आँगन बचपन वाले अब कहाँ!

by Himanshu Pathak
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बचपन!  क्या दिन हुआ करते थे वो भी। सुबह-सुबह  बिस्तर से उठकर घर की देहरी में बैठकर, मिचमिचाई आँखों को मलते हुऐ, मैं, आँगन को निहारा करता था। आँगन में चिड़ियाऐं चहचहाती थी। पेड़ों  से छनती हुई पहाड़ों की ठंडी हवाऐं मेरी नींद उड़ाती नही थी। उल्टा प्यारी-प्यारी झपकी मेरी आँखों पर हावी हो जाती थी। कई बार तो ऐसा होता था कि मैं ऊंघते-ऊंघते गिर भी जाया करता था। ईजा बांसी रोटी में, घी व चीनी मिलाकर दे देती थी। मैं  भी बिना दाँत मले रोटी खा लेता था।

[dropcap]खै[/dropcap]र यहाँ मैं आँगन के बारे में बात कर रहा हूँ। मैं अल्मोड़ा, पनियाउडार में रहता था। मेरे घर के बाहर एक आँगन हुआ करता था।

तब आँगन किसी का व्यक्तिगत ना होकर पूरे मुहल्ले का होता था। बड़े-बड़े पत्थरों का बना आँगन पूरे मुहल्ले की शरणस्थली हुआ करता था। सुबह हो, शाम हो, रात हो या दिन हो आँगन हमेशा व हर घड़ी गुलजार रहा करता था। बच्चें आँगन में खेला करते थे,बूढ़े अपनी मन की बात आपस में कर लिया करते थे। महिलायें अपने पूरे सप्ताह की योजनाऐं आँगन में बनाया करती थी। अच्छा महिलाओं की योग्यता का पता भी आँगन में नजर आता था। क्या बनियान (स्वेटर) बुनना। हाथ में एल्युमीनियम  की दो सीकें जो बड़ी तेजी से ऊपर-नीचे होती रहती थी और दो सीखों के सहारे ही नये-नये डिजायन की बनियानें तैयार हो जाती थी। मेरी दीदी व दीदी की सहेलियों में तो प्रतियोगिता होती थी। दीदी व दीदी की सहेलियाँ पिक्चर देखने जातीं हीरो या हीरोईन ने कोई नई डिजायन की स्वेटर पहनी होती तो, वहीं पिक्चर देखते-देखते स्वेटर बीनना शुरू होता और पिक्चर खत्म होते ही स्वेटर भी पूरा।

एक दिन मैंने ये सोचा कि ये तो पैसों को बरबादी है, आप जा तो रहे हो पिक्चर देखने हाँल में और वहाँ बजाय पिक्चर देखने के, बुन रहे हो स्वेटर। इसलिये एक दिन स्कूल बंक कर, मैं चल दिया पिक्चर देखने को और घर आकर, कुछ दिन बाद जब दीदी  व सहेलियाँ आँगन में बैठी थी, तो मैंने उनकी परीक्षा लेने के लिऐ पिक्चर का जिक्र छेड़ दिया, तो आप यकीन नही कर पायेंगे कि उन लोगो ने मुझे पूरी स्टोरी ही बता दी।

इसके अलावा आँगन, केन्द्र हुआ करता था आचार डालने का, पापड़ डालने का, आलू के चिप्स डालने का, बड़ी-मूंगोड़ी डालने का। महिलाओं के लिये भी अच्छा हो जाता था । एक तीर से कई निशानें साध लेती थी,आपस में मेल-मुलाकात भी हो जाती थी, थोड़ी सी गप्पें भी हो जाती थी, एवं लगे हाथों, बड़ी-मूँगोड़ी, आचार-पापड़, व चिप्स भी बन जाते थे। तब एक चीज बड़ी अच्छी थी, आपस में एक-दूसरे के साथ सहयोग और सहभागिता।

आँगन में बूबू टाईप लोग हुक्का गुड़गुड़ाते, व देश-परदेश की बातें करते रहते। अच्छा अपनी जवानी के किस्से तो साहब पूरे उत्साह से सुनाते थे, कभी राजनैतिक परिचर्चा होती, कभी क्रिकेट की बातें होती। रेडियो में केमेंट्री भी चल रही होती और लोंगो की क्रिकेट की चर्चा भी। गावस्कर व विश्वनाथ आदि की बातें बड़ी जोरो-शोरो से होती। बीच-बीच में जब एक चिलम खत्म होती तो फिर दूसरी चिलम आ जाती। अच्छा चिलम आनें में एक पल की देरी भी सहन नही होती थी।

