुमने कॉर्पोरेट किया तो हम तुम्हें जाने देंगे, ऐसा कहकर वह कमरे को बाहर से बंद कर चले गये।
मैं धीरे-धीरे शांत होने की कोशिश कर रहा था। मेरी धड़कन भी बड़ी हुए थी और सांस भी तेज चल रही थी। लगभग आधा घंटा लगा मुझे सामान्य होने में। एक कमरा था, लगभग 20 फीट बाई 15 फीट का। जिसके भी फर्श भी टूटा फूटा था। कमरे की दीवारें लगभग 10 फीट ऊंची थी। कमरे में दो खिड़कियां थी, जिससे मोटे लोहे के ग्रिल लगे हुए थे। शायद कोई स्कूल का कमरा रहा होगा, क्योंकि एक दीवार में ब्लैकबोर्ड जैसा भी कुछ बना हुआ था। खिड़की से बाहर देखा, कच्चे रास्ते, पेड़ों के झुरमुट और कभी कभार इक्का-दुक्का महिला पुरुष या बच्चे भी दिखाई पड़ते थे। ऊपर छत के और देखा, टीन की छत, लकड़ी के मोटे तने को दीवार के ऊपर रखकर, उसके ऊपर टीन को रखा गया था। तना कम से कम 1 फीट मोटा होगा। अफ्रीका में लकड़ियां बहुतायत में उपलब्ध है, तो लोग यूं ही पेड़ को काटकर दीवार के ऊपर रख देते हैं, और टीन की छत को बांध देते हैं। मेरे आंखों में आशा की एक चमक दिखाई पड़ी, मुझे लगा मैं छत के ऊपर से निकल सकता हूं।
मैं चुपचाप कोने में जाकर बैठ गया और मन ही मन हनुमान चालीसा पढ़ने लगा। मुझे ध्यान में नहीं है, मैंने कितनी बार हनुमान चालीसा जपी होगी। शाम होने लगी थी।  रह-रहकर घर वाले याद आ रहे थे। फिर भी मैं ध्यान को हनुमान चालीसा पर कंसंट्रेट कर रहा था। अंधेरा हो गया था, मैं कोने में पड़ा हुआ था। अचानक दरवाजा खुला, एक लोकल बंदा अंदर आया, उसने थाली में चावल और कुछ करी, एक पुरानी प्लास्टिक की बोतल में पानी, कमरे में रख, बिना कुछ कहे, दरवाजे को बंद कर वापस चला गया। अभी तक मेरी तरफ से कोई प्रतिक्रिया ना होने से, वे भी निश्चिंत हो चुके थे। और मैं यह समझ चुका था कि मेरा अपहरण सिर्फ फिरौती के लिए हुआ था। 2 – 4 घूंट पानी पीकर मैं जमीन पर पड़ गया, पडे पडे हनुमान चालीसा जप रहा था, रात गहरी होती चली गई।
खिड़की के बाहर से भी कोई रोशनी दिखाई नहीं पड़ रही थी, इसका मतलब था उस गांव में बिजली नहीं है। मुझे पता नहीं चल पा रहा था, कितनी रात हो गई है। सूर्यास्त होने के लगभग 6 – 7 घंटे के बाद मैं उठा, दरवाजे में कान लगाकर सुना, कोई भी आवाज नहीं आ रही थी। खिड़की से दाएं बाएं देखा, कोई हलचल दिखाई नहीं पड़ रही थी। खिड़की के ऊपर का रॉड पकड़ कर एक पैर खिड़की पर रखा, फिर दूसरा पैर, ऊपरी दीवार को दोनों हाथ से पकड़ा, दीवार से सिर को बाहर निकाला, मेरा सिर बाहर निकल गया। फिर पूरे शरीर को खींच कर दीवार पर टिकाया, पैर को दीवार के दूसरी तरफ झुलाया, धीरे से खिड़की पर पैर को टीकाया, पहले एक पैर … फिर दुसरा … हाथ से खिड़की का रॉड और धीरे से एक पैर जमीन पर … फिर दूसरा पैर … देखा बाहर लैंड क्रूजर खड़ी थी। लगभग 50 मीटर दूर झाड़ियां थी, दिल की धड़कन बहुत बढ़ चुकी थी। दबे पाव मैं झाड़ियों के तरफ बढ़ा, झाड़ी में पहुंचकर थोड़ा दम लिया। धड़कन भी बढ़ी हुई ही थी, थोड़ा दम लिया। अंधेरे में मुझे कुछ पता नहीं चल पा रहा था, मैंने कच्चे रास्ते के साथ-साथ झाड़ियों में भागना शुरू कर दिया। नंगे पांव मैं सर पर पैर रख कर भाग रहा था, बीच-बीच में कुछ पैरों में बेतरतीब चुभ रही था। लेकिन मैं रुकने का नाम नहीं ले रहा था। मुझे लगता है कि कम से कम 4 किलोमीटर भागने के बाद, मैं पसीने से बिल्कुल लथपथ था। मैं थोड़ा रुका और दिशा समझने की कोशिश करने लगा। कुछ समझ में नहीं आ रहा था। एक पेड़ पर चढ़ गया, चारों तरफ देखने के बाद एक तरफ काफी दूर मुझे रोशनी की आती-जाती बीम दिखाई पड़ रही थी। मुझे समझ में आ गया वह हाईवे है। वहां मुझे कुछ मदद मिल सकती है। मैने उस दिशा में चलना शुरू कर दिया, लगभग 2 घंटे में, मैं हाईवे पर पहुंचा हूंगा।  पसीने से लथपथ, दोनों पैर खून से सन चुके थे, जानें कितने खरोंचे आई थी, और कितनी जगह से कटे-फटे थे, मैं गिन भी नहीं सकता था।
मैं झाड़ियों में छुपा हुआ था। जब भी कोई गाड़ी आती थी, तो सड़क पर आकर हाथ देता था। गाड़ियां नहीं रुकती तो मैं वापस झाड़ियों में जाकर छुप जाता। लगभग 7 – 8 गाड़ियों के बाद, एक ट्रक रुका। मैंने उससे दार सलाम के लिए कहा, क्लीनर ने मुझे ट्रक पर बैठने का इशारा किया। मेरी हालत देखकर वह समझ चुका था, उसने मुझसे कहा क्या तुम्हारा अपहरण हो गया था?  मैंने कहा – नहीं, मैं इधर आया था, रास्ता भटक गया था। ट्रक वाले ने कहा – “मैं समझता हूं…” लगभग 2 घंटे मैं दारे सलाम पहुंच गया था…
उसके बाद f.i.r. हुई, कुछ नतीजा नहीं निकला। मैं वापस हिंदुस्तान लौट आया। अब भी जाता हूं साल में एक दो बार … वैसे सावधानी बरतता हूं … ईश्वर की असीम अनुकंपा है।

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