बच्चे यानी हम लोगों की तो साहब बात ही मत करों। सूबह से लेकर शाम तक हमारा बस एक ही काम होता था, खेलना, खेलना और सिर्फ खेलना। अच्छा बड़े भाई साहब, बहुत ही कड़क उनको देखकर तो पेंट गीली हो जाती थी। उन्होंने हम लोगों की समय-सारणी निर्धारित कर रखी थी। सूबह से दोपहर तक स्कूल, जो अनिवार्य था। छुट्टी लेने के लिये भी सॉलिड बहाने बनाने पड़ते थे, वो भी नामंजूर। स्कूल में टीचर कभी उठक-बैठक कराते, कभी मुर्गा बनाते, कभी कक्षा से बाहर करते, बाद में कक्षा से बाहर करना बंद कर दिया था, वो समझ जो गये थे हमारी चाल को। बाहर आकर तो फिर खेलने के लिये मैदान में चले जाते। एक दिन प्रधानाचार्य महोदय मैदान में ही पहूँच गये, हमसे पूछा “यहाँ कर रहे हो तुम  लोग?”, “तुम लोगो की तो कक्षा चल रही है।” तो हमने बताया की मासब जी ने कक्षा से बाहर निकाल दिया था हम खेलने मैदान में आ गये।

आगे आप समझ ही गये होंगै क्योंकि आप सब के साथ भी ऐसा कुछ तो जरूर हुआ होगा। खैर शाम को फिर भाई साहब ने लेकर बैठना। पहले कापी-किताब चैक होती कि हमने स्कूल में दिनभर क्या करा फिर होम वर्क करना होता फिर भाईसाहब पढ़ाते। पर हमारा तो मन खेल में लगे रहता। जैसे ही भाईसाहब बाजार गये, वैसे ही हम मैदान में गये हालांकि फिर शाम को? आगे नही बताऊँगा। खैर बड़े अच्छे होते थे वो दिन भी।

आँगन में ही कभी नींबू सनते थे, कभी फल कटते थे। ये काम महिलाऐं करती थी हम बच्चों का काम तो साहब खाने का था।

एक महत्वपूर्ण बात और आँगन विभिन्न प्रतियोगिताओं का केन्द्र बिन्दु भी थे कभी अंताक्षरी की प्रतियोगिता, कभी अंठी (कंचे) खेलने की प्रतियोगिता, कभी गिट्टे खेलने की प्रतियोगिता,कभी स्टाफू खेलने की प्रतियोगिता, गिल्ली-डंडा व पतंग उड़ाने की भी प्रतियोगिता ना जाने क्या-क्या प्रतियोगिताऐं होती रहती थी। हारने वाली टीम जीतने वाली टीम को पार्टी कराती और वो भी हम सब मिलकर कभी आलू के गुटके, कभी हलवा अलग-अलग व्यंजन बनाते व मिलकर ही खाते।

तब लोग ज्यादा पढ़े लिखे नही थे। सभ्य भी नही थे, औपचारिक व्यवहार  तो वो नही जानते थे। इसलिऐ  आँगन खुले होते थे। आँगन बँटे हुऐ नही थे इसलिऐ वो (आँगन) बड़े थे। रात की महफिल होती थी कभी भगवान के, कभी भूँतों के किस्से होते थे।

समय बदला। आदमी आज सभ्य हुआ। शिक्षित हुआ, व्यावहारिक ज्ञान में पारंगत हुआ इसलिये वो गँवारों से दूर हुआ, अब गँवार था ही कौन? इसलिये आँगन बँटे, बड़ी-बड़ी दीवारें खड़ी हुईं, घर बँटे अंत में बँट गये लोग।

आज आँगन तो है पर चहलपहल नही है। बच्चें भी हैं पर शोर नही हैं क्योंकि बच्चों के हाथों में मोबाईल जो आ गये हैं। और आ गया है फासला अमीरी-गरीबी का बच्चों के मन में।

आँगन रो रहा है अपने एकाकीपन पर।

अल्मोड़ा नगर की जानकारी देता वीडियो देखें ?


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